आवश्यक है कुछ संवैधानिक व्यवस्थाओं संबंधी विचार-विमर्श संविधान दिवस पर विशेष


26नवम्बर देश के लिए एक महत्वपूर्ण तिथि है। इस दिन देश की दिशा निर्धारित हुई, संविधान के अनुसार चलने की प्रक्रिया आरंभ हुई और स्वतंत्र भारत के नए अध्याय की शुरुआत हुई थी। जिस प्रकार आज आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है और अब तक की उपलब्धियों तथा कमियों पर विचार-विमर्श किया जा रहा है, उसी तरह संविधान और उसके अंतर्गत बने कानूनों एवं उन्हें लागू करने वाली व्यवस्था के बारे में बातचीत करना आवश्यक हो जाता है। संविधान दिवस के अवसर पर यह और भी ज़रुरी है।
सर्वोच्च पद और संविधान
सबसे पहली बात तो यह है कि वर्तमान संविधान के अनुसार किसी भी संवैधानिक पद और प्रशासनिक पदों पर भी प्रधानमंत्री की सिफारिश पर ही राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति की जाती है। यहां तक कि राष्ट्रपति पद के लिए अपनी सत्तरूढ़ पार्टी द्वारा उम्मीदवार तय करने के लिए भी उनकी राय सबसे महत्वपूर्ण होती है। राज्यपाल, मुख्य न्यायाधीश, चुनाव आयुक्त से लेकर अंतिम निर्णय करने वाले सभी पदों पर, कहना चाहिए कि उनकी मज़र्ी चलती है। 
बेशक कहा जाए कि प्रधानमंत्री किसी एक दल का नहीं, सब का होता है लेकिन वास्तविकता यही है कि देश में सत्तारूढ़ दल का वर्चस्व, अधिकार और उसकी मनमानी बढ़ती है और इस पद पर आसीन व्यक्ति सब कुछ करने में सक्षम होता है। ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि संविधान में इसकी व्यवस्था है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण एक प्रधानमंत्री द्वारा आपातकाल का लगाया जाना है। इस तरह सबसे पहले प्रधानमंत्री के अधिकारों पर संविधान द्वारा दी गई छूट या व्यवस्था पर फिर से विचार करना ज़रूरी है ताकि कोई भी व्यक्ति निरंकुश न हो सके।
विधान में भेदभाव
इसके बाद इस बात पर आते हैं कि हमारे संविधान में समानता, धर्म, धर्मनिरपेक्ष होने तथा अन्य बातों को लेकर जो व्यवस्था की गई हैं, वर्तमान में उनका क्या उपयोग तथा कैसा दुरुपयोग हो रहा है।
जहां तक समानता की बात है तो इस पर गंभीरता से विचार किया जाए कि इससे क्या लाभ और क्या हानि हो रही है। मिसाल के तौर पर क्या कभी अमीर और गरीब, अधिकारी और कर्मचारी, ताकतवर और कमज़ोर तथा शासक और प्रजा एक समान हो सकते हैं? कभी नहीं!
इस स्थिति पर चिंतन करने की आवश्यकता है। यदि कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए सज़ा पा चुका है, वह किसी सरकारी, पब्लिक सेक्टर और निजी क्षेत्र में भी नौकरी करने के अयोग्य हो जाता है। यहां तक कि अपना रोज़गार, व्यापार या व्यवसाय करना भी आसान नहीं होता। वह सरकारी सहायता, विभिन्न योजनाओं के तहत मिलने वाली आर्थिक मदद, बैंक का सहयोग और जनता की सहानुभूति से भी वंचित हो जाता है। इस के विपरीत किसी साधारण या संगीन जुर्म में जेल में बंद अपराधी चुनाव लड़ सकता है, सांसद, विधायक, मंत्री बनकर कानून बनाने वाला बन सकता है। यह इसलिए संभव है क्योंकि संविधान इसकी इजाज़त देता है। क्या इस व्यवस्था पर नए सिरे से विचार नहीं होना चाहिए? हकीकत यह है कि दोनों ही वेतन और दूसरे भत्ते पाते हैं, लेकिन व्यवहार के मामले में यह सीधे पक्षपात है लेकिन संवैधानिक है, इसलिए जायज़ है।
इसके बाद बात करते हैं धर्म की, तो संविधान में व्यवस्था है कि सभी देशवासी अपने धर्म का पालन और उसके अनुरूप बर्ताव कर सकते हैं। इसका मतलब यह है कि यदि एक धर्म के मानने वाले कहते हैं कि उनके लिए संविधान और उसके अंतर्गत बने कानूनों को मानने से ज्यादा ज़रूरी है कि वे अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार चलें क्योंकि संविधान इसकी अनुमति देता है। इसलिए वे वही करेंगे जो उनके धर्म के मुताबिक है। इसके लिए चाहे उन पर कट्टर होने का ही आरोप क्यों न लगे। यह मुद्दा भी विचारणीय है।
धर्म के पालन की संवैधानिक व्यवस्था होने से और अपने धर्म को सबसे बड़ा मानने की मनस्थिति से विवाद, संघर्ष, आंदोलन से लेकर उन्माद तथा दंगे-फसाद तक के नज़ारे देखे जा सकते हैं। यही नहीं अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए प्राचीन परम्पराओं, बेमतलब के रीति-रिवाजों, मान्यताओं, कुरीतियों, अंधविश्वास, दिखावा, पाखंड और इन्सानियत तक के विरोध में जनमानस को नुकसान पहुंचाने वाले कारनामे करना बहुत आसान हो जाता है। यह इसलिए होता है, क्योंकि संविधान में अपने धर्म के नाम पर कुछ भी करने की इजाज़त है। अब ज़रा इस बात पर गौर कीजिए कि चाहे कितने भी अपराधियों को सबूत के अभाव में छोड़ना पड़े और किसी भी निरपराध को उसके निर्दोष होने का प्रमाण न होने से जेल में बंद होना पड़े तो यह संवैधानिक और कानून के मुताबिक है और इसकी कोई अपील या दलील नहीं हो सकती। क्या यह सही संवैधानिक व्यवस्था है और क्या यह उसके दुरुपयोग की श्रेणी में नहीं आती? तो क्या इस विसंगति को रोकने के लिए फिर से विचार करना ज़रूरी नहीं है?
आज हमारी अदालतों द्वारा दिए गए ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो उसके अन्याय के प्रतीक हैं, लेकिन उन्हें मानने के लिए बाध्य हैं क्योंकि वे कानून के मुताबिक हैं और यह जो पीढ़ियों तक चलने वाले मुकद्दमों के भंडार हमारी अदालतों में लम्बित पड़े हैं, वे संविधान के अनुसार बनी न्यायिक व्यवस्था की नाकामी नहीं तो और क्या है? उल्लेखनीय है कि जिस समय संविधान बनाया जा रहा था तब परिस्थितियां बिल्कुल भिन्न थीं, इसमें शामिल विद्वान अंग्रेज़ी हुकूमत के दौर के गवाह थे और उनकी सोच का दायरा गुलामी की परिधि से बाहर निकलने तक सीमित था। उन परिस्थितियों में जो उन्होंने किया, वह तर्कसंगत था और संविधान के रचने में उनका योगदान सर्वोत्तम था। उन्होंने जैसे भारत की कल्पना की होगी, उनकी दृष्टि में उससे बेहतर कुछ और नहीं था परन्तु वास्तविकता यह है कि आज़ाद भारत की ज़रूरतें, उसके अनुभव, संसाधन और वैश्विक स्तर पर देश की प्रगति का अनुमान उन्हें नहीं हो सकता था।
इसी तरह की बहुत-सी धाराएं, व्यवस्थाएं हैं जो आज बेमानी हो गई हैं। यहां तक कि मूलभूत अधिकारों को लेकर भी वक्त गुजरने के कारण बहुत-सी विसंगतियां पैदा हो गई हैं जो संविधान बनाते समय नहीं थीं। मौलिक अधिकार, समानता का सिद्धांत, धर्म के अनुसार आचरण, आरक्षण व्यवस्था, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव जैसी बहुत-सी बातें हैं, जिन पर नए सिरे से विचार करना ज़रूरी है।
परिवर्तन कैसे हो?
जब ऐसा है तो क्या इसमें कोई बुराई है कि संविधान में कही गई बहुत-सी ऐसी बातें जो वर्तमान समय से मेल नहीं खातीं, उन्हें बदलने की दिशा में काम किया जाए? बेहतर रहेगा कि एक ऐसी संवैधानिक पीठ का गठन किया जाए जिसमें सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि हों, सामाजिक संगठनों के गणमान्य व्यक्ति हों और समाज के वे लोग हों जिन्होंने किसी भी क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए हों। इनमें वैज्ञानिक, व्यापारी, व्यवसाय करने वाले, अर्थशास्त्री, नौकरीपेशा, शिक्षा, खेल और उन सभी चीज़ों से जुड़े लोग हों, जो वर्तमान की आवश्यकताएं हैं। यदि ऐसा हो तो जब हम संविधान का अमृत महोत्सव मना रहे हों तो समय की ज़रूरत के अनुसार संविधान में कुछ वांछित संशोधन किये जा सकते हैं।