न्यायपालिका ही क्यों एकमात्र आश्रय बनी है देश में

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड के साथ ही अन्य कई प्रांत कृषि बिलों का विरोध करते हुए 100 दिन से ज्यादा समय से सड़कों पर हैं। जो किसान पहले पंजाब में धरने देकर बैठे थे, टोल प्लाजा बंद किए, रिलायंस के पेट्रोल पम्प और मॉल भी बंद किए, वही आज से 48 दिन पहले प्रदर्शन और धरने के लिए दिल्ली की तरफ  बढ़े, जिसकी कीमत उन्हें शंभू से अम्बाला जाते हुए खूब चुकानी पड़ी। लाठियां खाईं, आंसू गैस के गोले चले, ठंडे पानी की बौछारें भी हुईं, पर किसान आगे बढ़ गए और अब बैठे हैं सिंधु, टिकरी, गाजीपुर आदि सीमाओं पर, क्योंकि उन्हें दिल्ली रामलीला ग्राउंड तक पहुंचने की आज्ञा भारत सरकार की ओर से नहीं दी गई। चारों ओर पुलिस दीवार बनकर खड़ी है और किसान तो जैसे पूरा घर बनाकर ही हज़ारों की संख्या में सड़कों पर बैठ गए। सर्दी, वर्षा, ओले, ठंडी हवाएं सबका कहर वहीं सह लिया। दुखद है कि साठ से ज्यादा प्रदर्शनकारियों की वहां मृत्यु हो गई। संत राम सिंह समेत कुछ किसानों ने आत्महत्या भी कर ली। यह क्रम अभी जारी है। लगभग दो सप्ताह पहले जब किसान आंदोलन के संबंध में विभिन्न याचिकाकर्ताओं की बात सुप्रीम कोर्ट ने सुनी तो एक सुझाव दिया कि भारत सरकार कुछ समय के लिए कृषि बिलों को रोक ले। एक सलाहकार समिति बनाकर जिसमें किसानों के विशेषज्ञ प्रतिनिधि हों, उनकी सलाह के बाद ही ये कानून लागू किए जाएं। पूरे देश ने थोड़ी राहत महसूस की थी और यह आशा रखी गई कि अब ये कानून कुछ समय के लिए स्थगित हो जाएंगे। ऐसा न हो सका और अंतत: भारत के सुप्रीम कोर्ट ने पहले तो भारत सरकार को अच्छी खासी फटकार लगाई और फिर यह कह दिया कि अगर सरकार इन कानूनों पर रोक नहीं लगा सकती तो सुप्रीम कोर्ट लगा देगा और लगा भी दी गई। 
भविष्य के गर्भ में है कि अब किसान व सरकार इस निर्णय को स्वीकार करते हुए कोई ऐसा निर्णय ले लेंगे जो देश और किसानों के हित में हो। किसान आंदोलन की प्रशंसा भी अदालत द्वारा की गई और उनके अनुशासन, संयम की सराहना करते हुए यह भी चिंता प्रकट की कि हम नहीं चाहते कि उनके हाथ खून से रंगे जाएं या कोई हिंसा, उपद्रव हो। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जिस प्रकार किसानों की पीड़ा को महसूस करके निर्णय दिया गया, उससे तो अब यह विश्वास बन गया है कि देशवासियों को किसी भी पीड़ा से राहत पाने के लिए केवल सर्वोच्च या उच्च न्यायालय का ही आश्रय लेना पड़ेगा। यह असुखद समाचार है कि किसान संगठनों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई चार सदस्यीय कमेटी पर अविश्वास किया जा रहा है। निश्चित ही उनके पास कारण होगा। जब सभी जानते हैं कि जो सदस्य इस कमेटी के लिए नामांकित किए गए वे कोई ऐसा व्यक्तित्व नहीं हैं जिन्हें किसान या बुद्धिजीवी न जानते हों। जो लोग पहले ही कृषि बिलों के समर्थन में समाचार पत्रों द्वारा अपने विचार प्रकट करते रहे, उन पर विश्वास न होना स्वाभाविक ही है। फिर भी न्यायालय को इसका भी रास्ता निकालकर इस जन आंदोलन पर विराम लगाना होगा। 
भारत के आमजन की सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से अब यह प्रार्थना है कि देश की जनता को सारा शासन-प्रशासन मिलकर भी आवारा कुत्तों के कहर से नहीं बचा सका। बहुत अच्छा हो न्यायालय पंजाब समेत पूरे देश से यह जानकारी ले कि कितने नागरिकों को कुत्तों ने काटा, कितने व्यक्ति मारे गए और सरकारों ने कुत्तों द्वारा घायल कितने लोगों का इलाज किया, तभी सच्चाई सामने आएगी। आज की हालत तो यह है कि हर चौक चौराहे पर दर्जनों आवारा कुत्ते भौंकते, लोगों के पीछे दौड़ते और काटते हैं। बड़े-बड़े महानगरों की सड़कों पर भी रात्रि के समय पैदल चलते हुए इन कुत्तों से बचना सबसे बड़ी चुनौती है। न्यायालय ही हमें बचा सकता है और सरकारों को आवश्यक कार्यवाही के लिए कठोर निर्देश दे तभी देश के करोड़ों नागरिकों को राहत मिलेगी। इसी प्रकार पंजाब सहित पूरे देश में पुलिस के अमानवीय व्यवहार से पीड़ित लोगों की संख्या भी लाखों में है। पुलिस हिरासत में मौतें सारे देश में ही हो रही हैं और एक प्रतिशत अपराधियों को भी इसके लिए दंड नहीं मिलता। अधिकतर सरकारें लीपापोती करके घटना को छुपाने का प्रयास करती हैं। निश्चित ही तमिलनाडु के उच्च न्यायालय और भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वह हृदयवेदक समाचार सुना  होगा जहां तूतीकोरिन के बाज़ार से पिता पुत्र को उठाकर पुलिस ले गई और लाश बनाकर परिवार को दे दिया। उनका दोष केवल पुलिस के अनुसार लाकडाउन के नियमों का उल्लंघन करना था। पुलिस थानों में गैरकानूनी ढंग से लोगों को रखना, पीटना, रिश्वत लेना और रिमांड के नाम पर अमानवीय व्यवहार थर्ड डिग्री  दिया जाता है। रिमांड एक अच्छा खासा नोट कमाने का धंधा भी है। जिस आरोप या अपराध के लिए रिमांड की कोई आवश्यकता नहीं, वह भी अदालत से लेना और फिर मनमानी करना यह पूरे देश की पुलिस का निंदनीय कृत्य है। बाल अपराधियों को गैरकानूनी ढंग से थानों में रखना, पीटना और बिजली के करंट तक लगाने की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं यदा-कदा मिलती रहती हैं। देश और प्रदेशों की सरकारें आवारा जानवरों विशेषकर कुत्तों से नहीं बचा पातीं और पुलिस थानों में न्याय नहीं मिलता। सच्चाई यह भी है कि अधिकतर पुलिस थाने और अधिकारी राजनेताओं के हाथों में हैं। जो राजनेता जिस पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी का राजनीतिक आका है उसी के चलाए थाने और अधिकतर उच्चाधिकारी चलते हैं। जनता बेचारी आज़ादी के हीरक जयंती समारोहों की दहलीज पर पहुंचकर भी धरने प्रदर्शन, भूख हड़ताल और कभी-कभी आत्मदाह इसलिए करने को विवश हो जाती है।