सामाजिक और राजनीतिक करवट लेता भारतीय समाज

पंर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भारत का समाज अपनी चिरसुपरिचित सामाजिक और राजनीतिक परम्पराओं को त्याग कर दोनों अनुभागों में करवट बदलने की तैयारी करता प्रतीत हो रहा है। सामाजिक सोच के क्षेत्र में अगर गंभीरता से देखा जाए तो बहुसंख्यक समाज एक धर्मनिरपेक्ष समाज की केंचुली का परित्याग कर प्रखर हिंदुत्व की ओर बढ़ता लगता है तो वहीं मोदी की ‘सब का विकास’ की नीतियों का असर अब अल्पसंख्यक समाज पर भी होता नजर आने लगा है। अब अशराफ (उच्च वर्णीय) अल्पसंख्यकों के सदियों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठा कर पसमांदा (पिछड़ा) अल्पसंख्यक संवर्ग निश्चाप मगर धीमे कदमों से भाजपा की ओर बढ़ रहा है । इन दोनों घटनाओं से समाज के दो वर्ग बहुत परेशान नजर आने लगे हैं। 
पहले कदम से भारत के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल जो अपने अब तक के क्रि याकलापों के चलते किसी भी दशा में धर्मनिरपेक्ष नहीं कहे जा सकते, अब तक बहुसंख्यक हितों के मूल्यों पर अल्पसंख्यक हितों की प्रतिपूर्ति करने की देश और समाजघाती नीतियों का अनुसरण कर, भारतीय समाज में एक स्पष्ट खाई को चौड़ा, और चौड़ा करते रहे हैं । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जाने-अनजाने भारतीय समाज अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समाज में बंटता चला गया। चूंकि अल्पसंख्यक समाज जन्मना एक आक्र ामक समाज है इसलिए अपनी एकांगी आकांक्षाओं के चलते अन्य भारतीय समाज के हितों को ताक पर रख कर उनकी प्रतिपूर्ति के लिए आक्र ामक होकर आंदोलनों और प्रदर्शनों का सहारा लेता रहा और बहुसंख्यक समाज कुछ जन्मना, कुछ कर्मणा अपनी शांत प्रवृत्ति के कारण इन दैहिक और वैचारिक आघातों को सहन करता रहा किन्तु सहन शक्ति की भी एक सीमा होती है। 
इधर धर्मनिरपेक्ष दलों की रीति नीति से परे अपनी सर्वधर्म समाज कल्याण की सोच रखने वाले या यूं कहें कि दिखाने वाले दल इसका विरोध कर बहुसंख्यक समाज में अपनी पैठ विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक माध्यमों से बनाते रहे । धर्मनिरपेक्ष दलों के राजनीतिक वर्चस्व के चलते उन्हें समय समय पर सामाजिक और राजनीतिक प्रताड़णाओं को भी सहना पड़ा मगर दूरगामी सामाजिक हितों के चलते वे कच्छप गति से ही सही, आगे बढ़ते रहे एवं बहुसंख्यक समाज में अपनी धीमी पैठ भी बनाते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ठगा जाता रहा बहुसंख्यक समाज भी अपने प्रति दुर्भाव को लेकर सचेत हुआ और फिर छिटपुट विरोध भी करने लगा। फलस्वरूप धर्मनिरपेक्ष दलों ने जो एक खाई का सीमांकन किया था, वह गहरा और बड़ा होता चला गया ।  उधर आजादी के बाद से कुछ पसमांदा लोगों द्वारा मुस्लिम और शासकीय शिक्षा संस्थानों में उच्च शिक्षा तक जाकर यह अनुभव किया गया कि अशराफ उनके साथ इन्साफ नहीं करते। कहने को तो वे समानता की बात करते हैं किन्तु वास्तविकता यह नहीं है। वे हर समय, हर स्थान और अवसर पर उन्हें अपने से हीन समझ कर उनके साथ जाने अनजाने दुर्व्यवहार ही नहीं करते, उन्हें उच्च स्थानों चाहे वे धार्मिक इदारे हों या अन्य संस्थान, पर नियुक्ति में अपवादों को छोड़ कर वह स्थान नहीं देते जिसके वे योग्य होते हैं । उन्हें कदम कदम पर उसी प्रकार के अनुभव कराए जाते हैं जो उन्हें बहुसंख्यक समाज के दलित सवर्ण वर्ग में हुए बताए गये हैं। 
उन्होंने अनुभव किया कि उनसे कम उच्च शिक्षितों को उच्च पदों पर नियुक्ति दी जाती है। एक दो अपवादों को छोड़ कर वे तरक्की के मामले में भी इसी दुर्भावना के शिकार बनते हैं। उच्च धार्मिक इदारों में उनका प्रतिनिधित्व लगभग शून्य है। यहाँ तक कि मुस्लिम पर्सनल ला कमेटी में भी उनका कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इससे उनके समाज में पहले धीरे-धीरे और फिर बाद में एक भावना के रूप में एक असंतोष घिरता चला गया। इस असंतोष की भावना का असर यह हुआ कि धार्मिक दबावों के चलते भी पढ़े लिखे नौजवानों ने समाज में न केवल जागृति ही पैदा की बल्कि अंदर ही अंदर एक आंदोलन भी खड़ा कर दिया। फलस्वरूप अशराफ और पसमांदा संवर्ग में एक खाई की रूपरेखा बनी जो अल्पसंख्यक होने के कारण असुरक्षा की भावना के चलते बाहर तो नहीं आई मगर पसमांदा समाज अंदर ही अंदर खौलने लगा । कुछ दुस्साहसी युवकों ने अलग धार्मिक और पसमांदा समाज के शिक्षण इदारे भी चालू किये और धार्मिक आवरण ओढ़े हुए ही एक अलगाव की भावना विकसित कर ली।  
बहुसंख्यक संवर्ग पर हुयी इस प्रतिक्रिया से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल सचेत हुए और उन्हें सत्ता के सूत्र अपने हाथ से जाते लगे तो उन्होंने तरह तरह के दांवपेंच खेलने शुरू किये । भगवा आतंक की सृजना इसकी प्रथम परिणति थी जिसके माध्यम से अल्पसंख्यक समाज को बहुसंख्यक समाज से डराया गया और अल्पसंख्यक समाज में यह भ्रान्ति पैदा करने की कोशिश की गयी कि बहुसंख्यक समाज के आरएसएस और इसी तरह के और कई उसके आनुषंगिक संगठन जिनका सीधा संबंध भाजपा से है, तुम्हें किसी भी दशा में भारत से भगाना चाहते हैं । प्रारम्भ में तो यह खेल कई वर्ष तक चल गया किन्तु गोधरा काण्ड और फिर गुजरात के दंगों में इन धर्मनिरपेक्ष दलों की असलियत बहुसंख्यक समाज के सामने प्याज के छिलकों की तरह उतरती चली गयी। इस के चलते अशराफ और पसमांदा अल्पसंख्यक समुदाय फिर से एक दूसरे से जुड़ने लगे । 
गुजरात सरकार गिराने की जी तोड़ कोशिशों के बाद जब वह नहीं गिर सकी तो धर्मनिरपेक्ष उपरोक्त दलों ने अल्पसंख्यक वर्ग को निशाना बना कर उसे बहुसंख्यक वर्ग के विरुद्ध लामबंद किया और दोनों के बीच की खाई को अगम्य बनाने की कोशिश की । फलस्वरूप अल्पसंख्यक संवर्ग ने अपनी आक्र ामक गतिविधियां तेज कीं जिसका सीधा असर गोधरा और गुजरात दंगों से सचेत हुए बहुसंख्यक वर्ग पर हुआ और उसने हिंदुत्व की ओर कदम बढ़ा कर केंद्र में मोदी सरकार को बैठा दिया।  मोदी ने वाजपेयी की गलतियों को नहीं दोहराया बल्कि अपने हिंदुत्व का खुला प्रदर्शन तो किया ही, अपनी नीतियों से पसमांदा और गरीब अल्पसंख्यक वर्ग को भी संतुष्टि दी। धर्मनिरपेक्ष दलों ने अल्पसंख्यक वर्ग को समर्थन दिया और जहां जहां विपक्षी सरकारें थीं, वहां वहां पर बहुसंख्यक समाज पहली बार एकीकृत होकर उग्र हेतु दिखा। वर्तमान में स्थिति यह है कि बहुसंख्यक समाज की प्रतिक्रि या से अल्पसंख्यक समाज उग्र हुआ और जिहादी संवर्ग के साथ धर्मनिरपेक्ष दल सकते में हैं तथा बहुत सोच समझ कर अपनी प्रतिक्रि याएं दे रहे हैं । यह एक सुखद स्थिति है और यह बनी रहे तो समाज में अच्छा परिवर्तन दिख सकता है । (युवराज)