बाकू का अग्नि मंदिर और उदासी सम्प्रदाय


बीत चुका सप्ताह बाबा नानक के जन्म को समर्पित था। यह सबब की बात है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के बौद्ध अध्ययन विभाग के प्रमुख की ओर से पेश किया गया भापा प्रीतम सिंह यादगारी भाषण भी गुरु नानक देव जी के बड़े सपुत्र बाबा श्री चंद द्वारा अपनाई गई उदासी भावना से संबंधित था। भाषण देने वाले कर्म तेज सिंह सराओ का जन्म गांव चट्ठा गोबिंदपुरा ज़िला संगरूर में हुआ था। उनके द्वारा पेश की गई बाकू के अग्नि मंदिर की रूप-रेखा सराओ के वहां के पांच दौरों पर आधारित है। 1975 से संग्रहालय के रूप में परिवर्तित यह मंदिर पाच-भुजा दीवारों में घिरा हुआ है और यहां 24 कोठरियां बनी हुई हैं जहां संन्यासी, श्रद्धालु, लादू जानवरों के व्यापारी ठहरते हैं। यह बताना भी उचित होगा कि बाकू अज़रबाइजान की राजधानी है। 
नोट करने वाली बात यही है कि इन कोठरियों के दर-दरवाज़ों पर लगी हुई पट्टियां देवनागरी तथा लण्डा लिपी के अतिरिक्त गुरमुखी लिपी मेें भी हैं। कोठरी नम्बर 7 तथा 10 के दरवाज़े गुरमुखी लिपी वाले हैं। सराओ ने जिनकी तस्वीरें अपने भाषण के दौरान श्रोताओं को प्यार से दिखाईं, इनमें गुरमुखी अक्षर तथा शब्द एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। यहां तक कि चेला शब्द का ‘चे’ भाग एक पंकित के अंत पर है और ‘ला’ भाग अगली पंक्ति के आरंभ में। इनके लिखने का समय 1668 से 1816 ईस्वी का तय किया गया है। देवनागरी वाली कोठरी नम्बर 12 के दरवाज़े सहित सातवीं तथा दसवीं कोठरी का संबंध गुरु बाबा नानक की तीसरी उदासी से जुड़ा हुआ माना गया है। 
नोट करने वाली बात यह भी है कि संन्यास धारण करने वाले संन्यासी आरामों, विहारों तथा डेरों में रहने वाले भी थे और जंगलों, गुफाओं तथा रेगिस्तानों में भी। स्पष्ट है कि बाबा नानक द्वारा गृहस्ती साम्प्रदाय स्थापित करके क्रांतिकारी परिवर्तन लाया गया जो कुछ समय के बाद अधिक लोकप्रिय हुआ। 
चाहे उदासी साम्प्रदाय की कई परम्पराओं तथा जीनव-शैली को सिखी-सिद्धांत के विरुद्ध माना गया है परन्तु इस में संदेह नहीं कि उदासी संत सिख धर्म के प्रथम संत हैं और कई पक्षों से सिख धर्म उनका ऋणि है। कोठरी नम्बर 7 था 10 के दोनों शिलालेखों का पहला भाग जपुजी साहिब की आरम्भिक पंक्तियों के साथ मेल खाता है जिसे सिख धर्म का मूल मंत्र कहा जाता है। प्रो. सराओ का उद्धम तथा हठ उन्हें मुबारक।
ब्रिटिश कोलम्बिया का एक दिन एवं पंजाब के तीस दिन
पूरे विश्व के पंजाबी प्रेमी पहली नवम्बर को पंजाब दिवस के रूप में मनाते हैं। इस दिन वर्तमान पंजाब अस्तित्व में आया था। 1947 में जो पंजाब पांच नदियों की धरती के टुकड़े होने के बाद अढ़ाई नदियों का होकर रह गया था पहली नवम्बर 1966 को इसमें से हरियाणा तथा हिमाचल प्रदेश का कुछ भाग बाहर निकाल कर वर्तमान पंजाब का निर्माण किया गया था। पंजाब ने क्या पाया और क्या गंवाया इतिहास का भाग बन चुका है। यह भी कि उस दिन के बाद अनेक पंजाबी युवक एवं युवतियां अपनी जन्म भूमि को अलविदा कह कर विदेशों के निवासी बन गये हैं। रोज़ी-रोटी की तलाश में परायी धरती को अपनाना उनकी मज़बूरी बन गया है।
हम इस वर्ष के पंजाब दिवस तक ही सीमित रहें। पंजाब ने यह दिवस भाषा विभाग के आंगन पटियाला शहर में मनाया। निमंत्रण पत्र के अनुसार पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने वहां मुख्यातिथि के रूप में भाग लेना था। उन्हें केवल एक दिन पूर्व ही किसी अन्य कार्यक्रम आयोजित करने वाले बहला कर अपने कार्यक्रम की शान बढ़ाने हेतु वहां ले गये। उन्हें शायद, इतना भी ज्ञान नहीं था कि ‘पंजाब दिवस’ तो पहली नवम्बर को ही मनाया जाना था तथा वह अपने वाला कार्यक्रम आगे-पीछे कर सकते थे। परिणामस्वरूप मुख्यमंत्री निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार पटियाला नहीं पहुंच सके तथा उन्होंने उच्च शिक्षा मंत्री गुरमीत सिंह मीत हेयर को भी दो घंटे लेट भेजा। दूर-पास से उत्साहपूर्ण इस कार्यक्रम के लिए पहुंचे बुद्धिजीवि दर्शकों एवं प्रशंसकों को पूरे दो घंटे इंतजार करना पड़ा।
इसके विपरीत कनाडा के ब्रिटिश कोलम्बिया प्रदेश की सरकार ने यह कार्यक्रम अपने प्रदेश की राजधानी विक्टोरिया में मनाया जहां ब्रिटिश कोलम्बिया के स्पीकर वहां की संसदीय सचिव बिल्कुर ठीक समय पर पहुंचे तथा समय पर पूरा कार्यक्रम हुआ। पंजाबी प्रेमियों को इस बात का भी गर्व है कि वहां की संसदीय सचिव रचना सिंह सिख परिवार से है। जगराओं के निकटवर्ती गांव भमीपुरा के रघबीर सिंह सृजना की बेटी और स्वर्गीय पंजाबी महारथी तेरा सिंह चन्न की नातिन।
रचना सिंह में अपने बुजुर्गों का खून इस सीमा तक रचा हुआ है कि उन्होंने अपना भाषण, स्पीकर से आज्ञा लेकर, पंजाबी में शुरू किया। उन्होंने अपने शब्दों में अपनी मातृ भाषा की ही प्रशंसा नहीं की, अपितु कनाडा निवासियों की भी सराहना की जिन्होंने भारत तथा पाकिस्तान के पंजाबियों को आवास दे रखा है तथा वह ब्रिटिश कोलम्बिया के उच्चत्म पदों पर विराजमान रहे हैं। यह भी संतोषजनक बात है कि राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया ने रचना सिंह की पहलकदमी का भरपूर स्वागत किया।