विपक्ष की रणनीति को प्रभावित करेंगे कर्नाटक के चुनाव परिणाम

2024 के लोकसभा चुनाव में लगभग एक साल से भी कम समय बचा है। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की कांग्रेस सहित बड़ी संख्या में पार्टियों के साथ विपक्षी एकता बनाने की सकारात्मक बातचीत के बाद अब इस साल जून में होने वाली भाजपा विरोधी पार्टियों की अगली बैठक पर ध्यान केंद्रित हो गया है।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे 13 मई को आने हैं जिस पर पूरे देश की नज़र होगी, क्योंकि इसके परिणाम प्रत्येक विपक्षी दल की चुनावी रणनीति को प्रभावित करेंगे। यदि कांग्रेस अपने दम पर विधानसभा में बहुमत हासिल करती है तो अगले विपक्षी शिखर सम्मेलन के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर उसकी भाजपा के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में सौदेबाजी की शक्ति बढ़ेगी। एक नया राजनीतिक वातावरण तैयार होगा, जो भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों को भाजपा के खिलाफ  आने वाले चुनावी रण में कांग्रेस की भूमिका के प्रति अधिक अनुकूल बनायेगा। परन्तु यदि विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा कर्नाटक में अपनी सत्ता बरकरार रखने में सफल होती है तो यह न केवल भाजपा के खिलाफ  कांग्रेस की जबरदस्त ताकत के लिए एक बड़ा झटका होगा, बल्कि इस साल के अन्त में होने वाले राज्यों के चुनाव में पार्टी के अभियान के प्रति उत्साह पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। कर्नाटक चुनाव का तत्काल सीधा प्रभाव मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में महसूस किया जायेगा।
अब आते हैं विपक्षी एकता की संभावनाओं पर। क्या हो सकता है इसका स्वीकार्य सूत्र। कई टीकाकारों ने अलग-अलग दृष्टिकोण सुझाए हैं। नवीनतम सूत्र कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने सुझाया है, जिन्होंने एक अंग्रेज़ी समाचार पत्र में अपने कॉलम में ‘कार्डिनल रूल’ (बाध्यकारी नियम) को रेखांकित किया है, जिसे विपक्षी एकता मंच (ओयूपी) पर आने वाले सभी दल स्वेच्छा से मानें। इसके तहत सम्बद्ध राज्य में अग्रणी पार्टी अधिसंख्य सीटों पर चुनाव लड़े, तथा यह उसकी ज़िम्मेदारी होगी कि सीट विशेष पर जीत की क्षमता वाली अन्य पार्टियों को भी सीटें दे। 
परन्तु यह नियम राज्य स्तर पर लागू करने योग्य नहीं होगा, क्योंकि प्रत्येक पार्टी अपने संबंधित आधार की रक्षा करने में रुचि रखती है और यह पता लगाना मुश्किल होगा कि कौन-सा उम्मीदवार संबंधित सीट जीतने से सबसे अधिक क्षमता रखता है। 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम के आधार पर भाजपा के खिलाफ  सर्वाधिक मज़बूत विपक्षी पार्टियां अभी भी सहमत हो सकती हैं, लेकिन चिदंबरम के फार्मूले को लागू करने पर पूरी तरह से अराजकता हो जायेगी। पूर्व वित्त मंत्री ने अपना सुझाव पूरे विपक्ष के बजाय कांग्रेस के नज़रिए से दिया है। कांग्रेस को केरल और पंजाब सहित अधिक राज्यों में प्रमुख पार्टी की भूमिका दी गयी है, जो राज्य स्तर पर राजनीतिक वास्तविकता के विपरीत है।
आइए नज़र डालते हैं 2019 के लोकसभा चुनाव से निकले कुछ बुनियादी तथ्यों पर। कांग्रेस 52 सीटों पर जीती थी और 209 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी। इसलिए कांग्रेस को लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 261 सीटों की मांग करने का अधिकार है। हालांकि, कांग्रेस ने उन 374 सीटों में से 92 प्रतिशत गंवा दी, जिनमें पार्टी ने आमने-सामने की लड़ाई में अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा का मुकाबला किया था। इसके विपरीत क्षेत्रीय दलों ने भाजपा के खिलाफ  अपनी चुनावी लड़ाई में बेहतर प्रदर्शन किया। कांग्रेस की विफलता ने मुख्य रूप से भाजपा को 303 सीटें जीतने में योगदान दिया।
मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, असम, मिज़ोरम, मणिपुर, गुजरात ऐसे राज्य हैं जहां कांग्रेस मुख्य पार्टी है। इन राज्यों में कांग्रेस का अधिकार होगा यह तय करने का कि क्या उन्हें सहयोगियों की आवश्यकता होगी। विपक्षी एकता मंच का ज़ोर यह सुनिश्चित करने पर होना चाहिए कि संबंधित निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा विरोधी वोटों का न्यूनतम विभाजन हो। लेकिन किसी भी विपक्षी उम्मीदवार के जीतने की सबसे अच्छी संभावना के बारे में हमेशा असहमति की संभावना रहती है। इसलिए यदि वार्ता विफल होती है, तो इन राज्यों में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के बीच कुछ मुकाबले हो सकते हैं, इस बात को ध्यान में रखते हुए प्रमुख पार्टी निर्णय लेगी।
पश्चिम बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश और केरल के लिए भी यही सच है। भाजपा को हराने के लिए तृणमूल कांग्रेस बंगाल में अपने दम पर चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस और वाम मोर्चा मिलकर भाजपा और टीएमसी दोनों के साथ लड़ सकते हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी भाजपा की सबसे बड़ी विरोधी पार्टी है। 
जहां तक पंजाब का संबंध है, न तो ‘आप’ और न ही कांग्रेस किसी समझौते पर राज़ी होंगी क्योंकि पंजाब में भाजपा को कोई वास्तविक खतरा नहीं है। ‘आप’ नई लोकसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए पंजाब और दिल्ली से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना चाहेगी। दिल्ली में अगर कांग्रेस को 5-2 के फार्मूले पर राज़ी किया जा सकता है, ‘आप’ के लिए पांच सीटें और कांग्रेस के लिए दो, तो यह काम कर सकता है। लेकिन दिल्ली में दोनों पार्टियों के बीच संबंधों को देखते हुए चुनाव पूर्व गठजोड़ की संभावना कम ही है।
फिर केरल है। यह एक स्पष्ट मामला है। कांग्रेस और वाम लोकतांत्रिक मोर्चा पिछले चुनावों की तरह एक-दूसरे के खिलाफ  लड़ेंगे। भाजपा को राज्य में कोई खतरा नहीं है। 
फिर चार राज्य हैं—बिहार, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और झारखंड  जहां विपक्षी दलों के पास पहले से ही राज्य-विशिष्ट गठबंधन है और वे अपनी सीट-साझाकरण व्यवस्था को सौहार्दपूर्ण ढंग से पूरा करने की स्थिति में हैं। एमवीए से जुड़ी पार्टियों को व्यावहारिकता के साथ सीट समायोजन का कार्य करना होगा। महाराष्ट्र 48 लोकसभा सीटों के साथ 2024 के चुनावों के लिए महत्वपूर्ण है। एमवीए को चुनाव से पहले एकता बनाये रखने के लिए अपने सभी प्रयासों को गति देनी होगी।
संक्षेप में, विपक्षी दलों की अगली बैठक में, जिसे श्री चिदंबरम ने एक तरह का मंच करार दिया है, कुछ मुद्दों पर स्पष्ट समझ होनी चाहिए। ये हैं —एक विपक्षी एकता मंच के नेता के रूप में किसी पार्टी या किसी नेता को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नामित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। दो, चुनावी रणनीति में पूरी तरह लचीलापन होना चाहिए जो एक राज्य से दूसरे राज्य में अलग-अलग होगी। तीसरा, सीटों के बंटवारे पर अधिकतम समझ बनाने की कोशिश की जानी चाहिए, न कि किसी एक ‘अग्रणी पार्टी’ के बैनर तले पूरी एकता। अंतत: यह कि विपक्ष के मोर्चे को अंतिम रूप मई 2024 में चुनाव के नतीजे आने के बाद ही दिया जायेगा। अभी सारा ध्यान भाजपा को चुनाव में हराने और उसकी ताकत को 160 से कम सीटों पर लाने पर होना चाहिए, जो कि उपर सुझायी गयी रणनीति का पालन करने से संभव है न कि श्री चिदंबरम के ‘कार्डिनल रूल’के माध्यम से। (संवाद)