आपात्काल तथा देश की वर्तमान स्थिति 

जून 1975 में आपात्काल की घोषणा हुई थी। तब 25-30 वर्ष के आसपास की युवा पीढ़ी अब 70-80 की उम्र होने पर जब यह याद दिलाए कि देखो कैसा अत्याचार हुआ था, रातोंरात देश एक जेलखाना बनने लगा था, सभी अधिकारों पर अंकुश लग चुका था और जनजीवन सबसे कठिन दौर से गुज़र रहा था तो ऐसे में सरकार की मंशा पर शंका और नेताओं के दोहरे चरित्र की कलई खुलने लगती है। यह संकेत क्या कहलाता है, जानना और समझना बहुत ज़रूरी है क्योंकि सत्ताधारी हों या विपक्ष के नेता, जनता को भ्रम में रखने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। सबसे पहले तो यह कि सत्ताधारी के हाथ में जो चाबुक होता है, उसका कब, कैसे और कहां इस्तेमाल करना है, यह समझ में आ जाता है। इसमें आवश्यक यह है कि जिस पर चाबुक चल रहा है, उसे यह लगे कि कितने प्यार से उसकी पीठ सहलाई जा रही है, उसे आनंद आए और अगले वार का इंतज़ार करने के लिए तैयार रहे। जनता जब जागरूक हो जाए तो असंभव शब्द के लिए शब्द कोष में कोई स्थान नहीं होता, वही हुआ। चाहे इसे अपना मान सम्मान बचाना समझा जाए, सामाजिक प्रतिष्ठा को स्थिर रखना कहा जाए या फिर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को पटखनी देना, बात तो यही है न कि किसी भी तरह सत्ता पर काबिज़ रहा जाए, उसके लिए कुछ भी किया जा सकता है। 
इंदिरा गांधी को 1971 का युद्ध जीतने पर गर्व से अधिक घमंड था। वह जानती थीं कि इसकी देश को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है और फिर उसके बाद का भीषण अकाल और उस पर माननीय उच्च न्यायालय का फैसला जिस पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी और कुछ समय की राहत, जिसमें उन्हें निर्णय करना था कि क्या कदम उठायें कि उनकी इज़्ज़त बनी रहे और जनता पर उनकी पकड़ भी कम न हो। आंदोलनों की बाढ़ आई हुई थी, महंगाई बेकाबू थी और सत्ता से बाहर रह गए नेताओं के लिए स्वर्णिम अवसर था जनता की नब्ज़ टटोलने का ताकि अपने को साधु और इंदिरा गांधी को शैतान सिद्ध करने में कोई कसर न छोड़ी जाए। इस स्थिति में या तो वह त्याग-पत्र देकर अगले चुनाव तक रुकतीं या संविधान के लचीलेपन का लाभ उठाकर सत्ता में बनी रहतीं। उन्होंने दूसरा रास्ता चुना और इसमें अपने पुत्र संजय गांधी को अपना उत्तराधिकारी चुन लिया। 
उन्होंने जय प्रकाश नारायण के प्रभाव को कम करने के लिए आचार्य विनोबा भावे से आपात्काल को ‘अनुशासन पर्व’ कहलवाया। सरकारी अधिकारियों में एक घबराहट थी कि जहां सिर्फ झुक कर काम करना था। उनकी स्थिति फर्श पर रेंगने जैसी स्थिति बन गई, अनुशासन के नाम पर समय पर रिपोर्ट देना काफी था। लोकतंत्र की भावना से खिलवाड़ और संविधान की धाराओं से छेड़छाड़ कैसे हो सकती है, यह आपात्काल की सबसे बड़ी सीख थी जिस पर आज तक सत्ताधारियों द्वारा बदस्तूर अमल किया जा रहा है। 
देखा जाए तो इंदिरा गांधी का बीस सूत्री हो या संजय गांधी का पांच सूत्री कार्यक्त्रम, सभी सरकारें इन्हीं के इर्दगिर्द घूमती रहती हैं। इन कार्यक्रमों में थोड़ा बहुत फेरबदल, उन पर चांदी या सोने का मुलम्मा चढ़ाना ताकि जनता को लगे किए वाह क्या कहने हैं, इस सरकार के आम आदमी का कितना ध्यान है। परन्तु वास्तविकता को छिपाकर रखना अधिक समय तक संभव नहीं होता। इसीलिए जोड़-तोड़, उठापटक करते रहना ज़रूरी हो जाता है वरना बताइए कि संजय गांधी की इन बातों में क्या नयापन था कि देश में प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था हो, दहेज के लेन-देन पर रोक लगे। परिवार नियोजन से कौन इंकार कर सकता है, लेकिन जबरन नसबंदी ने सब कुछ इतना चौपट कर दिया कि आजतक कोई भी खुलकर जनसंख्या नियंत्रण की बात नहीं कर पाता। शहर को सुंदर बनाने के लिए तब की तरह आज भी बस्तियों को उजाड़ा जाता है, लेकिन बदनाम इमरजेंसी हो गई। प्यार से समझाने के फायदे और ज़बरदस्ती करने के नुक़सान समझना आपात्काल की सबसे बड़ी सीख कही जा सकती है। 
उदाहरण के लिए मुफ्तखोरी की लत लगवाने, लोगों को निकम्मेपन की राह दिखाने और उदारीकरण के नाम पर धन तथा प्राकृतिक संसाधनों पर कुछ विशिष्ट और प्रभावशाली व्यवसायियों तथा उद्योगपतियों का कब्ज़ा दिलवाना प्रत्येक सरकार का परम लक्ष्य रहा है।
हम अभी तक विकसित होने की सीढ़ी पर घिसट रहे हैं जबकि हमसे बहुत छोटे, अविकसित देश हमें मुंह चिढ़ाते हुए प्रत्येक क्षेत्र में चाहे तकनीक हो, टेक्नोलॉजी हो या मानव संसाधनों का उपयोग हो, हमसे बहुत आगे निकल चुके हैं। राजनीति में भक्ति का अतिरेक होने पर उसमें अंध जुड़ ही जाता है और वर्तमान सरकार और उसके शीर्ष नेता इस भक्तिभाव से नाराज़ और निराश होने के स्थान पर प्रसन्न हैं तो इसका अर्थ यह है कि न वे देश को समझते हैं और न ही उनके मन में इससे अधिक पाने की क्षमता है। ऐसी स्थिति में देश की अर्थव्यवस्था हो या सामाजिक क्षेत्र राजनीति का उस पर हावी होना देश के लिए कभी अच्छा नहीं हो सकता। 
हमारे देश की सरकारों का यह प्रिय शगुल रहा है कि एक बड़ी आबादी को मार्जिन या हाशिये पर रखा जाए। आंकड़ों की बाजीगिरी कितनी भी कर ली जाए, लेकिन गरीबी-अमीरी, सम्पन्नता-विपन्नता और विकसित-अविकसित होने का अर्थ समझना मुश्किल नहीं है, बस देखने का नज़रिया सही होना चाहिए।  प्रजातंत्र कितना नाज़ुक है, यह आपात्काल ने बता दिया था, संविधान से छेड़छाड़ उसमें संशोधन किए जा सकने के प्रावधान से सुनिश्चित कर दी गई है, अब बचा मीडिया, जिसका विस्तार इतना हो चुका है और उसका शोर इतना जबरदस्त है कि आम जनता का दुख दर्द महसूस करना तो दूर, सुनाई भी नहीं दे सकता। हद दर्जे की चापलूसी और बेशर्मी का स्तर पार कर चुका नेताओं का काईयांपन आज न्यायपालिका पर भी हावी हो रहा है। भय रहता है कि ईमानदारी की कोई नई व्याख्या न सामने आ जाए, परिश्रम का नया विकल्प निकल आए, भ्रष्ट बने रहने पर पुरस्कार मिल जाए, नैतिकता के नए मानदंड तय हो जाएं और किसी भी नए या पुराने कानून अथवा नियम का उल्लंघन करने के मनगढ़ंत आरोप में गिरफ्तारी और सज़ा हो जाए। अब तो नए टूल्स जैसे एआई की ताकत का भी पता चल रहा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यही भविष्य है। परमात्मा ही जाने क्या होगा आगे और कैसा होगा कल, जिसका अनुमान लगाने में भी डर लगता है।

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