किसान आन्दोलन स्थल पर मूलभूत सुविधाओं का अभाव चिंताजनक

दिल्ली की सीमाओं पर तीन कृषि कानूनों को रद्द करवाने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलों की खरीद के कानूनी अधिकार दिलाने के लिए किसानों के आन्दोलन को 50 से अधिक दिन हो गए हैं। इतनी लम्बी अवधि तक लाखों किसानों की भागीदारी के बावजूद शांतिपूर्ण ढंग से आन्दोलन का संचालन इसे ऐतिहासिक बनाता है। खुला सच है कि ऐसे समय में अध्यादेश लाकर उसे कानूनी रूप दे दिया गया जबकि देश ही नहीं, दुनिया कोरोना की महामारी से त्रस्त थी। विरोध के बावजूद कानून बनाते समय किसानों के साथ संवाद नहीं किया जाना सवाल खड़े करने के लिए काफी है। आन्दोलन स्थल पर किसानों का संयम और जोश कमाल का है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस स्थान पर किसान आन्दोलन चल रहा है, वहां पर जल निकासी, स्वच्छता एवं अन्य सुविधाओं का अभाव है। 
दिल्ली और हरियाणा चैप्टर के जन स्वास्थ्य अभियान द्वारा 19 से 22 दिसम्बर तक किसान आन्दोलन के पांच स्थानों—सिंघु, टीकरी, शाहजहांपुर, गाज़ीपुर व पलवल बॉर्डर पर सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण में आन्दोलन स्थल पर सुविधाओं के अभाव और अस्वच्छता के फैलाव के चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। सर्वेक्षण में पाया गया है कि आन्दोलन में हिस्सा ले रहे लोगों की जरूरत के अनुसार मोबाइल शौचालयों की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। जो शौचालय हैं, उनका रखरखाव भी अच्छी तरह नहीं हो पा रहा है जिससे बड़ी संख्या में आन्दोलनकारी किसानों को खुले में शौच जाने को मजबूर होना पड़ रहा है। सर्वेक्षण में खुलासा हुआ है कि हर पांच में से तीन व्यक्ति खुले में शौच जा रहे हैं। यह कुल आन्दोलनकारियों का 57.5 प्रतिशत बनता है। सर्वेक्षण में जवाब देने वाले 10.5 प्रतिशत लोगों ने ही बताया कि आन्दोलन स्थल पर इस्तेमाल किए जा रहे शौचालय स्वच्छ हैं। 47 प्रतिशत लोगों ने बताया कि शौचालय आन्दोलन स्थल से इतना दूर हैं कि उन तक पहुंचने में मुश्किल होती है। शौचालयों के पास रोशनी की समुचित व्यवस्था नहीं है। अंधेरे में उन्हें इस्तेमाल करना मुश्किल होता है। महिलाओं को और ज्यादा मुश्किलें उठानी पड़ रही हैं, क्योंकि अंधेरे में गंदे शौचालयों का इस्तेमाल करना किसी आफत से कम नहीं होता है। 
सर्वेक्षणकर्ताओं को कई महिलाओं ने रिपोर्ट किया कि वे आन्दोलन के दौरान कम खाना खा रही हैं और कम पानी पीती हैं ताकि वे शौचालय के इस्तेमाल से बच सकें। अपर्याप्त मोबाइल टॉयलेट ने आन्दोलनकारियों विशेष रूप से महिलाओं के स्वास्थ्य, पोषण व स्वच्छता के सामने अनेक प्रकार की चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। आन्दोलनकारियों के शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं भी सामने आ रही हैं। आन्दोलन के जल्दी सकारात्मक परिणाम नहीं आने के कारण किसानों द्वारा की गई आत्महत्याएं इसका सबूत हैं कि किस तरह आन्दोलनकारी किसानों में घुटन व निराशा बढ़ रही है। आन्दोलनकारियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य की कई सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि मनोरंजन के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ-साथ अब खेलों आदि के  आयोजन भी करवाए जा रहे हैं लेकिन सरकार के रवैये ने किसानों को निराश किया है। किसानों के जोशो-खरोश के बावजूद बहुत से किसानों को लगने लगा है कि सरकार बातचीत का सिर्फ दिखावा कर रही है। उसका समस्या के समाधान की तरफ कोई ध्यान नहीं है। बातचीत को लम्बा खींचना ही सरकार का ध्येय है। बहुत से किसानों को लगता है कि सरकार बातचीत करते हुए केवल दिखना चाहती है, ताकि विभिन्न मंचों पर कहा जा सके कि सरकार बातचीत कर रही है। इस निराशा से जूझना आन्दोलन के समक्ष बड़ी चुनौती है।
आन्दोलनकारियों में ही बहुत से स्वयंसेवी व एनजीओ स्वच्छता के काम में लगे हैं लेकिन लाख चाहने और मेहनत के बावजूद आन्दोलन स्थल पर स्वच्छता बनाए रखना आसान कार्य नहीं है। पहले ही कोरोना की महामारी पूरी दुनिया के लिए खतरा बनी हुई है। ऐसे में आन्दोलन स्थल  पर अस्वच्छता की तस्वीरें कहीं अन्य किसी बीमारी के फैलने का कारण ना बन जाएं। स्वच्छता के मामले में आन्दोलनकारियों को स्वैच्छिक सेवा के साथ-साथ अधिकाधिक प्रशासनिक मदद मिलनी चाहिए। सरकार को भी जल्द ही किसानों की मांगों को पूरा करना चाहिए, ताकि घर पहुंच कर वे खेती-बाड़ी के काम को आगे बढ़ाएं। यह नहीं भूलना चाहिए कि किसान द्वारा खेत में की गई पैदावार से ही पेट भरता है। पंजाबी में कहावत है-पेट ना पइयां रोटियां,  सभे गल्लां खोटियां। रोटी गूगल से डाउनलोड नहीं हो सकती। किसान अनाज पैदा करेंगे, तभी रोटी बनेगी। बेहतर है कि किसान खेती करें। आंदोलन का रास्ता मजबूरी का रास्ता है। आन्दोलन की मजबूरी से किसानों को निकालना और समस्याओं का समाधान करना लोकतांत्रिक देश में सरकार की जिम्मेदारी है।