संत रैदास ने भक्ति को कर्म-कांड से मुक्त किया

यूंतो संत रैदास को अनगिनत तरीकों से याद किया जा सकता है लेकिन अधिसंख्य भारतीय जनमानस में रैदास अपनी जिस एक सरल सूक्ति के लिए बिना खास कोशिश किये भी याद रहते हैं, वह सूक्ति है ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। आप उत्तर भारत के किसी भी कोने में चले जाइये और इस सूक्ति का आधा हिस्सा पढ़िये, लोग अपने आप दूसरा हिस्सा बोल देंगे। मगर यह सूक्ति महज अपनी लोकप्रियता के चलते ही महान नहीं है बल्कि इसमें एक बहुत ही क्रांति छिपी हुई है। दरअसल यह सूक्ति एक तरह से समूचे भक्ति कर्मकांड को सरल, व्यापक और वैज्ञानिक बनाने का आधारभूत सिद्धांत है। संत रैदास को हमें इस नज़र से देखना चाहिए कि उन्होंने भक्ति जैसी जटिल संवेदना को, भक्ति जैसी मन:स्थिति को बिल्कुल शीशे की तरह साफ  और फूल की तरह हल्की तथा पानी की तरह पवित्र कर दिया। रैदास का जन्म माघ पूर्णिमा के दिन काशी यानी आज की वाराणसी में हुआ था। लम्बे समय तक उनके जन्म को लेकर कुछ विवाद रहा है। कुछ लोग उनका जन्म 1388 में मानते रहे हैं, तो कुछ के मुताबिक वह 1398 में पैदा हुए थे। संत रैदास को हम कई नजरों से देख सकते हैं। लेकिन उनका सबसे बड़ा प्रभाव उनकी सरलता, स्पष्टता और उनकी वाणी की वैज्ञानिकता है। शायद उनकी वाणी के इन्हीं गुणों का प्रभाव है कि सिख गुरुओं के अलावा श्री गुरु ग्रंथ साहिब में जिन संतों की वाणी को शामिल किया, उनमें कबीर और नामदेव के बाद तीसरे संत रैदास ही हैं, जिनके सबसे ज्यादा यानि 40 पद शामिल हैं। संत रैदास बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे और काशी में रहने के कारण उन्हें साधु, संतों की पर्याप्त और व्यवहारिक संगति भी मिली थी। लेकिन उन्होंने कभी पारम्परिक संतों की तरह संन्यास लेने और सब कुछ छोड़कर भक्ति में लीन होने को अपना कर्त्तव्य नहीं माना। उन्होंने गृहस्थ धर्म की जिम्मेदारी निभाते हुए, भक्ति और साधना का दामन थामा। उनके पिता और माता जी भी संत वृत्ति के थे, इसलिए उन्होंने अपने बेटे को कभी भी साधु, संतों की संगति के लिए नहीं रोका लेकिन बेटे को यह सीख ज़रूर दी कि संत से ज्यादा आज कर्मशील संत की ज़रूरत है। इसलिए अपना जीवन चलाने के लिए किसी और पर निर्भर रहने की बजाय खुद आजीविका कमाना कहीं ज्यादा बड़ी भक्ति है। संत रैदास ने जीवनभर अपने मां-बाप की इस बात को अपने संत होने की कसौटी के रूप में लिया।संत रैदास ने दीक्षा लेने के बाद भी अपने मूल जीवनचर्या में कोई बदलाव नहीं किया। वह दिनभर आजीविका के लिए काम करते थे और इसी दौरान भक्ति भावना में लीन रहते थे। उनके पास जो भी आता, वह प्रसन्न होकर जाता था। लोगों में यह मशहूर हो गया था कि संत रैदास के इर्दगिर्द एक ऐसी सकारात्मक ऊर्जा बहती है, जो उनके पास जाने पर आपको प्रसन्नचित्त कर देती है। उनसे मिलने हर दिन सैकड़ों लोग आते थे। लेकिन वह इस सबके लिए न तो अपने काम में कोई समझौता करते थे और न ही उसे रोकते थे। संत रैदास की वाणी सुनने के लिए लोग इर्दगिर्द बैठे मुग्ध भाव से उन्हें सुनते रहते थे।कहते हैं, एक दिन उनके आसपड़ोस के तमाम लोग गंगा स्नान के लिए जा रहे थे। तभी कुछ युवा जो संत रैदास को अपना गुरु मानते थे और हर दिन आकर उनकी वाणी सुनते थे, उन्होंने चाहा कि अपने गुरु को भी गंगा स्नान के लिए ले जाया जाए। शिष्यों ने उनसे इसके लिए आग्रह किया तो उन्होंने बहुत भोले मन और भाव से अपने शिष्यों से पलटकर सवाल किया कि गंगा में नहाने से पुण्य कैसे प्राप्त होता है? शिष्यों ने काफी आग्रह किया, लेकिन संत रैदास नहीं गये। तभी उन्होंने यह कहा था ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा’ यानी मैं अगर मन से शुद्ध हूं तो मुझे गंगा नहाने जाने की क्या ज़रूरत है? संत रैदास अपने जमाने में बहुत क्रांतिकारी और बहुत वैज्ञानिक स्वभाव के संत थे। उन्होंने बिना आक्रामक हुए पारम्परिक भक्ति की धारा को अपने उर्वर विचारों से करीब करीब ध्वस्त कर दिया। उन्होंने भारतीय समाज की हर बुराई पर बड़ी सहजता से सिर्फ  चोट ही नहीं की बल्कि अपने जीवन स्वभाव से उस चोट को हमेशा महत्वपूर्ण माना। उनकी एक और सूक्ति बहुत मशहूर है, ‘मन ही पूजा मन ही धूप, मन ही से ऊं सहज स्वरूप’, तो ऐसे थे संत रैदास।