बढ़ रही जनसंख्या के लिए अधिक अनाज उत्पादन की आवश्यकता

 

गत वर्ष मार्च में तापमान बढ़ने तथा मौसम अनुकूल न रहने के कारण भारत में गेहूं का उत्पादन 2020-21 के 109.59 मिलियन टन से कम होकर 106.84 मिलियन टन पर आ गया। उत्पादकता 3507 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर रह गई थी। गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगानी पड़ी। गेहूं की कमी रूस व यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू होने के कारण सभी देशों में ही महसूस की जाने लगी। भारत में गेहूं का मूल्य मंडी में बढ़ कर 3000 रुपये प्रति क्ंिवटल से भी अधिक हो गया। बढ़ रही जनसंख्या के दृष्टिगत अनाज के अधिक उत्पादन की ज़रूरत है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना तथा अन्य योजनाओं के अधीन गेहूं गरीबों तथा कमज़ोर श्रेणियों को मुफ्त तथा सस्ता देने के कारण गेहूं के जो भंडार थे, वे भी गत वर्षों के मुकाबले कम हो गए हैं। इससे चिन्ता पैदा हो गई है। वैज्ञानिकों तथा किसानों ने प्रयास किया, समय पर बिजाई की और अधिक उत्पादन देने वाली सफल किस्में जिनका उत्पादन अधिक था, किसानों ने इस्तेमाल कीं।
इससे इस वर्ष 2023 गेहूं का रिकार्ड उत्पादन होने की उम्मीद बंध गई है और आई.सी.ए.आर.-भारतीय कृषि गेहूं एवं जौ के अनुसंधान संबंधी संस्थान के वैज्ञानिकों ने 112 मिलियन टन गेहूं के उत्पादन का अनुमान लगाया है। भविष्य में भारत विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश होगा। अनाज की अधिक आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए गेहूं का विशेष उत्पादन व उत्पादकता बढ़ाने की ज़रूरत है, जो कि असंभव नहीं। वर्ष 1960-61 में अनाज का उत्पादन 115.6 मिलियन टन था और भारत पी.एल.-480 के अधीन अमरीका से अनाज मंगवाता था। सब्ज़ इन्कलाब के बाद उत्पादन तेज़ी से बढ़ा और भारत अपनी ज़रूरत से अधिक अनाज पैदा करने लगा। आत्म-निर्भरता ही नहीं बल्कि गेहूं एवं चावल निर्यात किये जाने लगे। भविष्य की ज़रूरत को देखते हुए उत्पादन और बढ़ाने की आवश्यकता है। इसमें मुश्किल यह है कि भूमि सीमित है और पानी की कमी है। कृषि सामग्री की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। इसलिए अनुसंधान को मज़बूत करके अधिक उत्पादन देने वाली ऐसी किस्में जिनसे पर्यावरण प्रदूषित न हो, किसान मित्र हों, इस्तेमाल करने की आवश्यकता है। 
सब्ज़ इन्कलाब के दौरान और इसके बाद भी किसानों को कीमियाई खाद, कीटनाशक दवाइयों तथा अन्य कृषि सामग्री का अधिक इस्तेमाल करने के लिए ज़ोर दिया जा रहा, जिस कारण उत्पादन में वृद्धि हुई, परन्तु अब इन रसायनों का इस्तेमाल कम करने को महत्व दिया जा रहा है। बढ़ रही जनसंख्या के लिए अधिक अनाज पैदा करके संभावित कमी को दूर रखना ही काफी नहीं, उसके साथ पौष्टिकता को भी ध्यान में रखना पड़ेगा। भारत में दूसरे देशों की तुलना में स्वास्थ्य के पक्ष से कमज़ोर लोग अधिक हैं, क्योंकि उन्हें असंतुलित भोजन पर निर्भर रहना पड़ता है। आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के निदेशक एवं उप-कुलपति डा. अशोक कुमार सिंह कहते हैं कि फसलों की बायोफर्टीफाइड किस्में विकसित की जा रही हैं, जो भोजन में अपूर्णता की कमी को दूर करने में सहायक होंगी। 
एक और बड़ी चुनौती जो कृषि को दरपेश है, वह वातावरण में आ रहे परिवर्तन एवं तपश के संबंध में है। जिस कारण कभी बाढ़, कभी बेमौसमी बारिश, कभी तपश और कभी समय से पहले हिमपात की समस्याएं तथा फिर सूखा एवं पानी की कमी उत्पादन बढ़ाने में बाधा बने रहते हैं। इस कारण फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े-मकौड़े तथा बीमारियां भी अधिक आ रही हैं। पीएयू तथा आईसीएआर-आईएआरआई द्वारा मौसम में आ रहे इस परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए फसलों की योग्य किस्में विकसित करने हेतु खोज की जा रही है, जो भविष्य में सहायक होंगी। धान, बासमती, गेहूं, मक्की, सरसों, सोयाबीन आदि फसलों की ऐसी किस्में विकसित करने पर दोनों संस्थानों द्वारा ध्यान दिया जा रहा है।
वैज्ञानिकों द्वारा विश्व में मान्यता प्राप्त करने वाली बासमती की पूसा बासमती-1121 किस्म में सुधार लाकर पूसा बासमती-1718 किस्म दी गई थी। अब इसके स्थान पर सुधार करके पूसा बासमती-1885 जो बैक्टीरियल लीफ ब्लास्ट (झुलस रोग) तथा ब्लास्ट (भुरड़ रोग) से मुक्त है और जिसे ‘बकाने’ की बीमारी आने की भी कोई संभावना नहीं, किसानों को काश्त के लिए दी जा रही है। किसानों को जो पूसा बासमती-1509 कम समय में पकने वाली किस्म दी गई थी, उसमें संशोधन करके पूसा बासमती-1847 किस्म विकसित की गई है, जो भयानक झुलस व भुरड़ रोगों से मुक्त होने के अतिरिक्त गत वर्ष आज़माइशों में तथा किसानों के खेतों में लगी हुई फसल ‘बकाने’ रोग के बिना ही देखी गई। यही नहीं, बासमती के विश्व प्रसिद्ध ब्रीडर डा. अशोक कुमार सिंह ने पूसा 1401 (पूसा बासमती-6) के स्थान पर बीमारियों का मुकाबला करने की शक्ति रखने वाली पूसा बासमती-1886 किस्म दी है, जो भुरड़ तथा झुलस रोगों से मुक्त है और जिसका चावल बढ़िया तथा उत्पादन अधिक है। इन किस्मों का बीज सीमित मात्रा में किसानों को इस वर्ष उपलब्ध होगा। 
भारत की जनसंख्या विश्व की 18 प्रतिशत है और रकबा 2.4 प्रतिशत है। खेतों का औसत आकार कम हो रहा है, जिससे उत्पादकता प्रभावित हो रही है। भविष्य में बढ़ रही जनसंख्या के लिए अनाज पैदा करने हेतु कृषि अनुसंधानकर्ताओं, किसानों एवं सरकार को कंधे से कंधा मिला कर कार्य करना चाहिए ताकि नये कृषि अनुसंधान से दीर्घकालीन कृषि की प्राप्ति हो सके। किसानों का सम्पर्क कृषि विशेषज्ञों एवं वैज्ञानिकों से बढ़ाने की ज़रूरत है ताकि वे नई तकनीकों तथा अनुसंधानों को अपना कर उत्पादन व उत्पादकता बढ़ा सकें। नये कृषि अनुसंधानों तथा सरकार की योजनाओं की सही जानकारी का न होना भी उत्पादकता बढ़ाने तथा कृषि को किसानों के लिए लाभदायक बनने में एक बड़ी बाधा बनता है।