किसान आन्दोलन के लिए अहम होंगे आगामी 8 दिन 

वतन की फिक्र कर नादां, मुसीबत आने वाली है,
तेरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में। 
न समझोगे तो मिट जाओगे ए हिन्दोस्तां वालो, 
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में।।
नि:संदेह अभी देश के हालात इतने खराब भी नहीं हुए कि भारत देश के मिट जाने या दास्तां तक गुम जाने का कोई खतरा बन गया हो। परन्तु जिस तरह के हालात बनते जा रहे हैं, वे यह प्रभाव अवश्य दे रहे हैं कि देश का भविष्य धुंधला होता नज़र आ रहा है। खैर, पूरे देश के मामलों की बात करनी यहां संभव नहीं परन्तु इस समय देश को दरपेश सैकड़ों मामलों में से एक ‘किसान आन्दोलन’, इसके भाग्य तथा इसे समाप्त करने के लिए प्रयोग किए जा रहे हथकंड़ों की बात करना समय की एक बड़ी आवश्यकता लगती है। वैसे यह मामला सिर्फ किसानी मांगों तक ही सीमित नहीं। इस के अर्थ बहुत विशाल हैं और इस लड़ाई में राज्यों के अधिकार, राज्य के लोगों के अधिकार, केन्द्र की ताकत और देश में तानाशाही  प्रवृत्तियां तथा संभावनाएं आदि जैसी बातें भी अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं।  यह बड़ी बात है कि लगभग 2 माह से चल रहा किसान आन्दोलन 31-32 संगठन होने के बावजूद शांतिपूर्वक चल  रहा है परन्तु यह आन्दोलन अब जिस मोड़ पर पहुंच गया है, उस मोड़ पर आगे भी यह शांतिपूर्वक चलेगा या नहीं, यह चिन्ता की बात है। ये पंक्तियां लिखने तक किसान शंभू तथा चंडीगढ़ सीमा पर हरियाणा पुलिस द्वारा लगाए गए सभी अवरोधकों को तोड़ कर करनाल पहुंच गए थे। खनौरी तथा डबवाली सीमा से भी किसानों ने अवरोधक हटा दिये हैं। किसान करनाल तक पहुंच गये हैं। आगे की स्थिति क्या रुख अपनाती है, कहना असम्भव है। 
इस समय देश पर शासन कर रही भाजपा जो राष्ट्रवाद की अलम्बरदार होने का दावा करती है और एक अखण्ड भारत के संकल्प की बात भी करती है, की नीतियां एवं कार्य, इस राष्ट्रवाद एवं अखण्डता के संकल्प के माध्यम से देश को संघवाद के खात्मे की ओर धकेलते नज़र आ रहे हैं। दो माह से शांतिपूर्वक आन्दोलन कर रहे किसानों को हरियाणा में से निकलने से रोकना किसी भी तरह उचित नहीं माना जा सकता। अहिंसक विरोध करने का अधिकार ‘छीन’ लेना एक लोकतंत्र को शोभा नहीं देता। कांग्रेसी सरकारों के समय भी पंजाबियों को विरोध करने के लिए दिल्ली जाने से हरियाणा सरकार रोकती रही और अब भाजपा के कार्यकाल में भी वही कुछ हो रहा है तो पंजाबियों संबंधी नीतियों में कांग्रेस और भाजपा में अंतर क्या हुआ? हालांकि यह सच है कि अमन-कानून बनाए रखना सरकार की ज़िम्मेदारी है परन्तु इस आन्दोलन से निपटने के लिए जिस तरह की रणनीति यह सरकार अपना रही है, वह शांति के स्थान पर आन्दोलनकारियों को उकसाने वाली अधिक है। 
निर्णायक होंगे ये 8 दिन
केन्द्र ने 32 किसान संगठनों को 3 दिसम्बर को फिर बातचीत का निमंत्रण दिया है परन्तु यह निमंत्रण बहुत देर से किया गया है जबकि किसान संगठन 26-27 के दिल्ली चलो कार्यक्रम की तैयारियां पूर्ण कर चुके थे। अब किसान संगठन सिर्फ पंजाब के नहीं, देश भर के किसान नेताओं के प्रतिनिधियों को भी बैठक में बुलाने की बात कर रहे हैं। अभी किसान संगठनों ने केन्द्र सरकार के निमंत्रण को स्वीकार या अस्वीकार करने के बारे कोई फैसला नहीं लिया है। 
हम समझते हैं कि 26 नवम्बर से 2 दिसम्बर तक के 8 दिन इस संघर्ष के लिए निर्णायक भूमिका निभाएंगे। यदि देश भर के किसान इस आन्दोलन के पक्ष में चल पड़े और पंजाब के किसान अहिंसक रूप में डटे रहे तो संभावना बन सकती है कि 3 दिसम्बर की बैठक तक केन्द्र किसानों की एकता, सब्र और कुर्बानी से प्रभावित होकर किसी समझौते की ओर चल पड़े। परन्तु यदि इन 8 दिनों में यह आन्दोलन हिंसक हो गया या बिखर गया तो फिर किसी उपलब्धि की उम्मीद बहुत कम रह जाएगी। परन्तु किसानों को सुचेत रहना चाहिए कि कई तरह की ताकतें इन 8 दिनों में इस आन्दोलन के अहिंसक रूप को बिगाड़ने की कोशिश कर सकती हैं। 
घर से जो शख्स भी निकले संभल कर निकले।
जाने किस मोड़ पे किस हाथ से खंजर निकले।
किसानों का लक्ष्य-कानूनों की वापसी
हालांकि आम प्रभाव यही है कि किसान आन्दोलन समर्थन मूल्य की कानूनी प्राप्ति के बाद समाप्त हो जाएगा। परन्तु जिस तरह की बातचीत इस आन्दोलन में  शामिल कुछ संगठनों के नेताओं के साथ हमारी हुई है, उससे यही प्रभाव बनता है कि समर्थन मूल्य की कानूनी प्राप्ति तो इस संघर्ष का सिर्फ एक चरण है। इन संगठनों की वास्तविक लड़ाई तो कृषि संबंधी बने तीन नये कानूनों को वापस करवाने या इनमें बड़े किसान पक्षीय संशोधन करवाने तक जारी रहेगी। 
शिरोमणि कमेटी का अध्यक्ष?
जब यह कालम पाठक पढ़ रहे होंगे, उस समय शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के नये अध्यक्ष का चुनाव होने वाला होगा। हमारी जानकारी के अनुसार अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने अभी तक अगले अध्यक्ष के बारे कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया। अंतिम निर्णय आज रात को होने की संभावना है। हालांकि इस समय लगभग आधा दर्जन व्यक्ति अध्यक्ष पद की दौड़ में उभर कर सामने आए हैं परन्तु इस समय की अखबारी खबरों में अध्यक्षता के लिए सब से कम चर्चित एडवोकेट हरजिन्दर सिंह धामी का नाम भी काफी चर्चा में है। इसके कई कारण हैं जिनमें एक तो विगत कुछ वर्षों से धामी स्वयं सुखबीर सिंह बादल के विश्वसनीय बने हैं। दूसरा, वह किसी बड़ी गुटबंदी का हिस्सा नहीं हैं। एक तरफ वह संत समाज को स्वीकार हैं और दूसरी तरफ अकाली दल के कुछ बड़े गुट भी उनको स्वीकार करते दिखाई दे रहे हैं। फिर उनको बादल के प्रति वफादर माने जाते निहंग सिंह संगठन का समर्थन भी प्राप्त है। जबकि बीबी जागीर कौर और जत्थेदार तोता सिंह ऐसे नेता हैं, जो आगामी विधानसभा चुनावों में अकाली दल के लिए बड़ा कार्य कर सकते हैं परन्तु बीबी जागीर कौर पर चला केस उनके रास्ते की रुकावट है और जत्थेदार तोता सिंह ने चाहे टकसाली अकाली दल बनते समय और फिर सुखदेव सिंह ढींडसा के छोड़ जाने के समय भी अकाली दल बादल से वफादारी निभाई है परन्तु उनका ऊंचा कद उनके रास्ते की रुकावट बताया जा रहा है। संत बलवीर सिंह घुन्नस का नाम इस बार फिर दलित वोट बैंक के कारण चर्चा में है। प्रो. किरपाल सिंह बडूंगर की वफादारी और योग्यता तो उनके पक्ष में जाती है ही परन्तु उनकी सेहत का पक्ष अपने स्थान पर है जबकि मौजूदा अध्यक्ष भाई गोबिंद सिंह लौंगोवाल भी एक कार्यकाल और लेने की दौड़ में शामिल हैं। इन नामों के अतिरिक्त भी 2-3 और नामों पर विचार किये जाने की चर्चा सुनाई दे रही है। 
कैप्टन-सिद्धू मुलाकात, साथी निराश 
कैप्टन अमरेन्द्र सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू की मुलाकात की चर्चा शिखर पर है। परन्तु आश्चर्यजनक चर्चा यह है कि इस बैठक से पहले नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने समर्थक विधायकों में से किसी को भी विश्वास में नहीं लिया जबकि पंजाब के कैबिनेट मंत्री राणा गुरमीत सिंह सोढी इस मुलाकात के समय उपस्थित थे। पता चला है कि सिद्धू को इस बैठक के लिए मनाने में कैप्टन के एक विश्वसनीय उच्चाधिकारी की विशेष भूमिका रही है। इस बैठक के बाद बेशक सिद्धू के मंत्रिमंडल में लौट आने की संभावना बन गई है परन्तु अब उनके पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष बनने के आसार पूरी तरह खत्म माने जा रहे हैं, जिससे उनके साथियों में निराशा बताई जा रही है। 
-मो. 92168-60000