बिहार का राजनीतिक घटनाक्रम लोकसभा चुनाव पर क्या प्रभाव डालेगा ?

पिछले साल सर्दियों में पटियाला की पंजाबी यूनिवर्सिटी में भाषा और उपनिवेशवाद के संबंधों पर व्याख्यान देने के लिए जाने का मौका मिला था। वहां मेरी अगवानी करने के लिए राजनीति शास्त्र के वरिष्ठ शिक्षक आए, और उनकी ही कार में बैठ कर मैं विश्वविद्यालय के अतिथि-गृह गया। मैंने देखा कि न तो प्ऱोफेसर साहब कोरोना-रोधी नकाब लगाए हुए थे, और आसपास नज़र दौड़ाने पर भी कोई नकाब लगाए हुए नहीं दिख रहा था। मैं दिल्ली से गया था, जहां मास्क न लगाने पर जुर्माना लगाने का नियम लागू था। मैंने पूछा कि यहां कोई मास्क क्यों नहीं लगाता? जवाब में कुछ-कुछ तंज़िया लहज़े में मुस्कुराते हुए मेरे मेज़बान के कहा, ‘मोदी जो कहते हैं, पंजाब में हम लोग उसका उल्टा करते हैं।’ उस समय इस बात का पूरा महत्व समझ में नहीं आया था, लेकिन जब विधानसभा के चुनाव हुए तो लगा कि कटाक्ष के अंदाज़ में कही गई वह बात कितनी सटीक थी। अपने इस तजुर्बे को मैं यहां इसलिए रख रहा हूँ ताकि यही बात कमोबेश बिहार के बारे में भी कही जा सके। 
सामाजिक और धार्मिक नज़रिये से देखें तो बिहार पंजाब से बिल्कुल अलग है। वहां हिंदू बहुमत में हैं, और मुसलमानों के वोटों के लिए की जाने वाली सेकुलर राजनीति के ़िखल़ाफ उनके बीच प्रतिक्रिया भी होती है। भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ राजनीति के ज़रिये वहां पिछले डेढ़ दशक से दो साल छोड़ कर सत्ता में भी रही है (पंजाब में भी भाजपा अकालियों के साथ सत्ता भोगती रही है)। इसके बावजूद न तो वह पंजाब में शहरी हिंदुओं की पार्टी होने से आगे बढ़ पाई, और न ही बिहार में वह ब्राह्मण, राजपूत, बनिया, भूमिहार और कायस्थों से आगे निकल पाई। पंजाब में सिखों का समर्थन पाने के लिए वह हमेशा अकालियों की मोहताज रही, और बिहार में पिछड़ों और दलितों के वोटों के लिए वह नितीश कुमार की मोहताज बनी रही। चाहे मोदी का कथित करिश्मा हो या हिंदुत्व की मुसलमान विरोधी विचारधारा हो, बिहार और पंजाब में भाजपा स्वतंत्र रूप से दबदबे वाली पार्टी बनने में लगातार नाकाम रही है। नितीश कुमार द्वारा भाजपा छोड़ कर राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिल कर सरकार बना लेने की घटना इसीलिए बिहार में ‘राजनीतिक गेमचेंजर’ बन सकती है। विधानसभा में तो शर्तिया, लेकिन लोकसभा में भी क़ाफी-कुछ। 
भाजपा के समर्थक दलील दे रहे हैं कि महागठबंधन का सामाजिक गठजोड़ भले ही देखने में ताकतवर लग रहा हो, लेकिन उसका हश्र उसी गठजोड़ जैसा होगा जैसा उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का हो चुका है। यह तर्क सही नहीं है। बिहार उत्तर प्रदेश की प्रतिलिपि नहीं है। अगर ऐसा होता तो उ.प्र. के यादवों में लालू यादव की पूछ होती, और बिहार के यादवों में मुलायम सिंह यादव की। रामविलास पासवान उ.प्र. के दलितों द्वारा स्वीकार कर लिये गये होते, और मायावती बिहार के दलितों द्वारा। हम जानते हैं कि ऐसा नहीं हुआ। कोशिशें दोनों तऱफ से हुईं और जम कर हुईं लेकिन, बिहार और उ.प्र. हमेशा अलग-अलग साबित हुए। ऐसा इसलिए हुआ कि सामाजिक विन्यास में बिहार एक अलग प्रांत है। 
उ.प्र. में द्विज और ऊंची जातियों की संख्यात्मक उपस्थिति चुनावी दृष्टि से बहुत शक्तिशाली है। ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य, भूमिहार, कायस्थ और जाट मिल कर तकरीबन पैतीस से चालीस ़फीसदी वोटों का निर्माण करते हैं। विभिन्न राजनीतिक कारणों से यह बड़ा मतदाता मंडल संगठित हो कर भाजपा की राजनीति का मर्म बन जाता है। इस चालीस ़फीसदी को पैंतालीस या पचास ़फीसदी तक पहुंचाने के लिए भाजपा को थोड़े से ही पिछड़े और दलित वोटों की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन, बिहार में ऐसा नहीं है। वहां इस तरह का मतदाता मंडल केवल पंद्रह ़फीसदी का ही है। अगर बहुत उदारता से हिसाब लगाया जाए तो भी इसे बीस ़फीसदी तक नहीं पहुंचाया जा सकता। ठोस रूप से कहें तो अस्सी ़फीसदी वोट ऐसे हैं जो भाजपा के स्वाभाविक वोटर नहीं हैं। उनमें से भी कुछ भाजपा को मिल सकते हैं, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है। मुहावरे में कहें तो बिहार में भाजपा ब्राह्मण-बनिया या बाबू साहबों की पार्टी ही है। गरीब-गुरबा की नहीं। उनकी नुमाइंदगी अपनी तमाम कमियों के बावजूद लालू और नितीश ही करते हैं। 
अभी कल ही एक टीवी चैनल द्वारा आयोजित बातचीत में सुशील मोदी के साथ चर्चा हो रही थी। दस साल से ज़्यादा तक नितीश के साथ उप-मुख्यमंत्री रह चुके सुशील मोदी ने आरोप लगाया कि वह हर बार जनादेश के साथ ़गद्दारी करते हैं। मैंने  पलट कर पूछा कि जनादेश के साथ गद्दारी करने वाले इस नेता को आप लोग बार-बार मुख्यमंत्री क्यों बनाते रहे हैं? पिछले विधानसभा चुनाव में नितीश को केवल 45 सीटें ही मिली थीं। भाजपा उनसे बहुत आगे थी। नितीश ने ़खुद भी कह दिया था कि वह मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते हैं, पर नरेंद्र मोदी ने स्वयं फोन करके उनसे आग्रह किया, और तब उन्होंने शपथ ली। मोदी ने ऐसा क्यों किया? क्योंकि प्रधानमंत्री को पता था कि लोकसभा चुनाव में अति पिछड़ों और दलितों-महादलितों के मतों की ज़रूरत नितीश के बिना पूरी नहीं हो पाएगी। सुशील मोदी भले ही न स्वीकारें, लेकिन नरेंद्र मोदी को पता था कि भाजपा की बिहार के मतदाताओं में असली हैसियत क्या है। 
कहना न होगा कि लोकसभा चुनाव में भाजपा के पास नरेंद्र मोदी की हस्ती तुरुप के इक्के की तरह होगी। हो सकता है कि अति पिछड़ों और दलितों के कुछ वोट उनके प्रभाव में भाजपा के पास चले जाएं, लेकिन, इसकी कोई गारंटी नहीं है। मोदी ने अपने दोनों लोकसभा चुनावों में महाठबंधन की मिलीजुली त़ाकत का सामना नहीं किया है। 2014 में नितीश और लालू बंटे हुए थे, और 2019 में नितीश भाजपा के साथ थे। इस बार नरेंद्र मोदी को पहली बार पिछड़ों, अति पिछड़ों, दलितों और महादलितों की मिली-जुली त़ाकत का मुकाबला करना पड़ेगा। यह लड़ाई भाजपा को भारी पड़ सकती है। 
लेकिन इसके साथ शर्त भी है। नितीश-तेजस्वी को अगले डेढ़ साल तक सरकार इस तरह चलानी पड़ेगी कि महागठबंधन अति-दरिद्रों के बीच बदनाम न होने पाए। ये दोनों नेता दबदबे वाले समुदायों से आते हैं। नितीश कुर्मी समुदाय के पुत्र हैं, और तेजस्वी यादव समुदाय के। दोनों के पास ज़मीनें हैं, लाठी है। अगर इन्होंने, ़खासकर यादवों ने, संयम रखा, तो लोकसभा में ऊँची जातियों के ़िखल़ाफ कमज़ोर कही जाने वाली जातियां एकजुट हो सकती हैं। यह शर्त पूरा करना आसान नहीं है। लेकिन, दोनों नेताओं ने एक-दूसरे का साथ छोड़ने का ़खमियाज़ा भुगत लिया है। नितीश जानते हैं कि मोदी की भाजपा अटल-अडवाणी वाली भाजपा नहीं है। तेजस्वी जानते हैं कि अगर इस बार सत्ता उनके हाथ से गई तो भाजपा उनके ़िखल़ाफ आरोप-पत्र दाखिल करवा ही चुकी है। पिता पहले से ही जेल में हैं, और अगर तेजस्वी को भी सलाखों के पीछे जाना पड़ा तो उनकी  पार्टी पूरी तरह से बेसहारा हो जाएगी। इसलिए एक-दूसरे का साथ छोड़ने से पहले ये दोनों नेता सैकड़ों बार सोचेंगे। 
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्रोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं)