हम कैसे तटस्थ रह सकते हैं मणिपुर से

हम बहुत बार घट रही महत्त्वपूर्ण घटनाओं के प्रति भी तटस्थता का व्यवहार दिखाते हैं या फिर तटस्थ रह जाते हैं। चाहे वह घटना भारत के ही एक राज्य में घटी हो। हम अपनी रुटीन से बंधे रहना चाहते हैं और मन में भी किसी बेचैनी का भाव नहीं लाना चाहते, परन्तु सोचा जाये तो यह निर्ममता या तटस्थता हमें कहां ले जाने वाली है? पहली बात तो यह कि यह उदासीनता हमारे संवेदन जगत के लिए ही एक ़खतरा बन सकती है। दूसरे आज हम किसी के लिए फिक्रमंद नहीं हैं तो कल कोई हमारे लिए फिक्रमंद क्यों रहेगा? मणिपुर भी तो हमारे ही मुल्क का एक हिस्सा है। वे भी भारतवंशी हैं। वहां के लोगों ने अपनी प्रतिभा, दक्षता और योग्यता से हमारा दिल जीता है। वे सिविल सेवाओं में हैं, सेना, खेल-कूद, कला-संस्कृति में उन्होंने रुतबा हासिल किया है। देश का मान-सम्मान बढ़ाया है। हमारे अपने होने की उन्हें कौन-सी गारंटी देनी पड़ सकती है?
इस राज्य में पहले भी कुछ ब़ागी गुट पैदा हुए हैं। वे इम्फाल घाटी तथा इसके पड़ोसी ज़िलों में लड़ाई लड़ चुके हैं। 1980 के दशक में यह एक बड़ी चुनौती मान ली गई थी और इस चुनौती का सामना करने के लिए सेना के एक पूरे डिवीज़न को तैनात कर दिया गया था। इसे क्या भारत की सम्प्रभुता के खिलाफ एक चुनौती माना जाना चाहिए या फिर तनावविद् को अलगाववाद की जगह साम्प्रदायिक या जातीय मसले की वजह से पैदा हुआ तनाव?
क्या इतिहास अपने को दोहरा रहा है? आज फिर मणिपुर जल रहा है और हमें इसका धुआं तक दिखाई नहीं दे रहा। हमारे समाचार-पत्र हो सकता है इस तनाव को प्रथम पृष्ठ की ़खबर भी नहीं मानें। हमें दरअसल यह कोई दूर का मामला लगता है? या अपने से काफी परे, जिस पर विचार मंथन ़गैर-ज़रूरी लगता है। ़खबरिया चैनल आंख मूंद सकते हैं कि क्या करना है? इसमें भला दर्शकों को रुचि क्यों होगी? एक छोटे-से राज्य का तनाव प्राइम टाइम का हिस्सा क्यों होगा भला? कर्नाटक चुनाव का नतीजा काफी अहम था। चुनावी परिणाम और हार-जीत का विशलेषण प्रमुख था। इसी पर ज्ञानी लोग भविष्य को टटोलने में सारी प्रतिभा खर्च कर रहे थे। तब मणिपुर में अदला-बदली विकट रूप धारण कर रही थी, जिसकी तरफ ज़रा भी तवज्जो नहीं दी गई। आज मैतेई जनजाति के किसी भी व्यक्ति या आदिवासियों को आप इम्फाल घाटी के शरणार्थी शिविरों से बाहर या पहाड़ी ज़िलों में शायद ही देख पायें। यह मात्र काल्पनिक फतवा नहीं है कि पिछले कई दशकों में हमारे किसी भी राज्य में इस तरह की आपसी सहमति से पूर्ण ‘जातीय सफाये’ का कोई उदाहरण मुश्किल से ही मिलेगा। दस कुकी विधायकों ने केन्द्रीय मंत्री को जो संयुक्त ज्ञापन भेजा है उसमें ‘जातीय सफाया’ और बंटवारा दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है। इन दस कुकी विधायकों में सत्तारूढ़ भाजपा के सात और सहयोगियों के तीन विधायक शामिल हैं। दबंग मैतई ग्रुप के अपने तर्क हो सकते हैं। वे कह सकते हैं कि कुकी नहीं बल्कि वे भुक्तभोगी हैं। लेकिन इस तरफ ध्यान कम लोगों का ही जाएगा कि वे दोनों समान और दर्दनाक तरीके से पीड़ित हैं। मणिपुर में इंटरनेट सेवाएं पंद्रह दिनों से बंद है। आज हम लोग इंटरनेट को जीवन में इतनी जगह दे चुके हैं कि एक दिन भी इंटरनेट के बिना नहीं रह पाते। फिर उनकी दशा क्या होगी? आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में बेहद इज़ाफा हुआ है। क्या वहां सरकार नाम की चीज़ अपना दायित्व निभा रही है? ऐसे कष्टदायक हालात में कहां कुछ कहा जा सकता है? वहां जातीय विभाजन गहरा हो चुका है। राज्य सचिवालय में किसी कुकी अफसर को खोज पाना कठिन हो चुका है, पुलिस महानिदेशक पाओतिनमांग कुकी हैं परन्तु वह कुछ नहीं कर पा रहे, और इसके लिए उन्हें कसूरवाद भी नहीं माना जा सकता। राज्य में चार मंत्रियों भाजपा अध्यक्ष सहित दिल्ली बुलाया गया। वे सभी मैतेई हैं। कुकी लोग खुद ही दिल्ली पहुंच गये। इनकी मांग थी कि अपनी ही राज्य सरकार से मुक्त कर दिया जाये। अलग प्रशासन मिलना चाहिए। 
किसी अन्य भारतीय राज्य में यह सब इस तरह से नहीं हुआ है, परन्तु क्या हम इस सब को जानते समझते हैं। जानने समझने की कोशिश भी कर रहे हैं? मणिपुर की सत्ता मैतेइयों के हाथ में ही रही है। जब पिछले तीन सप्ताह में 73 भारतीय मारे जाते हैं तब सोचना तो पड़ता ही है।