म्यांमार की चुनौती

म्यांमार दक्षिण पूर्वी एशियाई देश है। भारत का यह पड़ोसी देश एक बार फिर गहरे संकट में से गुज़र रहा है। यह देश कई दशकों तक कड़े सैनिक शासन के तले रहा है परन्तु इस कारण तथा अन्य कई मामलों को लेकर दशकों से ही इस देश में अशांति बनी रही है। चाहे समय-समय पर सैनिक  सत्ता का विरोध करने वाले सैकड़ों लोग गोलियों से मारे जाते रहे हैं, परन्तु विगत लगभग 10 वर्ष से आंग सांग सू की लोकतंत्र की प्रतिनिधि बनकर आगे आई हैं। पिछले वर्षों के दौरान बड़े अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के तले वहां सैनिक शासकों को उन्हें रिहा करके चुनाव करवाने के लिए विवश होना पड़ा था। इन चुनावों में आंग सांग की नैशनल लीग फॉर डैमोक्रेटिक पार्टी को भारी समर्थन मिला था। चाहे उन्हें प्राप्त अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि के कारण वह देश की प्रसिद्ध नेता बन गईं परन्तु सेना ने हमारे एक अन्य पड़ोसी देश पाकिस्तान की भांति सत्ता पर अपना कब्ज़ा बनाये रखा।
भारत के लिए यह बहुत नाज़ुक स्थिति थी क्योंकि म्यांमार की सेना ने अपने लम्बे कार्यकाल में दूसरे बड़े पड़ोसी देश चीन के साथ भी पूरी सांठ-गांठ बना रखी थी परन्तु सीमित लोकतांत्रिक अधिकारों के बावजूद लोकतांत्रिक प्रणाली के स्थापित होने से म्यांमार एक प्रकार से अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे के साथ सहयोग बढ़ाने का यत्न कर रहा था परन्तु सैनिक  जनरलों ने कभी भी इस स्थिति को स्वीकार नहीं किया। इसी कारण पिछले साल नवम्बर में सम्पन्न हुये चुनावों के परिणामों पर इन जनरलों ने प्रश्न-चिन्ह उठाने शुरू कर दिये थे। इन चुनावों में आंग सांग सू की की पार्टी को 83.1 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त हुये थे तथा चुनाव आयोग ने इन चुनावों को पूर्णतया उचित ठहराया था परन्तु सैनिक जनरलों को ऐसी जीत रास नहीं आ रही थी जिसे आधार बना कर सैनिक जनरल मीन आंग हलाइंग ने निर्वाचित सरकार को हटा कर देश में एक वर्ष के लिए आपात् स्थिति लगाने की घोषणा कर दी। भारत के लिए एक बार फिर यह कड़ी परीक्षा की घड़ी है क्योंकि म्यांमार के साथ इसके सदियों पुराने संबंध हैं। दोनों देशों की 1600 किलोमीटर से अधिक सीमा साझी है तथा बंगाल की खाड़ी में 700 किलोमीटर से अधिक इनकी समुद्री सीमा भी साझी है। आज भी 25 लाख से अधिक भारतीय इस देश में रह रहे हैं। दोनों देशों की आज़ादी के बाद 1951 में ही ये आपसी सहयोग की संधि में बंध गये थे। इसकी भारत के साथ बड़ी व्यापारिक साझेदारी है तथा भारतीय कम्पनियों का बहुत-सा औद्योगिक निवेश भी म्यांमार में है। म्यांमार पिछले 20 वर्षों से अधिक समय से एक मजबूत संगठन आसियान का भी सदस्य है। इसकी लोकतांत्रिक सरकार ने निर्गुट नीति को भी अपना लिया था। भारत ने जहां महीना भर पहले हुये इस सैनिक तख्ता-पलट की कड़ी आलोचना की है, वहीं चीन ने इसे मात्र इस देश की सरकारी व्यवस्था में हुआ बदलाव ही कहा है। इसीलिए आज लोग यहां के चीनी दूतावास के सामने निरन्तर विरोध रैलियां करके चीन के रवैये के विरुद्ध रोष जता रहे हैं। यूरोपीय देशों ने भी सैनिक सत्ता-पलट की तीव्र आलोचना की है। अमरीका की नई सरकार ने भी इसके प्रति कड़ा रुख धारण किया है। 
जब से यहां सेना ने सत्ता सम्भाली है, तभी से देश के बड़े शहरों मांडले एवं रंगून में निरन्तर लोग प्रदर्शन कर रहे हैं। इन प्रदर्शनों में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को सैनिक शासन की सहायता न करने की अपीलें भी की जा रही हैं। इसी प्रकार प्रदर्शनकारी बड़ी संख्या में जापान, अमरीका, कोरिया एवं भारत के दूतावासों के समक्ष इसलिए प्रदर्शन कर रहे हैं कि वे अन्तर्राष्ट्रीय धरातल पर पुन: स्थापित किये गये इस सैनिक शासन की आलोचना भी करें तथा क्रियात्मक रूप में इसके विरोध में पग भी उठायें। इसी प्रकार के प्रदर्शन संयुक्त राष्ट्र के कार्यालयों के समक्ष भी किये जा रहे हैं। पिछले समय में पुलिस एवं सेना ने नये तानाशाह मीन आंग के आदेशों पर इन प्रदर्शनकारियों को सख्ती के साथ दबाने की नीति धारण की हुई है। सेना की ओर से की गई कार्रवाई में अब तक दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं परन्तु ये रोष प्रदर्शन प्रतिदिन बड़े से बड़े होते जा रहे हैं। नि:सन्देह अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे की ओर से इस देश में लोगों के साथ की जा रही ज्यादती के संबंध में संयुक्त कार्रवाई होनी चाहिए जो इस देश को शीघ्रातिशीघ्र सैनिक गलबे से मुक्त करने में सहायक हो। भारत के लिए भी यह एक बड़ी परीक्षा की घड़ी है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे के साथ मिल कर किस प्रकार अपने इस पड़ोसी देश के लिए मुक्तिदाता सिद्ध हो सकता है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द