जी-20 के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है परमाणु निरस्त्रीकरण


20 देशों के समूह यानि जी-20 में अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, कोरिया गणराज्य, मैक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, तुर्की, ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका और यूरोपीय संघ शामिल हैं। अब तक जी-20 के सात शिखर सम्मेलन हो चुके हैं। पहले की मेजबानी अमरीका ने वर्ष 2008 में की थी। शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता बारी-बारी प्रत्येक देश को मिलती है। इस वर्ष जी-20 का नेतृत्व करने की बारी भारत की है।
वर्तमान में दुनिया गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है। हालाँकि अवसर भी हैं, यदि समूह भारत के नेतृत्व में उचित दिशा और ईमानदार प्रतिबद्धता में आगे बढ़ता है। हमारे पास भारत, यूगोस्लाविया और मिस्र के क्रमश: जवाहर लाल नेहरू, मार्शल टीटो और जमाल अब्देल नासर के नेतृत्व में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नैम) शुरू करने का इतिहास है। नैम में 120 सदस्य देश, 17 पर्यवेक्षक देश और 10 पर्यवेक्षक संगठन थे। यह एक समय में विकासशील देशों का सबसे बड़ा संगठन था। इनमें से अधिकांश देश औपनिवेशवाद से मुक्त हो चुके थे, जिनमें से सभी इन देशों के औपनिवेशिक आकाओं द्वारा अत्यधिक शोषण के परिणाम स्वरूप अपनी आबादी के लिए बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित थे। सामूहिक विकास और समावेशी विकास उनकी आवश्यकता और साझा एजेंडा था। वे किसी भी कीमत पर युद्ध और संसाधनों की बर्बादी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।
इसलिए उन्होंने नाटो या वारसा समझौते से दूर रहने का फैसला किया। उनका मुख्य जोर आर्थिक सहयोग के अलावा परमाणु हथियारों की होड़ और सामान्य निरस्त्रीकरण के खिलाफ था। इसलिए इस समूह ने साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए एक चुनौती पेश की जो विकासशील दुनिया के आर्थिक शोषण के अपने एजेंडे के साथ जारी रहे। भले ही नैम देशों में वैश्विक आर्थिक शक्तियां नहीं थीं, लेकिन उनकी सामूहिकता हमेशा विकसित दुनिया, विशेष रूप से तत्कालीन औपनिवेशिक शक्तियों और नाटो के लिए चिंता का विषय थी। नैम के सामूहिक ज्ञान ने हथियारों की होड़ को रोकने तथा शांति और निरस्त्रीकरण के लिए कई संधियों को बढ़ावा देने में मदद की।
हालांकि समय बदल गया है। वैश्विक राजनीतिक परिवर्तनों के साथ नये प्रकार के गुट सामने आये हैं। जी-20 अत्यधिक विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का मिश्रण है। अमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन बड़ी सैन्य शक्तियां हैं। बीस के इस समूह में छह परमाणु हथियार रखने वाले देश हैं। तो इस विषम समूह में आज दुनिया के सामने आने वाली समस्याओं के लिए अलग-अलग आकांक्षाएं, दृष्टिकोण और समाधान हैं। इन परिस्थितियों में भारत पर एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य की अवधारणा को बढ़ावा देने की बड़ी जिम्मेदारी है, जैसा कि इस वर्ष समूह का नेतृत्व करने वाले भारतीय प्रधान मंत्री द्वारा कल्पना की गयी थी।
हाल ही में आयोजित कोप-27 जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए प्रभावी कदमों के लिए अंतिम निर्णय नहीं ले सकाए भले ही विकासशील देशों के लिए धन जुटाने पर सहमति बनी हो ताकि कार्बन प्रिंट की जांच की जा सके। वैश्विक आर्थिक विषमताएं दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं।
हम देख सकते हैं कि कैसे कोविड महामारी के समय में भी अमीर और अमीर होते गये जबकि निम्न आर्थिक समूह भोजन, आश्रय, दवाओं और यहां तक कि टीकों जैसी बुनियादी ज़रूरतों से भी वंचित रह गये। वैक्सीन असमानता चौंधियाने वाली थी। अफ्रीकी देश सबसे बुरी स्थिति में थे जबकि बड़ी फार्मा कंपनियों ने अरबों कमाये और टीकों की आपूर्ति के लिए कड़ी शर्तें रखीं।
अपेक्षाओं के विपरीत, महामारी का प्रभाव कम होने या उसके दौरान हथियारों की होड़ कम नहीं हुई है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) द्वारा 25 अप्रैल, 2022 को प्रकाशित वैश्विक सैन्य खर्च पर नये आंकड़ों के अनुसार कुल वैश्विक सैन्य व्यय 2021 में वास्तविक रूप से 0.7 प्रतिशत बढ़कर 2113 अरब डॉलर तक पहुंच गया। 2021 में पांच सबसे बड़े सैन्य व्ययकर्ता अमरीका, चीन, भारत, ब्रिटेन और रूस थे, जो कुल व्यय का 62 प्रतिशत था। इसलिए जी-20 के सामने परमाणु निरस्त्रीकरण की सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि उपरोक्त सभी देश इस समूह के सदस्य हैं। जानकारी के अनुसार 2021 में वैश्विक महामारी के दौरान नौ परमाणु-सशस्त्र राष्ट्रों ने अपने परमाणु हथियारों पर 82.4 अरब डॉलर खर्च किया, जिससे वैश्विक खाद्य असुरक्षा बढ़ गयी। नौ देशों ने परमाणु हथियारों पर प्रति मिनट 156,841 डालर खर्च करने को प्राथमिकता दी, जबकि उनके अपने लाखों नागरिक स्वास्थ्य सेवा और भोजन खरीदने के लिए संघर्ष करते रहे। 
सभी परमाणु हथियार सम्मपन्न देशों द्वारा परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल नहीं करने की प्रतिबद्धता की वैश्विक मांग भी है। लेकिन सभी इस पर सहमत नहीं हुए हैं। यूक्रेन में चल रहे युद्ध में रूस और नाटो-अमरीका भी नहीं। भले ही भारत परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल न करने की नीति के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन हाल ही में, अगस्त, 2022 में केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संकेत दिया कि भविष्य की स्थितियों के आधार पर नीति को बदला जा सकता है। हथियारों की होड़ पर सबसे ज्यादा खर्च करने वाला अमरीका अपने बजट को और बढ़ा रहा है। यह भी चिंता का विषय है कि भारत सरकार का हथियार निर्यातक बनने का प्रयास ऐसे समय में हो रहा है जब देश भूख,  कुपोषण, बेरोज़गारी, स्वास्थ्य और शिक्षा में असमानता जैसी कई समस्याओं का सामना कर रहा है। इस संबंध में फिलीपींस को ब्रह्मोस मिसाइल निर्यात करने का निर्णय खतरनाक है। भारत पहले ही निर्यात करने के उद्देश्य से हथियारों के निर्माण के लिए अंतर्राष्ट्रीय समझौतों पर हस्ताक्षर कर चुका है और इस प्रयास में इज़राइल हमारा प्रमुख भागीदार है।
वर्तमान में विशेष रूप से दक्षिण एशिया को परमाणु हथियार मुक्त क्षेत्र बनाने की भी मांग है। भारत के लिए परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए आवाज़ उठाना और परमाणु हथियारों पर निषेध संधि (टीपीएनडब्ल्यू) में शामिल होना वास्तव में एक बड़ी चुनौती है। यह जी-20 के लिए परीक्षा का समय है यदि वह एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य के वांछित लक्ष्य को पूरा करना चाहता है। इन सभी देशों को अपने-अपने देशों में समावेशी विकास, एक सामंजस्यपूर्ण समाज और मानवाधिकारों के सम्मान के लिए अपनी प्रतिबद्धता को भी साबित करना होगा। (संवाद)