सेना प्रमुख के पद की सीमाएं

गत काफी दिनों से देश भर में नागरिकता संशोधन कानून संबंधी बड़ी बहस चल रही है। बहुत सारे स्थानों पर धरने और प्रदर्शन हो रहे हैं। कई स्थानों पर भीड़ द्वारा हिंसक रूप भी धारण किया गया और बड़ी गड़बड़ भी हुई है। अब तक डेढ़ दर्जन लोग पुलिस की गोली से मारे भी जा चुके हैं परन्तु शुरू हुआ यह सिलसिला खत्म नहीं हो रहा। ऐसे माहौल में सेना प्रमुख विपिन रावत द्वारा इस संबंध में दिया गया बयान भी बड़ी चर्चा का विषय बना हुआ है। जनरल रावत ने कहा है कि विश्वविद्यालयों और कालेजों में आगज़नी करने वाले नेता नहीं हो सकते और न ही लोगों को गलत दिशा दिखाने वाले असली नेता कहे जा सकते हैं। किसी अहम मामले पर देश भर में उठे तूफान के मद्देनज़र सेना प्रमुख द्वारा ऐसी टिप्पणी करना दुर्भाग्यपूर्ण भी है और आपत्तिजनक भी। किसी भी सेना प्रमुख द्वारा देश के आन्तरिक हालात के बारे में ऐसी टिप्पणी पहले शायद ही कभी सामने आई हो, क्योंकि सेना के अनुशासन के कानून बने हुए हैं। पूर्व जलसेना प्रमुख एल. रामदास ने भी जनरल रावत के बयान को गलत बताते हुए कहा है कि सशस्त्र सेना में सभी को देश की सेवा करने के दशकों पुराने सिद्धांत का पालन करना चाहिए न कि किसी राजनीतिक शक्ति का। इस संबंध में सेना के नियम स्पष्ट हैं कि हम सिर्फ देश की सेवा करते हैं। सैनिक एक्ट की धारा-21 किसी भी सैनिक या सैन्य अधिकारी को किसी भी बैठक या प्रदर्शन जो किसी राजनीतिक पार्टी या किसी अन्य कार्य के लिए किया जा रहा हो, को सम्बोधन करने से रोकती है। देश की आज़ादी के बाद भारतीय सेना ने अपनी इन परम्पराओं का सख्ती से पालन किया है और कभी भी किसी वर्गीय या राजनीतिक मामले में हस्तक्षेप नहीं किया। देश के पड़ोसी देश पाकिस्तान से हमारा इसी बात से ही बड़ा अन्तर देखा जा सकता है। वहां सेना ने समय-समय पर देश के राजनीति प्रबंध में हस्तक्षेप किया है। हर क्षेत्र में अपना अधिकार जमाने की कोशिश की है। इस बात में वहां की सेना सफल भी हुई है। इसलिए कई बार पाकिस्तान सैनिक तानाशाहियों का जोखिम झेलता रहा है। इसीलिए सैन्य जनरलों ने अक्सर उस देश के संविधान को अपनी इच्छाओं के अनुसार तोड़ा-मरोड़ा है। इसीलिए वहां वोटों द्वारा चुनीं गई सरकारें सैनिकों की कठपुतलियां बनी रही हैं और देश की विदेश नीति को भी सेना ही चलाती रही है। जनरल रावत का बयान ऐसी भावनाओं को प्रकट करता है। इसकी कड़ी आलोचना होना स्वाभाविक है। इसीलिए ही विपक्षी पार्टियों ने यह सवाल उठाया है कि क्या भारत में सेना का राजनीतिकरण  इसको पाकिस्तान के रास्ते पर ले जा रहा है। इस बयान को प्रत्यक्ष रूप में सरकार का पक्ष करने वाला माना गया है और यह भी कि यह मोदी सरकार की छवि को ठेस पहुंचाता है कि एक सेना प्रमुख इतना खुलकर अपनी परम्पराओं को तोड़ने का साहस कर रहा है। नि:संदेह किसी अहम मामले पर अपना विरोध दर्ज करना लोगों का प्राथमिक आधार है। सेना प्रमुख के बयानों को लेकर अनेक तरह की चर्चा छिड़ सकती है, जो सेना को विवाद का विषय बना सकती है, जिससे निश्चय ही सेना के अनुशासन में बड़ी कमज़ोरी भी आ सकती है। जनरल रावत कुछ दिनों में ही सेवानिवृत्त होने वाले हैं, परन्तु इसके साथ ही यह चर्चा भी चल रही है कि सेना की तीन शाखाओं का एक प्रमुख बनाया जा रहा है। इस पद के लिए विपिन रावत के नाम की बड़े स्तर पर चर्चा चल रही है। ऐसी स्थिति में सेना प्रमुख के इस बयान को और भी खतरनाक समझा जा सकता है। मोदी सरकार के लिए इस संबंध में स्पष्टीकरण देना बेहद ज़रूरी है, ताकि लोगों तक इसके गलत संदेश न जा सकें।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द