आवारा पशुओं से परेशान जनता


छोटे कस्बों से लेकर मेट्रो शहरों तक में आवारा पशुओं के कातिलाना कहर की खबरें अक्सर अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं, फिर भी उन पर लगाम नहीं कसी जा रही। अगर कानून कुछ सख्ती दिखाता भी है तो कुछ दिनों तक तो आवारा पशुओं को पकड़ने की मुहिम चलती है लेकिन फिर मामला ठंडा पड़ जाता है। आवारा पशुआें के चंगुल से दिल्ली को छुड़ाने के लिए साल 2005 में दिल्ली हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि आवारा पशु पकड़ो और दो हजार रूपए पाओ। तब कोर्ट ने यह भी कहा था कि राजधानी की सड़क पर आवारा पशुआें को पकड़ने में नगर निगम पूरी तरह नाकाम रहा है। 70 वर्षीय बुजुर्ग रहमत अली नमाज पढ़ने जा रहे थे। उनके घर से कुछ दूर एक सांड ने उन्हें पहले तो टक्कर मारी, फिर अपने सींग उनके पेट में घुसा कर बुरी तरह घायल कर दिया। रहमत अली को अस्पताल ले जाया गया लेकिन इसी बीच उनकी मौत हो गई। उधर वह सांड इतना बेकाबू हो गया कि उसने एक आटोरिक्शा पर हमला कर दिया लेकिन आटोरिक्शा ड्राइवर की होशियारी से वह सांड उसमें सवार लोगों को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाया। 
हमारे देश में आवारा पशुओं वाली समस्या लाइलाज लगती है, तभी तो आम जनता को आवारा पशुओं से छुटकारा नहीं मिल पाया है। गांव हो, कस्बा हो या शहर, सभी जगह बस स्टॉप, यात्री प्रतिक्षालयों, सड़कों के बीचोबीच और भीड़भाड़ वाले बाज़ारों में आवारा पशु घूमते या फिर आराम से जुगाली करते दिखाई देना आम बात है। कई बार ऐसे हालात बन जाते हैं कि सड़कों पर आवारा पशुओं का भारी जमावड़ा लग जाता है। नतीजतन, वाहन चालकों खासी दिक्कत हो जाती है। कभी ट्रैफिक की समस्या से दो चार होना पड़ता है तो कभी सड़क दुर्घटना भी हो जाती है। 
सवा उठता है कि सरकारी प्रशासन शहरों को आवारा पशुओं से निजात दिलाने में नाकाम क्यों रहता है? क्या वह इसे काम ही नहीं मानता है? हरियाणा के अंबाला शहर का उदाहरण देखते हैं। साल 2013 में वहां के नगर निगम के तब के कमिश्नर शेखर विद्यार्थी ने अंबाला शहर और अंबाला छावनी में आवारा पशुओं की रोकथाम के लिए नगर निगम के अफसरों को कड़े कदम उठाने के आदेश दिए थे। आदेश में कमिश्नर शेखर विद्यार्थी ने कहा था कि आवारा पशुओं के मालिकों से भारी जुर्माना लेकर ही उनके पशुआें को छोड़ा जाए। अगर कोई मालिक अपना पशु छुड़ाने के लिए नहीं आता है तो उसकी नीलामी कर दी जाए लेकिन अफसोस कि कुछ दिनाें के बाद कमिश्नर शेखर विद्यार्थी का वहां से तबादला हो गया और नगर निगम के अफसरों ने इस सिलसिले में कोई कार्यवाही नहीं की। 
उधर, नगर निगम वाले ऐसे आरोपों को सिरे खारिज करते हुए कहते हैं कि जब वे आवारा पशुओं को पकड़ने की मुहिम चलाते हैं तो जनता ही उनके बीच रोड़ा बन जाती है। जुलाई 2013 की बात है। आगरा, उत्तरप्रदेश में नगरनिगम की टीम को आवारा पशुओं को पकड़ना भारी पड़ गया। वहां प्रतापपुरा चौराहे पर टीम ने शहर में आवारा भटकती कुछ गायों को अपनी गाड़ी में लाद लिया। जब टीम के लोग उन्हें लेकर जा रहे थे तो कुछ स्थानीय बाशिंदों ने उनका रास्ता रोक दिया। इसी दौरान उन गायों के मालिक भी वहां आ धमके और वे नगर निगम के मुलाजिमों के साथ हाथापाई करने लगे। 
यही आवारा पशु शहरों में बड़े हादसों के सबब भी बन जाते हैं। गाय, भैंस या सांड ही क्यों, आवारा कुत्ते भी लोगों की नाक में कम दम नहीं करते। बच्चे तो उनके डर से घर से बाहर तक नहीं निकल पाते। अब तो शहरों में बंदरों का खौफ भी देखा जा सकता है। अस्पतालों में बंदरों के काटने के बहुत से मामले सामने आने लगे हैं। दिल्ली में सरकार ने बंदर भगाने के लिए ठेके देकर लंगूर भी बुलाए थे लेकिन बंदर यहां से जाने का नाम नहीं लेते हैं। इस समस्या के लिए सबसे ज्यादा दोषी तो वह जनता है, जो अपने मवेशियों को खुला छोड़ देते हैं। वैसे तो लोग गाय को माता कहते हैं लेकिन जब वह दूध देने लायक नहीं रहती तो उसे जहरीले प्लास्टिक खाने के लिए आवारा छोड़ देते हैं। सच तो यह है कि देश को खूबसूरत बनाने में आवारा पशुओं से जुड़ी समस्याएं बड़ी बाधक बनती हैं जिन पर समय रहते काबू पाने में ही भलाई है। (युवराज)