‘उस्तादों के उस्ताद’

जीवन से सच का सामना करना बड़ा कठिन होता है। इसलिए लोग अपना झूठ जिये जाएं, यहां तक कि उसे सच मान कर उसकी पताका लहरा दें, तभी सुख मिलता है। आजकल ताज पहनने का ज़माना नहीं रहा, लेकिन अपना बैज बना कर कन्धे पर लगाने और उसे पुरस्कार बना अपने व्यक्तित्व की प्रदर्शन खिड़की में सजाते हमने बहुत से  लोगों को देखा है। 
बुढ़ापे से दुहरी कमर और खांसते कराहते लोगों को तनिक कह कर तो देखिए, ‘आप तो दिन-ब-दिन और भी युवा होते जा रहे हैं।’ वह प्रसन्न होकर आपको गले से लगा लेंगे और झुकती हुई कमर तान कर चलने लगेंगे।
किसी अधेड़ या वृद्धावस्था के गले लगाती औरत को कह कर देखिए, ‘आप तो केवल चौबीस-पच्चीस वर्ष की लगती हैं।’ जो आपको पांच मिनट भी सहन करने के लिए तैयार नहीं, वह आपको सम्मान के साथ बिठा चाय-कॉफी पूछने लगेगी।  झूठ की पालिश तरक्की करती है तो चाटुकारिता का रोगन बन जाती है। इसका सही इस्तेमाल करने वाले कभी अपनी जिन्दगी का राह अवरुद्ध नहीं पाते। जल्दी ही फुटपाथ शयन से झोंपड़ी, झोंपड़ी से मकान और मकान से प्रासाद बनते नज़र आते हैं। पहले ऐसे लोगों को चम्मच संस्कृति के दत्तक कहा जाता था। आजकल देश की गरिमा और सांस्कृतिक गौरव बढ़ाने की प्रचलित होती परम्परा के अनुसार नाम बदल कर इन्हें शार्टकट संस्कृति के राजदुलारे कहा जाता है। जो आज इस संस्कृति का ध्वज वाहक नहीं, उसका आज तो बिगड़ा ही बिगड़ा उसके कल की भी कोई खबर नहीं लेगा। 
अपना कल, आज और कल सुधारने के लिए और कुछ महानुभावों के अनुसार अपना लोक ही नहीं परलोक सुधारने के लिए इस संस्कृति को स्वीकार ही नहीं आपके लिए उसका उस्ताद बन जाना भी बहुत ज़रूरी है। 
सवाल यह नहीं है कि पैकेट में क्या रखा है, पेशकारी के लिए पैकेट का सुन्दर होना बहुत ज़रूरी है। पैकेट कौन बनाता है? इसके लिए अलग से ट्रेनिंग स्कूल खुल जाने चाहिए। साहित्य लिखने से अधिक ज़रूरी है आपके पीछे आशीर्वचनों का समधुर गायन करते हुए प्रकाण्ड विद्वान। जी हां जो समीक्षक आपकी कृति में नोडल स्तर के गुण तलाश ले, वह प्रकाण्ड विद्वान। जो दोष बताने का साहस करें उसे अपनी ज़िंदगी के प्रांगण में घास छीलने पर लगा दो।
हर काम को सही ढंग से करने के आदाब बदल गये हैं। पहले सही प्रकाशक वह था जो उचित कृतियों का चयन करे और अपने प्रकाशित साहित्य से पाठकों की ज़िन्दगी में नया उजाला भर दे। अब ज़माना बदल गया है, जनाब। ज़िंदगी दुकान हो गयी है और उसे चलाने का ढंग बन गया सेल लगाना या डिस्काऊंट की घोषणा करना। आजकल तो किसी पुस्तक में क्या लिखा है, जानना ज़रूरी नहीं। उसके कितने पृष्ठ हैं, इसका अंदाज़ा आवश्यक है। पैसा फैंको तमाशा देखो। सौ पृष्ठ छापने की और दर है, दो सौ पृष्ठ की और। एक साथ दो तीन किताबों की पांडुलीपियां ले आओ, छपाने के मूल्य में रियायत मिल जाएगी। वैसे जितनी बड़ी पांडुलिपी, उतनी छापने वाले की खुशी ज़्यादा। यह खुशी कुछ इतनी बड़ी है कि कागज़ का संकट पैदा हो गया। जैसे-जैसे कचरा सड़कों पर बड़ा, वैसे-वैसे वाचनालयों में भी यह कचरा बढ़ता चला गया। वैसे आजकल इन्हें पढ़ता तो कोई है नहीं। चचा जान फरमाते हैं, ‘पुस्तक संस्कृति की मौत हो गई।’ कोई इसके अन्तिम रुदन में भी नहीं आया। हां, पुस्तकों के लिए किंडल हो जाने की घोषणा अवश्य हो गई। पुस्तकें ऑनलाइन हो गईं। अब इन ई-पुस्तकों पर शोध कितनी हुई है, यह तो ऊपर वाला जाने, हां अपने देश में शोधग्रन्थों की संख्या बढ़ने में आन अवश्य कमा लिया। सुना है अब तो डिग्रियों और अभिनंदनों की सेल भी लगने लगी। पैसे खर्च कर ज़िंदगी के बाज़ार में आपका चमकता हुआ बायोडाटा सामने आ जाए, इससे अधिक भला और क्या हो सकता है? नहीं तो किताब लिख ली और भाड़े के समीक्षक नहीं पटाये, साहित्य के अमर लेखकों की सूची बनाने वाले देवताओं को अर्ध्य नहीं चढ़ाया तो गुमनामी के अंधेरे ही इसका भविष्य होंगे। या आप ऐसी बारात लेकर चलेंगे कि जिसका दूल्हा अपने लिए दुल्हन जुटाये बिना ही बैंड बजाते रह जायेगा।
याद रखिये साहित्य जीवन का दर्पण होता है। आज जो साहित्य के लिए अनिवार्य सच हो गया लगता है, वह एक कामयाब ज़िंदगी के लिए उससे पहले ही नींव बन गया था। जैसे आप किसी साहित्यकार से नहीं पूछते आप क्यों लिखते हो, किसी गायक से नहीं पूछते, आप क्यों गाते हो, किसके लिए गाते हो, किसी चित्रकार से नहीं पूछते कि आप क्यों और किसके लिए तूलिका चलाते हो, बस यही सवाल ज़िंदगी में भी कोई नहीं पूछता? क्यों नहीं पूछता। 
कोई नेता जी से नहीं पूछता, आप नेतागिरी क्यों करते हो, आपकी राजनीति का उद्देश्य या लक्ष्य क्या है? पूछोगे तो सब शायद यही कह दें, जनता की सेवा और राष्ट्र कल्याण। लेकिन जैसे आज पुस्तक है, साहित्य है लेकिन पुस्तक संस्कृति लुप्त हो गई। वैसे ही आज जनता है, जनसेवा लुप्त हो गई। जनसेवा का अर्थ हो गया अपनो की सेवा। नेतागिरी की सफलता इसमें है कि वह आपके कितने टेढे काम सीधे करवा दे। बात राष्ट्रीयता की आज भी होती है, झण्डा ऊंचा रहे का गायन भी हो सकता है, लेकिन यह झण्डा आपके परिवार, मुहल्ले, सम्प्रदाय या जाति तक ही सिमटता क्यों जा रहा है। देश का अंधेरा बांटने की बजाय लोग अपने-अपने दीये का तेल बढ़ाने में लगे हैं। ज्यों-ज्यों इन दीयों का तेल बढ़ता है, इनकी लौ चमकती है, परन्तु इनके नीचे का अंधेरा बढ़ता जा रहा है। हां, चन्द लोगों के परिधान अधिक चमकदार और बहुमूल्य हो गए, लेकिन उनके पीछे उस अंधेरे में फटेहाल लोगों का समूह बढ़ता जा रहा है। अकेले अपने स्वार्थ के घेरे में सिमट गए ये लोग अब किस-किस की सुध लें? अच्छा तो यही है कि अपने परिवार, अपने वंशजों, अपने नाति-पोतों या अधिक से अधिक अपनी झांझ करताल बजा प्रशस्ति गायन करने वालों की जून सुधार दी जाए। उन्हें एक-एक वस्त्रालय की विरासत दे दें और फिर सदियों से अधनंगो, अधभूखे लोगों के बीच जा कहें, ‘हां क्रांति होगी ज़रूर होगी। आएगा समतावाद, नहीं चलेगा परिवारवाद।’ नारा ही लगाना है न, लगाते चले जाओ। 

#‘उस्तादों के उस्ताद’