कांग्रेस का राजस्थान संकट अस्पष्ट सोच का नतीजा

इसे आश्चर्यजनक तो नहीं कहेंगे मगर यह कांग्रेस जैसी देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी में मौजूद अस्पष्टता के अनुमान को और गहरा करता है। इस लिहाज से भी यह चिंतित करने वाली स्थिति है कि कांग्रेस के जो हालात पिछले कुछ दिनों से हैं, उनको देखते हुए उससे जिस अतिरिक्त सजगता की उम्मीद की जा सकती है, इस  पैमाने पर वह बिल्कुल चारो खाने चित साबित हुई है। यह महज प्रादेशिक राजनीति में बगावत का मामला भर नहीं है, यह कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा किसी भी मामले में होमवर्क न करने की गलती को बार-बार दोहराये जाने का सबूत है। इससे अकेले राहुल गांधी की किरकिरी नहीं हो रही बल्कि उससे भी ज्यादा सोनिया गांधी की फजीहत हो रही है, क्योंकि अशोक गहलोत राहुल के नहीं बल्कि सोनिया गांधी के ज्यादा नज़दीक समझे जाते हैं।
जिस तरीके से यह पूरा घटनाक्रम सामने आया है, उससे तो लगता है कि जैसे कांग्रेस ने हाल के तमाम भीतरघातों और नमोशीजनक पराजयों से कुछ नहीं सीखा। राजस्थान में जो सियासी संकट उभरकर सामने आया है, उससे इसकी पटकथा बिल्कुल साफ है कि कांग्रेस यह मानकर चल रही थी कि अशोक गहलोत को अध्यक्ष बना दिया जायेगा और सचिन पायलट को राजस्थान का मुख्यमंत्री, और सब कुछ सही हो जायेगा लेकिन अगर ऐसा था तो सचमुच यह राहुल गांधी का नौसिखियापन ही माना जायेगा। हालांकि उनके साथ नौसिखिया शब्द का इस्तेमाल करना भी अब सही नहीं है, क्योंकि उन्हें राजनीति में दो दशक हो चुके हैं। आखिर कोई कब तक नौसिखिया रहेगा?
राहुल गांधी जनवरी 2004 से बकायदा संसदीय राजनीति में हैं और 2002-03 से अपनी माता के साथ राजनीतिक घटनाक्रमों और अटकलों के हिस्सेदार रहे हैं। किसी को राजनीतिक अनुभव के लिए इससे ज्यादा समय की ज़रूरत नहीं होती। ऐसे में माना जाना चाहिए कि भारतीय राजनीति में जिस चातुरी की ज़रूरत होती है, वह उनमें नहीं है क्योंकि राजस्थान के घटनाक्रम से लगता है कि कांग्रेस आलाकमान को शायद लगता था कि जैसे अतीत में होता रहा है, वैसा ही सब कुछ हो जायेगा। दिल्ली से दो पर्यवेक्षक पहुंचेंगे, उनके सामने विधायक अपनी बात कहने की खानापूर्ति करेंगे और ऊपर से आये आदेश का हवाला देकर सब कुछ तय कर लिया जायेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मगर जो कुछ हुआ वह भी अप्रत्याशित तो कतई नहीं था, क्योंकि 2018 से ही यह स्पष्ट है कि सचिन पायलट और अशोक गहलोत एक म्यान  रखी जा सकने वाली दो तलवारें नहीं हैं। पहले दिन से अशोक गहलोत का अस्तित्व, सचिन पायलट को अस्तित्वहीन बनाने की जद्दोजहद पर ही टिका है। सचिन पायलट लगातार पिछले चार सालों से इस स्थिति से संघर्ष कर रहे हैं।
भले इस बात का कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को एहसास न हो, लेकिन हकीकत यह है कि उससे न सिर्फ  राजस्थान बल्कि मध्य प्रदेश के मामले में भी साल 2018 में ही बड़ी गलती हो गई थी। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के जीतने का सारा श्रेय ज्योतिरादित्य सिंधिया को गया था, तो राजस्थान में यह श्रेय सिर्फ और सिर्फ  सचिन पायलट को जाता था। अशोक गहलोत तो लगभग अवकाश की मुद्रा में चले गये थे, लेकिन जिस तरह 1991 में अवकाश की मुद्रा से नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाया गया था, इसी तरह से न जाने किस गणित या समीकरण को ध्यान में रख कर अशोक गहलोत को राजस्थान का मुख्यमंत्री बना दिया गया। इसके बाद तो जो हुआ, वही होना था। अशोक गहलोत बहुत चतुर और चौबीसों घंटे राजनीतिक  दांवपेच के मोड में रहने वाले सतर्क खिलाड़ी हैं। एक बार जब उनके पास बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के मुख्यमंत्री  पद आ गया तो फिर वह इसे बचाना तो जानते ही थे। यह उनकी राजनीतिक चातुरी का ही कमाल है कि सचिन पायलट पिछले चार वषों में तीन बार दांव उलटने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन हर बार मुंह की खानी पड़ी है।
हालांकि 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 99 सीटें ही मिली थी और भाजपा को 73 सीटें। उस समय भाजपा के लिए सचिन पायलट को तोड़कर प्रदेश में सरकार बनाने का एक सीधा और सरल समीकरण था, लेकिन भाजपा की इन कोशिशों को तब झटका लगा, जब पता चला कि यह कोशिश वसुंधरा राजे के कांग्रेस के खेमे में जाने या बगावत करके विधानसभा को त्रिशंकु की स्थिति में लाने के हालात बन जाएंगे, तो वह ठंडी पड़ गई। आज भी भाजपा के लिए यही सबसे बड़ा बुनियादी संकट है क्योंकि सचिन पायलट के पास जहां राजस्थान का गुर्जर मतदाता है, वहीं वसुंधरा राजे के साथ तकनीकी रूप से तीन समुदाय अपना नाता जोड़े हुए  हैं। वह जाट समुदाय की बहू और गुर्जर समुदाय की समधिन हैं।
इसलिए फिलहाल भाजपा राजस्थान की स्थिति को लेकर जिस चुप्पी का प्रदर्शन कर रही है, वह चुप्पी नहीं दरअसल अंदरखाते बहुत तेजी से आंकलन की प्रक्रिया से गुजरना है कि सचिन पायलट को 25-26 विधायकों के साथ भाजपा में लाकर क्या मुख्यमंत्री बनवाया जा सकता है? ..और अगर नहीं तो इस स्थिति का क्या फायदा उठाया जा सकता है? अगर वसुंधरा राजे नहीं होतीं या राजस्थान की जगह दूसरा राज्य होता, तो पता नहीं कब की भाजपा ने कांग्रेस को दिन में तारे दिखा दिये होते लेकिन फिलहाल लौटते हैं, कांग्रेस के राजस्थान संकट पर हाल में सभी ऐसे घठनाक्रमों से गुजरने के बाद भी आखिर कांग्रेस नेतृत्व के पास राजस्थान की इस स्थिति में पहुंच जाने का कोई पूर्वानुमान क्यों नहीं था? जिस तरह से दिल्ली से अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे गये और सीधे सपाट तरीके से जलसे की तैयारी के मूड में दिखे, उससे साफ  लगता है कि उनका कोई होमवर्क नहीं था।
अब भी कांग्रेस के पास एक मौका है, वह अशोक गहलोत की तिकड़मों के मूल को समझे और उन्हें राजस्थान का मुख्यमंत्री ही बना रहने दे और सचिन पायलट को केंद्र में बुलाकर कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दे। अगर ऐसी स्थिति बनती है तो न सिर्फ  कांग्रेस को एक युवा नेतृत्व मिल जायेगा बल्कि इससे देश की उस युवा पीढ़ी का भरोसा भी कांग्रेस को मिलेगा, जिस वर्ग के साल 2024 के लोकसभा चुनाव में करीब 12 से 13 करोड़ मतदाता होंगे, लेकिन अगर इस पूरी स्थिति में हाथ पर हाथ धर कर हताशा का प्रदर्शन किया गया तो भले अशोक गहलोत केंद्र में आने का नाटक करें, लेकिन वह राजस्थान की बागडोर अदृश्य रूप में अपने हाथ में ही रखना चाहेंगे, क्योंकि उन्हें भरोसा नहीं है कि देश के बदले हुए राजनीतिक हालात में और अपनी उम्र व स्वास्थ्य के मद्देनज़र लोगों में कांग्रेस के प्रति भरोसा बढ़ाने के लिए ज़मीन आसमान एक कर सकेंगे।
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