संघवाद का ़खात्मा कर रही है केन्द्र सरकार

विश्व भर में फैली कोविड-19 की बीमारी ने मनुष्य की तज़र्-ए-ज़िन्दगी काफी हद तक बदल दी है। नयी चुनौतियों के साथ निपटने के लिए नये रास्ते ढूंढे जा रहे हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसे एक  अवसर में बदलने की बात बात करते हैं, परन्तु यह अलग बात है कि उन्होंने इस दौरान जो भी किया है, उससे अधिकतर प्रभाव यही मिलता है कि वह इस अवसर को धीरे-धीरे ‘एक राष्ट्र, एक कानून’ के लिए बरत रहे हैं। संघवाद का गला कदम-दर-कदम दबाया जा रहा है। ‘अनेकता में एकता’ का जगह सिर्फ ‘एकतावाद’ को प्राथमिकता दी जा रही है। देश में केन्द्र के सीधे राज पर सीधी पकड़ का रास्ता साफ किया जा रहा है। यहां तक कि कहीं-कहीं तो अदालतों के फैसले भी इसमें सहायक होते नज़र आते हैं। चाहे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की ओर से बुलाई गई गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों की बैठक में जेईई तथा नीट परीक्षाओं को रुकवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में जाने पर ही अधिक ज़ोर दिया गया है परन्तु महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उधव ठाकरे का कहना है कि हमें फैसला करना चाहिए कि केन्द्र सरकार से डरना है या उसके विरुद्ध लड़ना है। गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को ज़ोरदार ढंग से अपनी आवाज़ उठानी चाहिए क्योंकि केन्द्र सरकार हमारी आवाज़ दबाने के यत्न कर रही है। स्पष्ट है कि क्षेत्रीय पार्टियों को केन्द्र द्वारा संघवाद को निर्जीव किये जाने  का अहसास तीव्र होने लग पड़ा है। परन्तु अफसोस है कि देश में सबसे पहले राज्यों के लिए अधिक अधिकारों की बात करने वाला अकाली दल अब केन्द्र के हर फैसले में उसके साथ खड़ा दिखाई देता है परन्तु राज्यों के अधिकारों पर डाका अकेली भाजपा नहीं मार रही। 
कांग्रेस भी अपने समय ऐसे ही करती रही है। यह अलग बात है कि कांग्रेस और भाजपा के तरीकों में अंतर है। अब भी कांग्रेस संघवाद बचाने हेतु कोई लड़ाई लड़ती नज़र नहीं आ रही। हालत यहां तक पहुंच गई है कि देश का सचिव स्तर का उच्चाधिकारी अप्रत्यक्ष रूप में ‘एक देश एक भाषा’ तक की बात सरकारी बैठक में करता है। आयुश मंत्रालय की आनलाइन बैठक में वह कहता है कि जिसे हिन्दी समझ नहीं आती वह बैठक छोड़ कर चला जाए। देश की एक सांसद जब एक निजी हवाई अड्डे पर एक अधिकारी के कहती है कि मुझे आपकी हिन्दी समझ नहीं आ रही, अंग्रेज़ी या तमिल में बात करो तो अधिकारी पूछता है कि ‘क्या आप भारतीय हो?’ अर्थात जिसे हिन्दी नहीं आती वह अब भारतीय ही नहीं। 
एक दिन का अधिवेशन
नि:संदेह कोरोना के कारण बैठकें करना ठीक नहीं परन्तु ज़रूरत आवश्यकता की मां है । यदि मंत्रिमंडल की बैठकें आनलाइन हो सकती हैं तो विधानसभा सत्र करने के लिए नियमावली में संशोधन किया जाना असंभव तो नहीं। यह भी तो हो सकता था कि विधानसभा का एक दिन का अधिवेशन बुला कर इसमें सर्वसम्मति से विधानसभा के आनलाइन सत्र के लिए रास्ता साफ कर लिया जाता। यदि सोच होती तो ज़रूरत के अनुसार अन्य कानूनी रास्ते भी इसके लिए अपनाए जा सकते थे। नि:संदेह यह सत्र 6 महीने के भीतर विधानसभा का सत्र बुलाने की संवैधानिक आवश्यकता को पूरा करने के लिए बुलाया गया है परन्तु एक दिन का सत्र तो लोकतंत्र के साथ एक मज़ाक ही है। यदि यह सत्र आनलाइन होता तो कोरोना पीड़ित परन्तु शारीरिक तौर पर ठीक 22-23 विधायक भी इसमें शामिल हो सकते थे। इस समय पंजाब के लिए स्थिति बड़ी असाधारण है। पंजाब की आर्थिक हालत पर विचार करने की आवश्यकता है। एस.वाई.एल. का गंभीर मुद्दा है, 3 कृषि अध्यादेशों का बड़ा मामला है, जो कुछ समय के बाद पंजाब की बर्बादी का कारण बन सकते हैं। कोरोना की हालत पर विचार करने की आवश्यकता है। फिर जो कानून मिनटों-सकिंटों में बिना विचार के पारित किये जाने हैं, उनके लाभ-हानि पर कोई विचार भी नहीं हो सकेगा। विचार करने योग्य और भी कई मामले हैं। 
आधे घंटे की देरी ने कई बचाए?
पंजाब विधानसभा में केन्द्र सरकार के तीन अध्यादेशों के खिलाफ पूर्व वित्त मंत्री और अकाली दल डैमोक्रेटिक के अध्यक्ष सुखदेव सिंह ढींडसा के बेटे परमिन्दर ंिसंह ढींडसा की ओर से स्पीकर को दिया गया विशेष प्रस्ताव इस लिए स्वीकार नहीं हुआ कि वह आधा घंटा देर से आए हैं। वैसे इस मामले पर कांग्रेस तथा ‘आप’ के आम प्रस्तावों पर  विधानसभा में विचार होगा। यदि ये प्रस्ताव विधानसभा में पेश हो जाता तो कुछ राजनीतिक पार्टियों ने अपने आप को फंसा महसूस करना था कि वे वोट किस तरफ डालें। परन्तु आधे घंटे की देरी ने उनको अपना स्टैंड स्पष्ट करने से बचा लिया। 
सरकारी अस्पताल, राजनेता, अफसर एवं लोग
कोरोना की हालत पंजाब में दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। हमारे सामने दो सबूत हैं। पहला पंजाब में करवाए गए पहले सीरो सर्वेक्षण की रिपोर्ट है जिसके अनुसार पंजाब के 5 प्रमुख शहरों में 27.8 प्रतिशत पंजाबियों में कोरोना विरोधी एंटीबाडीज़ बन चुके हैं, जिसका साफ अर्थ है कि पंजाब के इन क्षेत्रों में चौथे भाग से अधिक लोग कोरोना के सम्पर्क में आकर ठीक हो चुके हैं। इसका उनको स्वयं भी पता नहीं लगा जब कि दूसरा सबूत है कि पंजाब के 117 विधायकों में से 23 कोरोना से पीड़ित हैं। यह संख्या भी 20 प्रतिशत के आस-पास है। अमृतसर, लुधियाना तथा मोहाली में स्थिति और भी अधिक खराब है। अमृतसर में 40, लुधियाना में 35.6 और मोहाली में 33.2 प्रतिशत लोगों में एंटीबाडीज़ मिले हैं। 
परन्तु हैरानी का बात है कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह और उनके स्वास्थ्य मंत्री लगातार अपनी सरकार को शाबाश दे रहे हैं कि पंजाब सरकार ने कोरोना के साथ लड़ने के लिए सरकारी अस्पतालों को पूरी तरह तैयार कर लिया है। यदि सचमुच ही सरकारी अस्पतालों में उपचार और देखभार के प्रबंध शानदार हैं तो क्यों कोरोना से पीड़ित एक भी मंत्री, एक भी विधायक और अफसर अपना उपचार करवाने हेतु सिविल अस्पताल में दाखिल नहीं होता? वैसे भी सरकारी अस्पतालों में मरीज़ों को जिस तरह का खाना मिलता है, उस बारे समाचार तो प्रतिदिन प्रकाशित होते रहते हैं। -मो : 92168-60000