" कोरोना के विरुद्ध जंग " कितनी सही है मोदी सरकार की कारगुज़ारी ?

यह खरी-खरी कहने का समय है और सीधी सच्ची बात यह है कि समय हमारे लिए ठहर गया है। आज का दिन भी गुज़रे कल की तरह कोरोना पीड़ितों की संख्या की एक नई  ऊंचाई पर पहुंचने का समाचार लेकर आया है। आज के दिन भी समाचार सड़क पर पैदल चल रहे और ट्रकों में ठूस कर बिठाये जा रहे दुखी मज़दूरों की दुर्दशा बयान कर रहे हैं। बीते कल की तरह ही आज के दिन भी हमारा सामना एक ऐसे विवेकहीन वित्त मंत्री से पड़ा है, जो पानी सिर से गुज़र जाने की नौबत आने के बाद भी संकट में फंसी आर्थिकता के कठिन सवालों को दर-किनार करके अपनी कुर्सी पर कायम है। स्वास्थ्य संकट और आर्थिक संकट के 2 माह पूरे होने वाले हैं तो अब समय यह परखने का है कि मोदी सरकार ने इस महामारी से निपटने के लिए जो कदम उठाये हैं, वह कितने कारगर हैं?सरकार ने शुरुआती तौर पर जो कदम उठाये हैं उनको सिरे से नकारने का मेरा उद्देश्य नहीं है। मैंने अपने इस कॉलम में प्रधानमंत्री की तालाबन्दी की घोषणा का समर्थन किया था और यह भी लिखा था कि महामारी को लेकर जैसी तैयारी होनी चाहिए थी, तालाबन्दी को लेकर जो समय चुना जाना चाहिए था और जो-जो बातें सार्वजनिक करनी चाहिए थीं, उस संबंधी सरकार की तरफ से बहुत कुछ अधूरा ही रहा। फैसला लेना कठिन था परन्तु प्रधानमंत्री ने बड़ी मज़बूती दिखाते हुए फैसला लिया। अगर दुविधा में फंसे रहते या फिर फैसला लेने में कुछ ढील हो जाती तो हमारी स्थिति आज से कहीं अधिक खराब होती। मुझे लगता है कि हमने फैसला लिया तो ज़रूर परन्तु उसमें पहले ही बहुत देर हो चुकी थी परन्तु सिर्फ इस आधार पर सरकार को दोषी करार देना सही नहीं होगा। बीमारी को लेकर उस समय विश्व स्तर पर जो जानकारी मौजूद थी और बीमारी को लेकर जिस प्रकार की जागरुकता थी, उसको देखते हुए हम यह नहीं कह सकते कि सरकार ने जानबूझ कर निर्णायक फैसला करने में देरी कर दी, एक तरह से देखें तो हमने कई देशों की तुलना में कहीं अधिक तेजी से कदम उठाया है।अभी जो अ़फरा-त़फरी का आलम दिखाई दे रहा है, उसके लिए अकेली सरकार को दोषी ठहराना भी ठीक नहीं। महामारी एकदम से अचानक आ जाए तो फिर बेहतर से बेहतर स्थान पर भी अ़फरा-त़फरी मच जाएगी। भारत जैसे देश की स्थिति तो ़खैर महामारी के अचानक आ धमकने की स्थिति में और भी अधिक खराब होगी क्योंकि यहां सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं  कुछ मूलभूत मामलों में ़खस्ताहाल हैं और महामारी जैसी आपदा से निपटने हेतु हमारे प्रबंध भी बहुत दयनीय हालत में हैं। सरकार के दोष गिनाते हुए हमेें इस बात पर ज़रूर नज़र रखनी होगी कि भारत जैसे देश की ज़मीनी हकीकत को देखते हुए हम क्या उम्मीद रख सकते थे और क्या कुछ बीमारी की रोकथाम और अर्थ-व्यवस्था को उभारने के मोर्चे पर हासिल कर सकते थे? साथ ही, हमें यह भी मान कर चलना होगा कि कुछ भूलें-गलतियां भी होंगी। यदि आपदा इतनी उलझन भरी हो तो नेक नीयति से भरा हुआ  बेहतर से बेहतर नेता भी फैसले लेने में कहीं न कहीं भूल कर सकता है। ऐसी गलतियों की आलोचना तो होनी चाहिए परन्तु ऐसी स्थिति में नेता को गलत फैसले लेने का दोषी करार नहीं दिया जा सकता। अफसोस यह कि इस उदार दृष्टिकोण से भी परखें तो तथ्य यही निकल कर सामने आता है कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने ऐन ज़रूरत की इस घड़ी में देश को नाकाम किया है। स्वास्थ्य संकट पर लगाम लगाने के मामले में सरकार इधर-उधर हाथ-पांव मारती नज़र आ रही है। आर्थिक संकट को काबू करने के मोर्चे पर नकारा साबित हुई है तथा देश जो मानवीय त्रासदी झेल रहा है, उसे लेकर सरकार अत्यंत संवेदनहीन दिखाई दे रही है।  प्रधानमंत्री को कुछ सवालों का सामना तो करना ही पड़ेगा कि आखिर विकल्प के तौर पर जब सुझाव दिया जा रहा था कि शुरुआती चरण में ही अधिक से अधिक टैस्ंिटग की जाए तो प्रधानमंत्री ने इन सुझावों की तरफ ध्यान क्यों नहीं दिया? प्रधानमंत्री ने महामारी को रोकने के केरल सरकार के यत्नों से कुछ सबक लेने और उसे देश स्तर पर लागू करने का प्रयास क्यों नहीं किया? अंत में उन्होंने राजनीतिक लाभों को ही प्राथमिकता क्यों दी? जब प्रधानमंत्री के समर्थक बीमारी को सरेआम साम्प्रदायिक रंगत दे रहे थे तो उन्होंने ऐसे समर्थकों के खिलाफ कड़े कदम क्यों नहीं उठाये? जब एक बार यह ज़ाहिर हो गया कि तालाबन्दी बीमारी की बढ़ती हुई संख्या के ग्राफ को एक बिन्दु पर ठहराने के लिए नाकाफी है तो भी उन्होंने तालाबन्दी को एक मात्र हल मान कर क्यों पेश किया? समय रहते गलती सुधारने की जो बात तर्क-संगत लग रही थी, उसे क्यों नहीं माना? क्या प्रधानमंत्री को अपने अहंकार और अक्स की चिंता अधिक थी और बीमारी के प्रसार की कम थी? और इस सिलसिले का अंतिम सवाल यह कि आखिर सरकार का कोई उच्च अधिकारी (कई देशों में ऐसे मामलों में प्रधानमंत्री सवालों के जवाब देते हैं, परन्तु यहां तो कोई मंत्री भी जवाब देने के लिए तैयार नहीं है) महामारी को लेकर किए गए सवालों के जवाब देने के लिए क्यों नहीं आता? जहां तक आर्थिक मोर्चे का सवाल है, हम अपनी परख में इस बात को स्वीकार करके चलें कि सरकार कुछ वित्तीय संकटों का सामना कर रही है, हालांकि इसकी ज़िम्मेदारी भी सरकार की ही है क्योंकि उसने कार्पोरेट जगत का ऋण माफ करने के लिए गलत समय चुना और आर्थिक उपलब्धि को लेकर बातें बढ़ा-चढ़ा कर पेश कीं। फिर भी, हम सरकार से यह ज़रूर पूछना चाहेंगे कि सरकार ने मांग बढ़ाने (प्रत्येक महत्त्वपूर्ण अर्थ-शास्त्री के ज़ोर देने के बावजूद) की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया? आखिर बैंकों को इतनी नकदी देने पर ज़ोर क्यों है जबकि इस बाबत उसको ज़रूरी सुझाव मिले थे। आखिर संकट के समय इसका इस्तेमाल एक अवसर के रूप में करते श्रम कानूनों, कृषि क्षेत्र, वातावरण और निवेश जैसे क्षेत्रों में नीतिगत परिवर्तन क्यों किये गये जबकि ऐसे कदमों का कोरोना संकट की रोकथाम से कुछ लेने-देना नहीं है और एक सवाल यह भी कि लोगों को बताया क्यों नहीं जा रहा कि देश किस आर्थिक दशा में पहुंच चुका है? आखिर ‘पैकेज’ को बड़ी ही शातिराना ढंग से पेश करने की ज़रूरत क्यों आ पड़ी थी।  ये सवाल हमें एक उदास उत्तर की ओर ले जाते हैं। विश्व की तीसरी सबसे बड़ी ‘अर्थ-व्यवस्था’ जब भयानक मंदी की गिरफ्त में आ गई तो आर्थिक मोर्चे पर कदम उठाने का ज़िम्मा अपरिपक्व अर्थ-शास्त्रियों, अज्ञानी एवं अहंकारी राजनीतिज्ञों के भरोसे छोड़ दिया गया। राजनीतिज्ञ अर्थ-व्यवस्था को बचाने की बजाय अपनी कुर्सी और अपने धनाढ्य मित्रों को बचाने में लगे हुए हैं।अंत में ज़रा देखें कि सरकार ने उस मानवीय त्रासदी से देश को उभारने के मोर्चे पर क्या किया जो हमें सड़क पर चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे, छोटे-छोटे बच्चों और वृद्ध माता-पिता के साथ घर लौटते और इसी क्रम में सड़कों पर दुर्घटनाओं का शिकार हो कर मारे जा रहे प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा के रूप में नज़र आ रही है। यहां किसी भी परिणाम पर पहुंचने से पूर्व हम मानकर चलें कि देश में असमानता की जो बड़ी खाई लोगों में मौजूद है, उसे देखते हुए कुछ न कुछ संकट झेलना तो एक तरह से लाजिमी है। फिर भी, पूछने के लिए यह सवाल तो ज़रूरी है कि क्या सरकार को कभी यह ख्याल आया था कि प्रवासी मज़दूरों के पलायन का ऐसा संकट पैदा हो सकता है और क्या तालाबन्दी की घोषणा के समय ऐसे संकट से निपटने के लिए सरकार ने कोई तैयारी की थी? आखिर विश्व के किसी अन्य देश से हमें ऐसे समाचार सुनने को क्यों नहीं मिल रहे? अफ्रीका के कई देश तो हमसे भी ज्यादा ़गरीब हैं, फिर वहां ऐसा समस्या क्यों नहीं है? और फिर एकतरफा तालाबन्दी के प्रथम सप्ताह में ही सरकार ने यह देख लिया था कि प्रवासी मज़दूर किस स्थिति में हैं तो उसने कानून प्रबन्धों के पक्ष से कुछ अपीलें जारी करने के अलावा इस संकट से उभरने के लिए और क्या किया? आखिर रेलगाड़ियां चलाने का फैसला लेने में इतनी देरी क्यों हुई और फिर रेलगाड़ी चलाने का फैसला ऐसे समय में क्यों लिया गया जब ़खतरा और भी बढ़ गया था? जब घर लौटने के लिए उतावले हुए मज़दूरों के समक्ष जान बचाने की नौबत आन पड़ी थी तो ऐसी आपदा में उनसे किराया वसूलने का ख्याल दिमाग में कैसे आया? सड़क पर पैदल चलते मज़दूरों को मानवीय सहायता देने के बाबत् गृह मंत्रालय की साधारण-सी सलाहें (एडवाइज़री) जारी करने में 6 सप्ताह का समय क्यों लगा?सरकार ने राष्ट्रीय स्तर की इस भयानक मानवीय त्रासदी के प्रति जो शर्मनाक रवैया अपनाया है, उसे ‘संवेदनशील’ कहना स्थिति की वास्तविकता से मुंह फेरने जैसे होगा। इस सरकार को ‘ज़ालिम’ कहना भी नाकाफी है। देश चौ-तरफा रसातल में जा रहा है और इस दौरान सत्ता पर बैठे शासक राजनीतिक साजिश, आपसी दुष्प्रचार और अपना अक्स चमकाने के खेल में लगे हुए हैं। आने वाले समय में इतिहास की किताबों में दर्ज होगा कि भारत वर्ष 2020 की पहली छमाही में बेमिसाल स्वास्थ्य संकट, आर्थिक संकट और मानवीय त्रासदी झेल रहा था और इस संकट से देश को उभारने के लिए सरकार ने जो कदम उठाये, वह बड़े ज़ालिम थे और सरकार निहायत ही निकम्मी थी।