किताबों पर मंडराता डाउनलोड का साया

1990 के दशक में मनोरंजन के क्षेत्र का सबसे बड़ा कारोबार था संगीत। हर साल अरबों रुपये के कैसेट बिका करते थे चाहे वो ऑडियो हों या वीडियो। संगीत कंपनियों का बड़ा नाम था। सन् 2000 आते-आते एमपी3 ने अपना कमाल दिखाना शुरु कर दिया। जहां पहले टेपरिकॉर्डर में बजने वाले कैसेट में दोनों तरफ  कुल मिलाकर 5-6 गाने होते थे। कभी गानों की संख्या 8 से 10 तक हो जाती थी, वहीं सीडी में ये शुरू में 50-60 हो गए तो लगने लगा जैसे कितने सारे ऑडियो कैसेट एक छोटी-सी सीडी में समा गए हैं। बाद में सीडी और उन्नत हुई। उसमें 70-75 गाने आने लगे फिर डीवीडी आयी और उसमें 250 से 300 गाने बहुत आराम से होते थे। लेकिन रफ्तार का यह खेल तो फिर भी जूझने का मौका दे रहा था। मगर जब ऑनलाइन म्यूजिक मुफ्त हो गया तो तमाम संगीत कम्पनियां पस्त हो गईं। उन्होंने हथियार डाल दिया। हालांकि अभी तक किताबों की दुनिया में इतना श्याम-श्वेत मोर्चा नहीं दिख रहा। आज भी पूरी दुनिया में किताबें छिप रही हैं, बिक रही हैं, लिखी जा रही हैं। मगर यह कहना सच से नजरे छिपाना होगा अगर हम कहते हैं कि कोई फर्क नहीं पड़ा। 2010-11 में 4 अरब डॉलर मूल्य की किताबें इंटरनेट के जरिये डाउनलोड की गईं या पढ़ी गईं। यह नहीं कहा जा सकता कि यह पूरी की पूरी रकम किताबों के खातों से निकाली गई। लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि इसमें एक बड़ा हिस्सा किताबों के खाते से था। नई दिल्ली में चल रहा विश्व पुस्तक मेला भी इस विस्तार का गवाह है कि किताबें कैसे धीरे-धीरे डिजीटल होती जा रही हैं और कभी न कभी तो वह स्थिति आएगी ही किताबों की दुनिया को भी यह डिजीटलाइजेशन पस्त कर दे। हो सकता है संगीत कारोबार की तरह किताबों का कारोबार पूरी तरह से कभी खत्म न हो। मगर ऐसी आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं कि किताबों की दुनिया में छाया मौजूदा डाउनलोड का साया एक न एक दिन इसके अस्तित्व पर भी भारी पड़ सकता है। किताबें और संगीत की दुनिया की नियति इसलिए भी एक हो सकती है क्याेंकि संगीत की दुनिया में भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ। आज भी अरबों रुपये का संगीत व्यवस्थित ढंग से बिकता है। लेकिन अब संगीत की इस खास दुनिया में छोटे खिलाड़ियों के लिए कोई जगह नहीं बची।  अब सिर्फ  ऑरिजिनल और ऐसे खिलाड़ियों के लिए जगह है जो दूसरों से भिन्न है और अपनी तरह के अवेले हैं। हो सकता है कल को किताबों की दुनिया भी इसी तरह मौलिक, विशिष्ट और खास हो जाए। सवाल है हमें इसकी चिंता क्यों करनी चाहिए? इसकी दो वजहें हैं। माना कि प्रत्यक्ष रूप से डाउनलोड की दुनिया किताब खरीदने के मुकाबले सस्ती है, उसका ढूंढ़ा जाना आसान है और भूगोल की बाधाएं भी उसके साथ नहीं है यानी किताब मंगाने का झंझट खत्म हो जाता है। बस एक क्लिक किया और किताबें हाजिर हो जाती हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह महंगा है। किताबों की दुनिया सबके लिए है। वह ज्यादा स्थाई है। डिजीटल दुनिया में किताबों तक पहुंच बनाने के लिए सबसे पहले एक कंप्यूटर सेटअप हो, फि र एक तेज रफ्तार का इंटरनेट कनेक्श हो और इसके बाद जटिल सॉफ्टवेयरों की दुनिया से उलझने का माद्दा हो। कुल मिलाकर देखें तो किताबें इस पूरी कवायद मुकाबले सस्ती पड़ती हैं। फि र किताबों के साथ स्थायीत्व की सहूलियत है। उसे कभी भी और कहीं भी पढ़ा जा सकता है। पर डाउनलोड की दुनिया को पीठ में लादकर चलने के लिए भी एक बड़े निवेश की दरकार रहती है। लेकिन ऐसा नहीं है कि डाउनलोड की दुनिया के नुकसान ही हों। डाउनलोड की दुनिया के अपने  फायदे भी हैं। कहीं भी देखने, पढ़ने को मिल सकती है। इससे समय और दूरी दोंनो कम हुए हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि ट्रांसपोर्ट का खर्च भी खत्म हुआ है। हालांकि यह तमाम खर्च अगर देखें तो उस खर्च में शामिल हैं जो डिजीटल दुनिया को अपनी दुनिया बनाने का खर्च आता है। लेकिन ये कारोबारी झगड़ा या कारोबारी उठा पटक बदलाव के लिए कोई बड़ी चिंता की बात नहीं है। बड़ी चिंता है  चोरी की। आज डाउनलोड जरिये जहां पाठकों को घर बैठै दुनिया के किसी भी कोने की किताब पढ़ने को मिल रही है, प्रकाशक को दुनियाभर का बाजार मिल रहा है, वहीं एक चिंता पैदा हो गई है। भारत जैसे विकासशील देश में जहां अभी भी तार्किक बौद्धिक बाजार विकसित नहीं हुआ और प्रकाशकों की कार्यसंस्कृति लेखकों को गया गुजरा समझने तक ही रुकी हुई है, वहां आज भी लेखक की इज्जत नहीं है। प्रकाशक इस डाउनलोड की दुनिया का शिकार भी हैं और इसे वे शिकार का जरिया भी बना रहे हैं। बड़े पैमाने पर देश में चोरी छिपे घालमेल का एक नया कारोबार शुरु हो गया है। तमाम अकादमिक किताबें खासकर इंजीनियरिंग, मेडिकल जैसे तकनीकी विषयों वाली किताबें लेखक से लिखवाने या छपी हुई किताब का स:शुल्क अधिकार लेने की बजाय प्रकाशक उन किताबों की उलट-पलट के  जरिये नई किताब छाप रहे हैं। आज अकादमिक क्षेत्र में सैकड़ों किताबें ऐसी मौजूद हैं जो या तो लेखकों को बिना बताए या बिना उन्हें फायदा दिये बिक रही हैं या फि र चुराकर निर्मित की गई हैं। डाउनलोड की दुनिया का एक बड़ा नुकसान यह भी है यानी डाउनलोड की दुनिया एक ऐसी दोधारी तलवार है जिससे सभी फायदे में हैं और सभी नुकसान में हैं। प्रकाशक, लेखक, बाजार सब इस दुनिया से प्रभावित हैं।ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या किताबों पर डाउनलोड की गहराती छाया किसी खतरे का संकेत है? खतरा तो है और रहेगा। लेकिन यह भी है कि इस खतरे से बचा नहीं जा सकता। हां, इसे ईमानदारी से अपनी कार्ययोजना का हिस्सा बनाएं तो हर कोई फायदे में रहेगा। डाउनलोड ने अर्थव्यवस्था को जहां छोटा किया है, वहीं इसको विस्तारित भी किया है क्योंकि डाउनलोड ने बाजार को नया आयाम दिया है। डाउनलोड के चलते दुनिया के  उन कोनों तक भी बाजार की रोशनी और कदम पहुंच गए हैं, जहां पहले कभी सोचा भी नहीं जा सकता है। अगर डाउनलोड का सकारात्मक तरीके  से फायदा उठाया जाए तो इस फायदे नुकसान से कहीं ज्यादा है। लेकिन फायदे का एक नकारात्मक समाजशास्त्र यह होता है कि यह जिसके कब्जे में होता है, वह इसे किसी और के कब्जे में नहीं जाने देता। यही सबसे बड़ा खतरा है। किताबों के लिए भी, संगीत के लिए भी, सिनेमा के लिए भी।