कितने और नीरज चोपड़ा हैं देश में 

चाहे हमारा देश विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है परन्तु यदि विश्व के खेल क्षेत्र की बात की जाए तो हम अभी भी विश्व के पिछड़े देशों की कतार में ही खड़े हैं। चीन चाहे विश्व की सबसे अधिक आबादी लिए बैठा है परन्तु वह इस आबादी को खेलों के क्षेत्र में लाने में सफल हुआ है। उसके नौजवान लड़के-लड़कियों ने विश्व के खेल नक्शे पर अपने-आप को सिद्ध किया है। वे ओलम्पिक खेलों की पहले तीन स्थानों पर ही चलते आ रहे हैं। गत टोक्यो ओलम्पिक खेलों में भारत ने चाहे अभी तक के सर्वोत्तम सात पदक जीते हैं परन्तु क्या इतनी बड़ी आबादी वाले देश के लिए ये पदक काफी हैं? इन खेलों में ऐतिहासिक घटनाक्रम जो घटित हुआ वह था नीरज चोपड़ा का स्वर्ण पदक जो किसी भी भारतीय खिलाड़ी द्वारा एथलैटिक्स के किसी भी इवैंट में जीता गया पहला पदक है। आओ, इस पदक के बाद भारतीय खेल क्षेत्र में क्या प्रभाव पड़े हैं या पड़ सकते हैं, बारे चर्चा करें। इतनी बड़ी जनसंख्या में से पहली बार एक 23 वर्ष के हरियाणवी युवक द्वारा भारतीय एथलैटिक्स को विश्व के खेल नक्शे में उभारा अवश्य गया है जिस कारण अब यह खिलाड़ी क्रिकेट के खिलाड़ियों को लोकप्रियता और कमाई के क्षेत्र में  टक्कर दे रहा है परन्तु क्या इस उपलब्धि से भारत में खेल क्रांति आ सकती है, यह बड़ा प्रश्न उत्पन्न होता है। इस युवक के भाले ने जिस तरह ओलम्पिक खेलों के स्वर्ण पदक पर निशाना लगाया, उससे एक बार तो पूरा देश ही झूम उठा था परन्तु क्या ज़मीनी स्तर पर देश में योग्य बच्चों का चयन करके देश के लिए और नीरज चोपड़ा तैयार किये जा सकते हैं? क्या जैवलिन के अतिरिक्त एथलैटिक्स के अन्य इवैंट्स में विश्व की दूसरी बड़ी आबादी के देश में अन्य खेल सितारे तैयार किये जा सकते हैं या नहीं? प्रश्न बहुत हैं परन्तु जवाब ज़मीनी स्तर पर जाकर ही मिलते हैं क्योंकि अपनी कड़ी मेहनत से खेलों की दुनिया के शीर्ष पर पहुंचने वाला नीरज चोपड़ा या उसके गुरु जी जान सकते हैं। उसने इस उपलब्धि के लिए कितना संघर्ष किया है? परन्तु क्या हमारे देश के बच्चे जो कि स्मार्ट फोन की दुनिया में गुम होकर या मोटरसाइकिलों पर चक्कर लगाने को ही जीवन माने बैठे हैं। क्या वे खून-पसीना एक करने के लिए तैयार हैं? प्रश्न देश की खेल नीति पर भी है कि कैसे ज़मीनी स्तर पर एक ऐसी नीति तैयार की जाए कि स्कूल स्तर पर ही हीरों की परख कर उन्हें मेहनत की भट्ठी में तपाने के लिए ऐसा शारीरिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर तैयार किया जाए कि वे स्वयं को खेलों के उस मुकाम पर खड़ा देखने का सपना सजा लें कि उन्हें उठते-बैठते सिर्फ विश्व का शीर्ष मुकाम ही याद रहे।  आम तौर पर हमारे देश के खिलाड़ियों को तब तक खेलों में उपलब्धिं हासिल करने का चाव रहता है, जब तक उन्हें कोई रोज़गार नहीं मिल जाता क्योंकि अधिकतर का लक्ष्य खेलों के दम पर नौकरी पाना होता है। आवश्यकता है इस सोच को विकसित करने की। आज जिस मुकाम पर हमारा खेल सितारा नीरज चोपड़ा है और शोहरत के जिस शिखर पर बैठा है, उससे अधिक विश्व में कुछ भी नहीं परन्तु अभी भी देश को उससे बहुत-सी उम्मीदें हैं।