मर-मर कर जी उठती आत्महत्याएं

 

हमारे चेहरे पर दाग अधिक हैं और उम्र की झुर्रियां कम। देश की सेहत के पैरोकार कहते हैं, अरे चिकित्सा विज्ञान तरक्की कर गया। अब औसत उम्र बढ़ गई, लोग कभी रिटायर नहीं होते। अपनी रिटायरमैंट को वह अपनी ज़िंदगी की दूसरी पारी शुरू करना मान लेते हैं। उनकी पहली पारी अगर काम की जगह आराम या छुट्टियों के दिनों की तलाश में गुज़र गई, तो अब रिटायरमैंट के बाद नई पैंशन तरक करके पुरानी पैंशन बहाल करने के अभियान में गुज़र रही है। जो लोग अपनी नौकरी के दिनों में लोगों की जेब काट उनकी फाईलों को चांदी का पहिया लगाने की मांग करते रहे, वही अब महंगाई भत्तों की किस्तों से लेकर पुरानी पैंशन बहाल कर देने के मांग अभियान को उत्साह दे अपना नेता हो जाने का रास्ता हमवार कर रहे हैं।
वैसे पुरानी पैंशन की बात तो यूं ही चली आई, यह पराली जलाने के विरोध से लेकर कच्ची आसामियां पक्की करने की कोलाहल भरी मांग तक कुछ भी हो सकती है। इससे आगे बढ़ें तो अचानक सड़क पर धरना किस बात पर लग जाएगा कुछ पता नहीं चलता। हमें तो लगता है शिकायत न निवारण होने के नाम पर धरना पहले लगा दिया जाता है, शिकायत बाद में तलाश ली जाती है। चीखते चिल्लाते लोग मोबाइल टावर पर पहले चढ़ जाते हैं। हर जीवन में इतनी विसंगतियां हैं, उनमें से किसी को भी केन्द्र बना इर्द-गिर्द जमा होते लोगों को कहते हैं ‘मेरी ओर ध्यान करो, नहीं तो शहीद होकर अपनी शहादत तुम्हारे नाम कर जाऊंगा।’ अनुभव बताता है मोबाइल टावर चढ़े लोगों में से बहुत कम अपनी बात पूरी करके इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर गये, अधिकतर तो अनुवय विनय के बाद टावर से उतर ही आएं। ज़ेरे गौर है कि इनमें से बहुत कम लोगों पर आत्महत्या का प्रयास करने का मुकद्दमा चला।
लेकिन भला आत्महत्या का प्रयास करने की ज़रूरत ही क्या है? प्रतिदिन आपका एक न एक विश्वास आदेश या शिक्षक आत्महत्या कर लेता है। जिस पर आदमी धूल भी नहीं झाड़ता और फिर खड़ा हो जाता है, एक और आत्महत्या के लिए।
शिक्षा संस्थानों में मिलती डिग्रीयों ने आत्महत्या कर ली है क्योंकि ज़िदगी के बाज़ार में इनकी कोई कीमत नहीं रही। क्योंकि आजकल विदेश जाने का वीज़ा बनाने के लिए बैंड बटोरने की दौड़ लगी है। अपेक्षित बैंड नहीं मिलते तो चतुर सुजान कुकरमुत्तों की तरह खड़े हो जाते हैं जो भरोसा देते हैं कि आपको अपेक्षित बैंडों के बिना ही सात समुद्र पार पहुंचा देंगे। अमरीका पहुंचा देने का वायदा करके आपका बिस्तर बंधवाते हैं और वे सात कठिनाइयां झेल कर देश की सरहद पार करते हैं, तो अपने आपको म्यांमार में पाते हैं। वहां आपको इन्हीं एजैंटों के कारिन्दे खलनायक बने नज़र आते हैं, जो आपके फरज़न्द को बंधक बना आपसे फिरौती की मांग करते हैं। ज़मीन बेचकर बच्चा सरहद पार करवाया, अब उसकी जान बचाने के लिए क्या अपना तन बेचकर इस मांग को पूरा करें? तो रातों रात विदेशी करंसी के बलबूते करोड़पति हो जाने का सपना दम तोड़ गया। अब यह वापसी का रास्ता तलाश रहा है कि किसी प्रकार वापिस जा कह सके। ‘पहुंची वहीं पर खाक जहां का खमीर था।’ और अपनी इस एक और आत्महत्या का शोक मना लें। एक और इसलिये कहा, क्योंकि इससे पहले नये उभरते शिक्षा संस्थानों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि उनके पास परिसर हैं, छात्रों का दाखिला नहीं। वे सब तो आर्लेट अकादमियों के बाहर कतार लगा खड़े हैं और किसी प्रकार इस देश से इन डिग्रियों से छुटकारा पा जाना चाहते हैं।
छुटकारा पाने की बात कहते हो आजकल युवा होती पीढ़ी को न जाने किस-किस से छुटकारा मिल गया। परीक्षाओं से छुटकारा मिल गया, क्योंकि महापुरुषों ने अपने बनाये प्रश्न पत्रों के वैकल्पिक उत्तरों में सही उत्तर स्वयं ही बोल्ड करके छाप दिए। पहले नकल व्यक्तिगत प्रयास का करिश्मा होती थी, अब यही इतने संगठित रूप से होने लगी, कि बाकायदा नकल माफिया उभर आया। जो हज़ारों अभागे इनका शिकार हो गये, उन्हें मेहरबानी मिली कि ये परीक्षाएं तो नकल माफिया का शिकार हो गईं। आप पुन: परीक्षा दे दीजिये, आपसे दुबारा फीस नहीं लेंगे।
ऐसे एहसान डिज़िटल दुनिया ने न जाने कितने और क्षेत्रों में कर दिये हैं। किंजल आया तो उसने पुस्तक संस्कृति को मौत दे दी और गुगल ने अपने परोसे हुए जवानों के साथ शोध और अध्यवसाय में जाने गये तथ्यों को। लेकिन इन पत्तों पर तकिया लगाओगे तो वे हवा भी देने लगेंगे। अभी नई खबर आई है कि गुगल भी गलत जवाब परोसने लगे। उनका नवीनीकरण नई जानकारियों से करने की ज़रूरत थी, वह हुआ नहीं और अब उनके वासी उत्तर इस शार्ट कट हथेली पर सरसों जमाने वाली संस्कृति का बंटाधार कर रहे हैं और बिना मेहनत विद्वान कहला जाने का सपना भी यूं आत्महत्या कर लेता है। 
लेकिन हर पल धरती इन आत्महत्याओं से बचना है तो फज़र्ी हो जाएं। नया सर्वेक्षण बताता है कि देश में न जाने कितने तथाकथित विश्वविद्यालय उबर आये जो नीचे से लेकर ऊपर तक हर डिग्री बेच देते हैं और बहुत से निरक्षर भट्टाचार्य इनकी माला अपने गले में पहने गर्वित हो रहे हैं। कुछ लोग तो इस फर्जीवाड़े के बल पर विदेश भी पहुंच गये। अब इनकी कुमुक अलग-अलग देशों से वापिस लौटाई जा रही है, क्योंकि उनके अपने देश में ऐसे फज़र्ी लोगों की पहले ही कमी नहीं, भला उन्हें हमारे यहां से आयात करने की क्या ज़रूरत है?