दल-बदल के रोग का उपचार ढूंढना ज़रूरी

कोरोना जैसी भयानक बीमारी पर भारत के चिकित्सा विज्ञानियों और विश्व भर के चिकित्सा विशेषज्ञों की मदद से काफी हद तक नियंत्रण पाया गया है। उसका इलाज मिल गया है। शरीर के रोग का तो इलाज हो गया पर जो भारत वर्ष में दल-बदल का रोग फैल गया है, उसका इलाज आज तक न हो पाया और अब तो ऐसा लग रहा है कि इसका इलाज कभी होगा ही नहीं। 
इस बीमारी के फैलने का भी विशेष मौसम रहता है। जब पूरे देश में या कुछ प्रांतों में चुनाव या उप-चुनाव होते हैं, उससे लगभग दो महीने पहले यह रोग राजनीतिक दलों के वरिष्ठ, विशिष्ट लोगों को अपनी जकड़ में ले लेती है। इसके पीछे कारण क्या है यह सभी जानते हैं, पर इस दल-बदल रोग के रोगी का इलाज कोई नहीं करना चाहता। अगर दल-बदल बंद हो जाए तो बहुत से राजनीतिक दलों की रीढ़ की हड्डी ही कमज़ोर हो जाएगी और सत्ता पाने के चाहवान भी वंचित रह जाएंगे। अधिक से अधिक सत्ता की भूख अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित बनाए रखने की चाह, अपने केवल वर्तमान परिवार को ही नहीं, अपितु आने वाली पीढ़ियों को भी राजनीति की सीढ़ियों पर चढ़ाने के लिए यह दल-बदल किया जा रहा है। 
पूरे देश की बात तो इस समय छोड़ दी जाए, लेकिन पंजाब में केवल एक संसद सीट के लिए चुनाव हुए हैं। इस एक सीट के चुनाव के लिए भी हर पार्टी के शीर्ष नेता ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया। सभी जानते हैं कि इस चुनाव में जो भी संसद सदस्य बनेगा उसका कार्यकाल कुछ महीनों तक ही सीमित है, फिर भी राजनीतिक साख बढ़ाने के लिए चुनाव जीतना ज़रूरी होता है। चुनाव जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी चलते भी हैं और चल भी रहे हैं। अगर ढूंढने निकलें तो कोई ऐसी पार्टी शायद ही मिले जिसके सदस्यों ने दल बदल न किया हो। जिस पार्टी के बल पर जो नेता लोकसभा की सर्वोच्च सीट पर पहुंचे, प्रदेश में मंत्री, मुख्यमंत्री रहे, वर्षों तक राज्य शासन का आनंद लिया वे उसी पार्टी को छोड़कर  दल बदल रहे हैं। वैसे आंध्र प्रदेश में तो उस व्यक्ति ने भी दल बदल लिया जो कभी अविभाजित आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री रहा और पंजाब में उस महानुभाव ने दूसरी पार्टी का झंडा उठा लिया जिसका कभी विरोध करते थे। क्या कोई विश्वास करेगा कि लोकसभा का उपाध्यक्ष बनने वाला व्यक्ति भी दल बदल सकता है। 
यह दल-बदल थोक में भी हो रहा है और शहर के गली बाज़ारों से लेकर केंद्र के गलियारों तक भी इस दल-बदल की गूंज है। जिस राजनीतिक दल के सहारे दुनिया भर में सत्तापति बनकर घूमते रहे, जब वह दल कमज़ोर होने लगता है तो उनके नेता व कार्यकर्ता उसे छोड़ना ही बेहतर समझते हैं।  एक प्रश्न और भी है कि जो नेता दल-बदल करवाते हैं, क्या उन्हें यह विश्वास रहता है कि दल बदलने वाले नेता के साथ उसका वोट बैंक भी साथ आएगा। वैसे यह शरण लेना है किसी को लाभ देना नहीं। ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में देश के लोग इन दल बदलुओं का असली चेहरा पहचान लेंगे और उनका विरोध करेंगे। अगर कोई नेता अपनी पार्टी की देश विरोधी गतिविधियों को देखकर दल बदलता है या जन-विरोधी नीतियों के कारण दूसरी जनहित चिंतक पार्टी में जाता है, तब तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। 
देश की संसद, माननीय सुप्रीम कोर्ट एवं राजनीति के साथ जुड़े बुद्धिजीवियों और राजनेताओं को निवेदन है कि वे दल-बदल के संक्रामक रोग का उपचार करवाएं, अन्यथा लोकतंत्र की जड़ें कमज़ोर होती जाएंगी। संविधान ने तो यह गारंटी दी है कि देश में जनता का राज्य, जनता के लिए, जनता के द्वारा है। आज यह केवल जनता के द्वारा है, क्योंकि मतदान तो जनता करती है, परन्तु राज जनता का नहीं रहता। यह निश्चित है कि अगर दल-बदल के रोग का इलाज न हुआ तो भारत के नई पीढ़ी के जागरूक नागरिक इसके विरोध में अवश्य संघर्ष का रास्ता अपनाएंगे।