उत्पादन के पक्ष से सर्वोत्तम पूसा-44 किस्म पर लगाई पाबंदी हटाने की ज़रूरत

उत्पादकता के पक्ष से धान की पूसा-44 सर्वोत्तम किस्म है। दूसरी कोई अन्य किस्म इसका मुकाबला नहीं करती। संगरूर ज़िले के भवानीगढ़ के नज़दीक गहिलां गांव के गुरमेल सिंह ने अपने 17 एकड़ रकबे से 42 क्ंिवटल प्रति एकड़ की औसत लेकर इस किस्म की फसल की कटाई की है। जगदीप सिंह फरीदपुर ने भी 41 क्ंिवटल प्रति एकड़ की प्राप्ति की है। उसने 40 एकड़ रकबे पर इस किस्म की बिजाई की थी।
पंजाब सरकार के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पूसा-44 किस्म का पंजाब में सब किसानों से अधिक उत्पादन लेने पर कृषि करमण पुरस्कार से सम्मानित तथा पी.ए.यू. से सम्मान हासिल करने वाला राज्य पुरस्कारी राजमोहन सिंह कालेका कहता है कि यह किस्म न तो पकने को अन्य किस्में जैसे पी.आर.-122, पी.आ.-113, पी.आर.-114 तथा पी.आर.-121 आदि से अधिक समय लेती है और न ही यह पानी की खप्त अधिक करती है। यह पकने को 145-146 दिन लेती है जबकि पी.आर.-122 किस्म 147 दिन, पी.आर.-114 किस्म 145 दिन, पी.आर.113 किस्म 142 दिन तथा पी.आर.-121 किस्म 140 दिन का समय लेती हैं। थोड़े समय में पकने वाली पी.आर.-126 किस्म जिन किसानों ने लगाई थी, वह अब इसके बाद सब्ज़ियां, आलू लगाएंगे और फिर मक्की फसले लेंगे। इस फसली चक्कर में पानी की खपत पूसा 44 किस्म से अधिक हो जाती है। सिर्फ मक्की की फसल ही 20 पानी लेती है। जो कुछेक किसान कम समय में पकने वाली पी.आर.-126 किस्म को अगेती लगा कर इसके बाद आलू तथा गेहूं की फसल भी लेते हैं, उनकी भी पानी की ज़रूरत पूसा-44 किस्म से कम नहीं होती। पूसा-44 किस्म का चावल सुपरफाइन श्रेणी में आता है। राइस मिल के मालिक तथा पटियाला आढ़ती एसोसिएशन के सचिव हरबंस लाल के अनुसार पी.आर.-126 किस्म के चावल की वसूली 24 प्रतिशत पूसा-44 से कम है और 8-10 प्रतिशत दाने का कोना काला हो जाता है जो कि गुणवत्ता को प्रभावित करता है। राजमोहन सिंह कालेका कहता है कि वह स्वयं तथा अन्य कई किसान इस किस्म को 25-30 वर्षों से लगाते आ रहे हैं  और उत्पादन पक्ष से भी यह किस्म सभी दूसरी किस्मों के मुकाबले शीर्ष पर रही है। उसने कभी अपने खेत में पूसा-44 किस्म की फसल पर ज़हरों का प्रयोग नहीं किया। खेत में मित्र कीड़े पैदा हो जाते हैं और उनकी खुराक खेत में ही पैदा हुए दुश्मन कीड़े हैं। कालेका कहता है कि बिना ज़हरों के  की गई फसल की बिजाई का उत्पादन कीटनाशक दवाओं की मदद से उगाई गई फसलों से अधिक होता है। ऐसी फसल का दाना न ही काला और न ही दागी होता है। कालेका के बिशनपुर छन्ना (पटियाला) के खेत में से कृषि तथा किसान भलाई विभाग ने क्राप कटिंग एक्सपैरीमैंट करके पूसा-44 की फसल से 32 क्ंिवटल प्रति एकड़ की प्राप्ति की है। कालेका ने हैरानी व्यक्त की है कि गत 25 वर्षों से सफलता प्राप्त करने वाली उच्च उत्पादन देने वाली पूसा-44 किस्म को पी.ए.यू. ने अभी तक भी किसानों के खेतों में बिजाई की सिफारिश नहीं की। हालांकि गत वर्षों से इसकी एक विशाल रकबे में बिजाई की जाती रही है। किसान तो अप्रमाणित हाईब्रिड किस्में, पीली पूसा तथा डोगर पूसा भी लगाए जा रहे हैं जो सर्वभारतीय फसलों  की किस्मों तथा स्तर को प्रमाणित  करने वाली कमेटी से भी नोटिफाई नहीं जबकि पूसा-44 किस्म बाकायदा नोटिवाइड है। कृषि विभाग या पी.ए.यू. द्वारा ऐसी गैर-प्रमाणित किस्मों का लगाना बंद नहीं किया जा रहा। 
लाभ के पक्ष से पूसा-44 किस्म की उत्पादकता अधिक होने के कारण 15-20 हज़ार रुपये प्रति एकड़ किसानों को अधिक लाभ रहता है। पूसा-44 किस्म की बिजाई करने वाले आग भी अधिक नहीं लगाते। कहा यह जाता है कि पूसा-44 किस्म काटने के बाद गेहूं की बिजाई में कम समय रह जाने के कारण किसान इसे आग लगाते हैं। कालेका के अनुसार यह सही नहीं। अमृतसर, तरनतारन, फिरोज़पुर आदि ऐसे जिले हैं जिनमें इस वर्ष कम समय में पकने वाली पी.आर.-126 किस्म लगाई थी, उनमें गत वर्ष के मुकाबले चार गुणा आग लगाई है। 
पंजाब सरकार ने पंजाब राज्य बीज प्रमाणन अथारिटी को आदेश जारी किये हैं कि पूसा-44 किस्म का बीज सर्टीफाई न किया जाए ताकि किसान अपने खेतों में इसकी अगले वर्ष बिजाई न कर सकें। इससे क्या किसान गैर-प्रमाणित बीज इस्तेमाल करने को मजबूर नहीं होंगे? जिससे बीज बदल दर कम होगी और किसानों का लाभ भी कम होगा। पंजाब सरकार को इस पर पुन: विचार करना चाहिए कि जब तक पूसा-44 किस्म का उचित विकल्प किसानों को उपलब्ध न हो, तब तक इसके प्रयोग पर पाबंदी नहीं लगानी चाहिए। आई.सी.ए.आर.-भारतीय कृषि खोज संस्थान के डायरैक्टर डा. अशोक कुमार सिंह कहते हैं कि जल्द ही पूसा-44 किस्म का विकल्प किसानों को उपलब्ध किया जाएगा। जिसकी उत्पादकता 85 क्ंिवटल प्रति हैक्टेयर तक होगी। उन्होंने कहा कि इस किस्म का मैटीरियल टैस्ंिटग में है। 

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