भाजपा ने विपरीत परिस्थितियों में भी दिखाई अच्छी कारगुज़ारी 


भारतीय जनता पार्टी अगर चाहे तो राहत की सांस ले सकती है। अगर हिमाचल प्रदेश में विधानसभा और दिल्ली में महानगर पालिका का चुनाव हारने के साथ कहीं उसे गुजरात के विधानसभा चुनाव में पिछली बार की तरह फंसी-फंसी जीत या हार मिलती, तो 2024 के लोकसभा चुनाव की अग्रिम भूमिका बांधने में नरेंद्र मोदी और उनके रणनीतिकारों को बहुत सी अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ सकता था। अब गुजरात की शानदार जीत के पीछे वे हिमाचल और दिल्ली की हार छिपा सकते हैं। लेकिन, इसके बावजूद यह तो मानना ही होगा कि भाजपा के लिए गुजरात में एंटी-इनकम्बेंसी (सत्ता विरोधी भावना) के बावजूद एक चुनाव-अभियान को दर्शनीय बनाने और विपरीत परिस्थितियों से भी अनुकूल नतीजे निकालने की क्षमता है। इस संदर्भ में वह अतीत की प्रभुत्वशाली कांग्रेस से भी आगे है।
लोकतंत्र में सत्ता प्राप्त करना अगर सफलता का पहला चरण है, तो दूसरा है उस सत्ता को चुनाव-दर-चुनाव टिकाये रखना। दरअसल, चुनाव का सामना कर रही प्रत्येक सरकार को किसी न किसी स्तर पर एंटी-इनकम्बेंसी या सरकार विरोधी भावनाओं का सामना करना ही पड़ता है। चुनावी रणनीति में कुशल पार्टियों और नेताओं की ़खूबी इस बात में होती है कि वे एंटी-इनकम्बेंसी को समय रहते भाँप कर उसके तीखेपन को कम करने की योजना बनाते हैं। कुल मिला कर उनका लक्ष्य होता है सरकार विरोधी भावनाओं को सरकार समर्थक भावनाओं में बदलना। ऐसा न कर पाने की सूरत में वे इतना तो चाहते ही हैं कि अगर चुनाव न जीत पाएँ तो कम से कम अपनी हार को नरम अवश्य कर लें, ताकि उनका सूपड़ा न साफ हो। भाजपा गुजरात में 27 साल के शासन की, दिल्ली की महानगर पालिका में पंद्रह साल की और हिमाचल प्रदेश में पाँच साल की एंटी-इनकम्बेंसी का सामना कर रही थी। इन सरकार विरोधी भावनाओं का स्वर तीखा था। रूझान बदलाव का था। किसी न किसी रूप में पराजय का सामना करना ही था। लेकिन, भाजपा ने कुशल योजनाओं, उनसे जुड़ी युक्तियों और तीनों राज्यों की अलग-अलग परिस्थितियों का इस्तेमाल करके एक चुनाव जीत लिया और दो में अपनी पराजय को न्यूनतम करने में सफलता प्राप्त की।    
छह महीने पहले लग रहा था कि दिल्ली की महानगर पालिका के चुनावों में भाजपा का स़फाया हो जाएगा। जनता भाजपा पार्षदों के भ्रष्टाचार और नाकारापन से बहुत नाराज़ थी। लेकिन इस पार्टी ने कई दौर में विभिन्न युक्तियों का सहारा लेकर इस परिस्थिति का कमोबेश कामयाब म़ुकाबला किया। सबसे पहले उसने चुनावों को जितना हो सकता था, उतना टाला ताकि उसकी रणनीति को प्रभावी होने के लिए उपयुक्त अवधि मिल सके। उसके बाद बंटे हुए तीनों नगर निगमों का विलय करके एक शक्तिशाली मेयर की प्रबल निर्वाचित हस्ती पैदा करने की संभावनाएं तैयार की। दिल्ली की तीन बार मुख्यमंत्री रहने वाली शीला दीक्षित का विचार था कि एक चुना हुए मेयर दिल्ली के मुख्यमंत्री को चुनौती दे सकता था। 
चूंकि उस समय महानगर पालिका का विभाजन नहीं हुआ था, इसलिए उसे ‘सुपर सीएम’ की तरह पेश किया जा सकता है। इसी का राजनीतिक तोड़ निकालने के लिए उन्होंने दिल्ली की पालिका को तीन हिस्सों में बाँट दिया था ताकि तीन कमजोर मेयर बन जाएं और उन्हें चुनौती न दे सकें। भाजपा ने इस बात को समझा कि वह विधान सभा में अरविंद केजरीवाल को हराने की स्थिति में वे नहीं है। इसलिए अगर किसी तरह से दिल्ली में मेयर बन जाए तो चुने हुए मुख्यमंत्री के मुकाबले चुने हुए मेयर को पेश किया जा सकता है।
तीन नगर निगमों के एकीकरण के बाद वार्डों की हदबंदी शुरू की गई। इसके तहत बड़ी चतुराई से वार्डों का आकार बढ़ाकर उनकी आबादीमूलक संरचना में परिवर्तन किया गया। आम आदमी पार्टी के समर्थन आधार के कुछ हिस्सों को विभिन्न वार्डों में भाजपा के समर्थन आधार के में इधर-उधर फिट करने की कवायद की गई। यह योजना कितनी असाधारण थी, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा ने आम आदमी पार्टी के नेतृत्व पर सरकारी एजेंसियों की मदद से ज़बरदस्त हमला शुरू किया। वह आम आदमी पार्टी को भ्रष्टाचारी साबित करना चाहती थी ताकि भाजपा पर लगने वाला भ्रष्टाचार का आरोप प्रभावी न रह जाए। भाजपा जानती थी कि इतना सब करने के बावजूद भी उसका चुनाव जीतना मुश्किल है। भाजपा चुनाव नहीं जीत पाई लेकिन अपनी हार को नरम करने में कामयाब रही। 
गुजरात का चुनाव भाजपा की युक्तियों की सम्पूर्ण सफलता के लिए जाना जाएगा। वहाँ स्थानीय परिस्थितियों ने भी उसकी मदद की। चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों में साफ तौर पर संकेत दिखा रहा था कि करीब 43 फीसदी वोटर सरकार बदलने के लिए वोट देना चाहते हैं। अंत में भाजपा को 53 फीसदी वोट मिले, और 47 फीसदी वोटरों ने उसके खिलाफ वोट किया। यहां भाजपा को दो तरह के परिस्थितिजन्य लाभ मिले। पहला था 90 के दशक के बाद पहली बार हो रहे त्रिकोणीय मुकाबले का। चूंकि आम आदमी पार्टी देहातों में कांग्रेस से उसके वोट छीनने में कामयाब रही, इसलिए भाजपा कांग्रेस के खाते से कई सीटें छीन पाई। लेकिन, उसी तर्ज पर शहरों में आम आदमी पार्टी भाजपा से उसके वोट नहीं छीन पाई। परिणाम यह हुआ कि वहाँ सत्तारूढ़ दल अपना प्रभुत्व बनाये रख सका। भाजपा की सीटें बढ़ने में इस कारक की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। दूसरा लाभ था कांग्रेस की बेहद कमज़ोर चुनावी मुहिम। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा पर गुजरात के चुनाव की बलि देने का फैसला कर लिया है। 2017 में बारह दिन तक चुनाव प्रचार करने वाले राहुल गांधी इस बार वहां केवल एक दिन के लिए गए। कांग्रेस के पारम्परिक समर्थकों को यह देख कर बहुत निराशा थी। 
इन परिस्थितिजन्य लाभों के अलावा भाजपा ने 2017 में कमज़ोर प्रदर्शन करने के बाद से ही अपने संगठन और सरकार का कील-काँटा दुरुस्त करने का अभियान शुरू कर दिया था। सी.आर. पाटिल को पार्टी अध्यक्ष बनाने, किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा कर घोषित करने, आर्थिक राहत देने वाली योजनाओं के ज़मीनी प्रसार और निगरानी के लिए ज़िला अधिकारियों को चाक-चौबंद करने, इन योजनाओं की प्रगति का जायज़ा लेने के लिए प्रगति नाम की योजना तैयार करने, और सबसे ऊपर रूपानी सरकार को रातोंरात बदल एकदम नयी सरकार कायम करने के कदम एंटी-इनकम्बेंसी का मुकाबला करने के लक्ष्य की पूर्ति में सहायक बने।   
हिमाचल में विशेषज्ञों को साफ दिखा रहा कि ज़मीन पर भाजपा की हालत खस्ता है, उसके बावजूद भी प्रधानमंत्री की शख्सियत, उनकी लोकप्रियता और संगठन का इस्तेमाल करते हुए भाजपा लगातार टक्कर में बनी रही। प्रधानमंत्री भी जानते कि हिमाचल में चुनाव जीतना मुश्किल है, लेकिन उन्होंने इसके बावजदू भी वहाँ चुनाव प्रचार में कोई हिचक नहीं दिखाई। इसके मुकाबले कांग्रेस परिस्थिति अनुकूल होने के बावजूद उनके आगे कहीं नहीं ठहरती। दरअसल, मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही राहुल गांधी को निर्देश देना चाहिए था कि वे भारत जोड़ो यात्रा स्थगित करके गुजरात और हिमाचल में जमकर चुनाव प्रचार करें। लेकिन राहुल यात्रा करते रहे। न खड़गे ने निर्देश दिया और ना ही राहुल ने अपनी तरफ से सोचा। प्रियंका गांधी के खेमे से दावा कोई भी किया जाए, पर हिमाचल में कांग्रेस अपने स्थानीय नेताओं के कारण जीती है। हिमाचल में कांग्रेस के तकरीबन बीस ऐसे नेता हैं जो कभी नहीं हारते। ऐसी स्थिति में कांग्रेस को लगातार सोचना चाहिए, और जैसा कि अपने भविष्य के बारे में भाजपा कहती भी है कि कहीं एैसा न हो कि भारत जोड़ो यात्रा कांग्रेस के लिए राजनीति छोड़ो यात्रा न रह जाये।
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।)