कोरोना काल में मुनाफाखोरी

हम और आप सभी जानते हैं कि कोरोना महामारी की वजह से जिस बेरोज़गारी को हमारा देश झेल रहा था, वह विकट होती चली गई है। साथ ही साथ महामंदी की चेतावनी बार-बार सुनाई पड़ रही है। महंगाई में वृद्धि को लेकर जनता भारी परेशानी में है और सरकार मंदी दूर करने के सकारात्मक तरीके बताने या अपनाने की जगह व्यवस्था को ‘जस का तस’ बनाये रखने में दिलचस्पी दिखा रही है। अब अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं भी मंदी को लेकर जो आंकड़े दिखा रही है, वे महज़ स्वीकार्य नहीं हो सकते। अलबत्ता दुनिया भर में बहस तलब हो सकते हैं।
महाशक्तिशाली माने जाने वाले अमरीका में कोरोना वायरस पर जिप्सन और जितेश ने चिंतक नॉम चोमस्की से प्रश्न किया - विश्व का सबसे धनवान और शक्तिशाली देश अमरीका भी कोरोना वायरस के संक्रमण के प्रसार को रोकने में असफल क्यों रहा? यह असफलता राजनीतिक नेतृत्व की  है अथवा व्यवस्थागत? सच तो यह है कि कोविड-19 के संकट के बावजूद भी मार्च में डोनाल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता में वृद्धि हुई। क्या आपको लगता है कि अमरीका के चुनावों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा?
नॉम चोमस्की का उत्तर था कि इस महामारी की जड़ों को जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे लौटना होगा। यह महामारी अप्रत्याशित नहीं है। वर्ष 2003 की सार्स महामारी के पश्चात् ही वैज्ञानिकों को अंदेशा हो गया था कि एक और महामारी आ सकती है और सम्भवत: सार्स कोरोना वायरस के ही नये रूप में होगी। कोविड-19 के बारे में पर्याप्त ज्ञान उपलब्ध नहीं है। परन्तु किसी को तो कुछ न कुछ करना ही होगा। दवा-कम्पनियों की इसमें कोई रुचि नहीं है। वे बाज़ार के संकेतों का अनुसरण करती है। मुनाफा कहीं ओर होता है। सरकार इसे अपने हाथ में ले सकती थी परन्तु नव-उदारवाद का सिद्धांत इसका रास्ता रोक लेता है। आई.एम.एफ. की वर्ल्ड इकोनॉमिक आऊटलुक-2020 की रिपोर्ट के अनुसार इस वित्तीय वर्ष में विश्व अर्थ-व्यवस्था तीन फीसदी सिकुड़ जाएगी। जबकि विश्व बैंक ने जून में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट ग्लोबल इकोनॉमिक प्रोस्पैक्ट में कहा कि यह दर 5.2 प्रतिशत होगी। इन दोनों आंकड़ों से अर्थ-व्यवस्था की भयावहता ठीक से समझी नहीं जा सकती। जबकि कई अलग रिपोर्टों से पता चलता है कि अमरीकी अर्थ-व्यवस्था 33 प्रतिशत और ब्रिटिश अर्थ-व्यवस्था 20 प्रतिशत सिकुड़ चुकी है। आप अमरीका नैशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनोमिक रिसर्च के अनुसार आधिकारिक रूप से अमरीका में मंदी आ चुकी है। यानी लगातार दो तिमाही से अर्थ-व्यवस्था की गिरावट जारी है परन्तु वहां की सरकारों ने आंखें बंद कर रखी हैं। अमरीका की मौजूदा बेरोज़गारी दर 14 प्रतिशत बताई जा रही है। 2007-2008 की मंदी से कम नहीं है। 
संयुक्त राष्ट्र संघ की जून में जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई है उसके अनुसार पूंजीपतियों को इस महामारी में भी मुनाफा कमाने का अवसर नहीं गंवाना चाहिए और इसके लिए दुनिया भर के पूंजीपतियों के साथ मिलकर इस मुनाफे की लूट को आगे कैसे बढ़ाया जाए, उसकी एक रूप-रेखा  सबके सामने रखी। अगर आर्थिक संकट के लिए इस हिसाब से कोरोना ही ज़िम्मेदार होता तो यह कैसे हो सकता है कि लॉकडाऊन के दौरान दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक निगमों का मुनाफा लगातार बढ़ता रहा और आकाश छूने लगा।  मुनाफा देखा जाए तो हैरान कर देने वाले तथ्य सामने आएंगे। पिछले वर्ष की तुलना में इनका मुनाफा 50 से 100 प्रतिशत या इससे ज्यादा बढ़ा है। जहां साधारण वर्ग के घरों में बेरोज़गारी में इज़ाफा हुआ है। इन बड़ी कम्पनियों की मुनाफाखोरी हैरान करने वाली है। भारत में साधारण वर्ग के हालात पिछले 6 महीनों में काफी गिरे हैं। आटा के साधन सीमित होते रहे हैं और महंगाई आकाश छूने को आ रही है। जब पूंजीपतियों का एक ही उद्देश्य है कि हर सूरत में धन बटोरना है तो कम मुनाफे वाली जगह धन लगाने से बचना है तो जन-कल्याण के काम कैसे हो पाएंगे? आज वे सरकारें जो सारे दायित्व पूर्ण काम और उत्पादन पूंजीपतियों पर छोड़ रही हैं, अपनी जनता के साथ प्रतिबद्धता के प्रति क्या जवाबदेह नहीं होनी चाहिए?