पैंशन विहीन टकटकी बांध देखते अकेले बूढ़े

कभी हममें से किसी को भी किसी डाक्टर के पास आधा-पौने समय गुज़ारना पड़े तो आप पाएंगे कि दस में से चार मरीज़ साठ से सत्तर-पचहत्तर वर्ष के होंगे और उनकी मुख्य तकलीफ वज़न का कम होते जाना, भूख में कभी रातों को सो न पाना, ऊर्जा का अभाव, घबराहट, खुद को गया गुज़रा समझ लेना जैसी समस्याओं से जूझते हुए पाएंगे। उन्हें बार-बार लग रहा होता है कि घर में कोई उनकी सुनता नहीं। कदम-कदम पर उनकी उपेक्षा हो रही है। उच्च स्तरीय जीवन पाने के लिए बच्चों की व्यस्तता, भागदौड़ भी उन्हें बेचैन करती है और किनारे कर देती है। वयोवृद्ध मित्र (सीनियर सिटीज़न) इतना एकाकीपन क्यों महसूस करते हैं? यह एक बड़ा सवाल है। हम पंजाब का ही आकलन करें तो पढ़ाई के नाम पर, कैरियर के नाम पर, अधिक धन कमाने के नाम पर, जॉब की सम्भावना के नाम पर युवा पीढ़ी में कनाडा, आस्ट्रेलिया जाने की होड़ लगी है। वे लड़के-लड़कियां जो कनाडा, आस्ट्रेलिया का सपना पूरा नहीं कर पाते वे गुड़गांव, नोएडा, मुम्बई, हैदराबाद का रुख करते हैं। महानगर उन्हें पुकार रहे हैं और वे महानगर में अपने सपनों की उड़ान देखते हैं। पीछे बूढ़े मां-बाप अकेले बच्चों के प्रति अनेक चिंताओं से भरे खाली कमरों, संवादहीन तस्वीरों को देखते रहते हैं। फोन पर भी अपने कष्ट नहीं बताते कि कहीं बच्चे परेशान न हो जाएं। पिछले कुछ दशकों में भारत में बुजुर्गों की संख्या में इज़ाफा हुआ है। अवधेश प्रताप सिंह द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वना मंत्रालय की 2016 की रिपोर्ट में कहा गया है कि वृद्धजनों की संख्या में 2001 के बाद 35.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में बुजुर्गों की संख्या लगभग 10.30 करोड़ थी उनमें 70 प्रतिशत लोग गांवों में रहते थे। बताया कि सर्वेक्षणों से यह भी पता चलता है कि शहरों में रहने वाले लगभग 18 प्रतिशत वृद्ध कुपोषण के शिकार हैं, 30 प्रतिशत वृद्ध पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं प्राप्त नहीं कर पाते और 50 प्रतिशत बुजुर्ग अपने परिवार के सदस्यों और अन्य लोगों से उचित व्यवहार नहीं पाते, बल्कि कई अन्य मामलों में अमानवीय व्यवहार झेलते हैं। हितेन्द्र पटेल ने एक अन्य वास्तविकता की तरफ संकेत किया। कहा कि स्त्री को पुरुष की तुलना में हमेशा शोषित वंचित देखने की प्रवृत्ति के कारण कहा जाता है कि बुजुर्ग स्त्री की अवस्था बुजुर्ग पुरुष से बदतर है। ध्यान से देखने पर लगेगा कि बूढ़ी स्त्री तो बच्चों के जन्म, रसोई घर के काम-काज करने की शक्ति के कारण अभी भी परिवार में अपनी ज़रूरत के कारण कुछ हद तक स्वीकार्य है। पर बुजुर्ग पुरुष को बेकार समझा जाता है। अगर वह पैंशन न पाता हो और उसके नाम से ज़मीन-ज़ायदाद न हो तो उनकी अवस्था स्त्री से भी खराब होती है। जो पूरी ज़िन्दगी पुरुष की अकड़ लिए रहा हो, उसका चुपचाप टुकर-टुकर देखते रहना उसे कितना असाध्य लगता होगा, कोई उससे पूछे। यह भी कहा कि निश्चित रूप से ग्लोबलाइजेशन के बाद नई जीवनशैली के प्रति जान छिड़कने वाला एक लोभी मन बना है। उसकी चपेट में हमारे परिवार आये हैं। हमारे बच्चे हमसे अधिक सुख-प्रेमी और ‘चटोर’ हैं। बुजुर्ग बच्चों में अपने शेष-जीवन का सुख ढूंढा करते थे। अब वह नहीं रहा। अब दादा-दादी बच्चों के लिए ‘बोर’ हैं। ओल्ड एज़ होम की बढ़ती संख्या साबित करती है कि विकास के इस मॉडल का बुल्डोज़र परिवार संस्था को किस हद तक जमींदोज़ कर चुका है। जिस माता-पिता ने अपनी पूरी उम्र अपने बच्चों का जीवन संवारने में लगा दी, अब उन्हीं बच्चों के पास उनके लिए समय नहीं है। पूरा समाज जिस दिशा में जा रहा है, वह मृग मरीचिका है। मानव सभ्यता के इतिहास में लोगों से संवाद और सम्पर्क में रहने के लिहाज़ से यह दौर सबसे समृद्ध है। तकनीक ने दूरियां पाट दी हैं। हज़ारों किलोमीटर दूर बैठे व्यक्ति से बात करना सहज हो गया है। सोशल मीडिया ने दूर-दराज बैठे लोगों को सामूहिक वार्तालाप का अवसर दिया है। फिर भी बुजुर्ग अकेले और स्नेह से वंचित क्यों हैं?