कांग्रेस के समय साम्प्रदायिक राजनीति की शुरुआत कैसे हुई ?



पिछले अंक में मैंने प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री रजनी कोठारी की उस भविष्यवाणी की चर्चा की थी जो उन्होंने अस्सी के दशक के मध्य में की थी अर्थात, उस समय जब भारतीय जनता पार्टी की संसद में उपस्थिति घट कर दो सीटों तक रह गई थी। प्ऱोफेसर कोठारी के ही साथी धीरूभाई शेठ ने अस्सी के ही दशक में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक चेतना के जड़ पकड़ लेने के परिणामों पर उंगली रखी थी। उनका कहना था कि लोकतांत्रिक राजनीति अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद की प्रतियोगिता बन गई है। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक चेतना के जड़ पकड़ते ही लगेगा कि जैसे सेकुलरवाद का काम पूरा हो गया। होता यह है कि अल्पसंख्यक समुदायों को उनके नेताओं और प्रवक्ताओं के अल्पसंख्यक अधिकार आयोग की सदस्यता या विधायक व सांसद के रूप में विनियोग के ज़रिये निष्क्रिय बना दिया जाता है। बहुसंख्यक/अल्पसंख्यक चेतना को पानी देने वाली इस राजनीतिक रणनीति का बड़ा अच्छा उदाहरण इंदिरा गांधी का पंद्रह सूत्रीय कार्यक्रम है। इस पंद्रह सूत्रीय कार्यक्रम में अल्पसंख्यकों लिए हर स्तर पर ढेर सारे प्रावधान हैं : ‘कज़र्ों के लिए, आवास के लिए, शिक्षा के लिए आदि, लेकिन यह कार्यक्रम इन वायदों को न तो सांविधिक बनाता है, और न ही राज्य के लिए बाध्यकारी। प्रतीत यह होता है कि अगर मुसलमानों को किसी तरह की शिक्षा मिल रही है तो वह या तो इंदिरा गांधी की मेहरबानी के कारण है, या फिर किसी अल्पसंख्यक नेता के जुझारूपन के कारण है। इसका कारण एक नागरिक के रूप में मुसलमानों का वह अधिकार नहीं है जिसके तहत वे समता के अधिकार की दावेदारी कर सकते हैं। इस माई-बाप सरकार के नज़ारे में पर्दे के पीछे की राजनीति करने और अल्पसंख्यक समुदायों की रहनुमाई करने का पूरा मौका होता है।’ धीरूभाई की दलील की ़खास बात यह थी कि वह साम्प्रदायिकताओं की इस होड़ को राज्य द्वारा मुहैया कराये गए कम्युनलिज़म के लाइसेंस के रूप पेश करते थे। 
धीरूभाई शेठ ने इस समस्या पर एक बार फिर उस समय रोशनी डाली जब कांग्रेस ने लगातार दूसरी बार 2009 का लोकसभा चुनाव जीत कर रामभक्तों को लम्बे वनवास में धकेल दिया था। भाजपा की यह पराजय पिछले चुनाव से कहीं ज़्यादा बड़ी थी, लेकिन धीरूभाई ने सेकुलरवाद की जीत के उत्सव में भाग लेने से इन्कार करते हुए दिखाया कि इसके बावजूद हिन्दुत्ववादी शक्तियों का प्रभाव-क्षेत्र लगातार बढ़ रहा है, और इसका कारण है राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी राजनीति में टिके रहने के लिए हिन्दुत्व के मुकाबले एक ऐसा विमर्श खड़ा करना जो अंतत: हिन्दुत्व को ही मज़बूत करने वाला साबित हुआ है : ‘जो प्रति-विमर्श उभरा, वह हिन्दुत्ववादी आंदोलन द्वारा अन्य (अल्पसंख्यक) धार्मिक समुदायों और उनके सांस्कृतिक अधिकारों-अस्मिताओं के लिए पैदा किये गए खतरे की शब्दावली में रचा गया था। ... प्रभावी रूप से सेकुलर विमर्श संकीर्ण चुनावी म़ौकों के साथ बंध कर रह गया। हिन्दुत्व विरोधी और अल्पसंख्यक समर्थक मुहिम राष्ट्रीय पैमाने पर चलाई गई जिससे विमर्श का विस्तार सेकुलर पदावली में न हो कर प्रति-साम्प्रदायिक पदावली में हुआ। इस प्रति-विमर्श ने भाजपा को चुनावी दृष्टि से निशाना बनाने में तो सफलता हासिल की, पर इस कामयाबी से उस राष्ट्रीय-सेकुलर स्पेस में विमर्श की वापसी नहीं हो सकी जिसके भीतर पहले हिन्दू राष्ट्रवाद से प्रभावी ढंग से निबटा जाता रहा था। ... अगर प्रति-विमर्श ने भाजपा द्वारा लगाए गए छद्म-सेकुलरवाद के आरोप से आमने-सामने मुठभेड़ करते हुए उसे सच्चे सेकुलरवाद की अपनी दावेदारी को बुलंद करने की चुनौती दी होती, तो ‘सेकुलर’ पार्टियां सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीति के सेकुलर विरोधी और राष्ट्र-विरोधी किरदार का पर्दा़फाश कर सकती थीं। चूँकि ऐसा नहीं किया गया, इसलिए प्रति-विमर्श ने सेकुलर तटस्थता के उसूल को गायब करने की हद तक मंद कर दिया।’ 
धीरूभाई की निगाह में चुनाव की ़खातिर चल रही अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक साम्प्रदायिकताओं की यह प्रतियोगिता आने वाले बहुसंख्यकवादी संकट की पूर्व-घोषणा थी। उन्होंने अपने विश्लेषण में सर्वेक्षणगत आंकड़ों का भी इस्तेमाल किया और विमर्श के स्तर पर भी तत्कालीन हालात को एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखा। आंकड़ों के स्तर पर उन्होंने ध्यान दिलाया कि कांग्रेस ने सीटें ज़रूर ज़्यादा जीतीं, लेकिन उसके चुनावी समर्थन में आनुपातिक रूप से उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि संविधान द्वारा स्वीकार किये गए व्यक्ति के बुनियादी अधिकारों और समुदायों के सांस्कृतिक और जातीय अधिकारों को बुलंद करते हुए भारतीय राज्य ने अपने साथ समुदायों के संबंधों को नये सिरे से परिभाषित करने के ज़रिये भारतीय लोकतंत्र को एक टिकाऊपन और निरन्तरता प्रदान की थी, लेकिन नयी परिस्थितियों में इस विमर्श का स्थान एक नये तरह का बहुलतावादी विमर्श लेता जा रहा है जिसके तहत सामुदायिक हितों और अस्मिताओं ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर अपना प्रभुत्व जमा लिया है। 
धीरूभाई की मान्यता के अनुसार यह समस्या भी लोकतंत्र को कुल मिला कर ़फायदा पहुंचा सकती थी अगर सामुदायिक आवेगों और धार्मिक-सांस्कृतिक संकीर्णताओं के बावजूद राजनीतिक शर्तों पर हुए गठजोड़ों के ज़रिये इन समुदायों के व्यक्तिगत सदस्यों की प्राथमिकताएं सेकुलर धरातल पर अपना विस्तार पातीं। लेकिन हुआ कुछ और। अपनी एक अन्य रचना में धीरूभाई ने इस सिलसिले का अधिक स्पष्ट और सुग्राह्य ़खाका खींचा है। उन्हीं के शब्दों में : ‘पहचान की राजनीति करते हुए हमने हिन्दू, मुसलमान, सिख और ईसाईर् को अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की इकाई बना दिया है। यह परिघटना पिछले बीस वर्षों में ज़्यादा मज़बूत हुई है। मैं इस परिघटना को अनुज्ञप्त साम्प्रदायिकता  (राज्य द्वारा दिया गया कम्युनलिज़म का लाइसेंस) कहता हूँ। इसके तहत एक सामान्य नागरिक से ज़्यादा किसी धार्मिक समुदाय के सदस्य होने को महत्व मिलता है। उसकी पहचान और अधिकार धार्मिकता के आधार पर तय होते रहे हैं। इस दौरान यह चीज़ राज्य की नीति के तौर पर प्रतिष्ठित होती गयी है। राज्य साम्प्रदायिकता के कुछ प्रकारों को अनुमति प्रदान करने लगा है। यह एक ऐसा इतिहास रहा है जिसे आप जिस तरह चाहे पढ़ सकते हैं। अगर हम इस बात को मानते हैं तो फिर हिंदू-अधिकारों का आग्रह नहीं ठुकरा सकते। हिन्दुत्व के कर्ताधर्ता यही तो चाहते हैं कि सारे हिन्दुओं को एकजुट करके उनके अधिकारों की बात की जाए।’ 
अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए धीरूभाई ने कहा, ‘असल में हर किस्म के अधिकार व्यक्ति के लिए हैं जो नागरिक है, लेकिन राजनीति ने नागरिकों को पार्श्व में धकेल दिया है। उसने नागरिकों को बेचेहरा करके उनकी जगह समूहों को प्रतिष्ठित कर दिया है। पहले चरण में यह प्रक्रिया जाति पर आधारित थी। जाति का उल्लेख मैं बहुलता या पिछड़ेपन के अर्थ में कर रहा हूँ। वह धर्म आधारित साम्प्रदायिकता की भांति उतनी ़खतरनाक नहीं हो सकती क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जातिवाद पर राजनीतिक नियंत्रण बना रहता है तथा जातिवादी राजनीति बृहत्तर लोकतांत्रिक राजनीति में ही समाई रहती है। जातिगत वि-नागरिकीकरण से बढ़ कर इंदिरा गाँधी के काल से ले कर इस बीच ये धार्मिक समूह हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाईर् देश की बुनियादी अधिकार-धारक इकाइयों में रूपांतरित हो गये हैं। इसके कारण हिन्दुओं में एक प्रतिक्रिया पैदा हुई कि अगर बाकी धार्मिक समूहों को अमुक अधिकार है तो वह हमारे पास क्यों नहीं होना चाहिए। इस तरह जब राष्ट्रवाद और प्रातिनिधिक लोकतंत्र एक दूसरे से अन्योन्यक्रिया करते हैं तो एक पहचान की राजनीति आकार लेती है जो संविधान को पीछे धकेल देती है।’
 नागरिकों की जगह राजनीतिक प्रतियोगिता में समूहों/समुदायों की प्रतिष्ठा के परिणाम धीरूभाई के मुताबिक कई तरह के और लोकतंत्र के लिए हानिकारक निकले। मसलन, समुदायों की कमान एक बार फिर उनके परम्परागत सामाजिक अभिजन के हाथ में चली गई और वे बड़ी चतुराई से न केवल राजनीति के ज़रिये मिलने वाले ़फायदे हड़पने लगे, बल्कि उन्होंने उस समुदाय के धार्मिक नेतृत्व के साथ साठगांठ कर ली। इस तरह ये दोनों मिल कर समुदायों के एकमात्र प्रवक्ता होने का दावा करने लगे। समुदायों के भीतर से उठने वाली पिछड़ों और कमज़ोरों की मांगों को अनसुना करके ़खामोश करने का प्रयास होने लगा। इसके उदाहरण मुसलमान अभिजन द्वारा पसमांदाओं की मांगों की उपेक्षा या मुस्लिम समुदाय के भीतर छुआछूत की परिघटना से इन्कार करने, ईसाइयों के भीतर अनुसूचित जातियों से ईसाई बनने वालों की उपेक्षा, दलित आंदोलन में दलित नारीवादियों की उपेक्षा, या छोटे समुदायों को मिलने वाले लाभों से वंचित रखने में बड़े समुदायों की भूमिका के रूप में देखे जा सकते हैं। 
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।)