महिलाओं की सुरक्षा को दरपेश चुनौतियां

देश की राजधानी दिल्ली में विगत दिवस घटित हुई एक अपराध घटना जहां अपने आप में अत्यन्त वीभत्स और निर्ममतापूर्ण प्रतीत होती है, वहीं इसने महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों की गम्भीरतापूर्वक रोकथाम हेतु सरकारों, प्रशासनिक तंत्र एवं समाज के रहनुमाओं की आंखें खोलने हेतु एक बार फिर अवसर प्रदान किया है। इस एक घटना ने राजधानी की कानून व्यवस्था की पोल भी खोल कर रख दी है। यह घटना कथित लव जेहाद का चेहरा भी प्रतीत होती है।
यह घटना इसलिए भी और अधिक वीभत्स हो जाती है कि हत्यारे ने एक निरीह बालिका पर न केवल बड़े चाकू से 20 से अधिक वार किये, अपितु उसकी मृत्यु के बाद भी, उसके सिर को कुचलने हेतु उस पर पत्थरों से प्रहार किये। उसके भीतर की पाशविकता का अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि जाते-जाते भी उसने मृतका के शरीर को ठोकरें भी मारीं। इस घटना का एक बेहद नकारात्मक पक्ष यह है कि भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र में अनेक लोगों की मौजूदगी में हुई इस घटना में किसी ने भी बालिका को बचाने अथवा हत्यारे को पकड़ने की रत्ती भर कोशिश नहीं की।  महिलाओं के विरुद्ध आपराधिक हिंसा को लेकर वैसे तो देश का कोई हिस्सा भी सुरक्षित नहीं दिखता है, किन्तु देश का दिल कही जाने वाला दिल्ली प्रदेश इस हेतु काफी बदनामी अर्जित कर चुका है। आज से कुछ वर्ष पूर्व इसी राजधानी क्षेत्र में निर्भया हत्या कांड के प्रकरण ने न केवल पूरे राष्ट्र को एकबारगी दहला कर रख दिया था, अपितु विदेशों में भी इस घटना ने जहां कहीं भी भारतीय बसते हैं, वहां उनके हृदयों को आहत किया था। नि:संदेह इस घटना की वीभत्सता ने तब की केन्द्र सरकार को भी विवश किया था, कि महिलाओं के विरुद्ध हिंसक अपराधों की सम्भावना को कम करने और कि समाज में उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित बनाने हेतु समुचित उपाय किये जाएं। इसी घटना के दृष्टिगत तब देश की संसद ने ऐसे कानून भी पारित किये थे जिनके अन्तर्गत न केवल महिलाओं की सुरक्षा हेतु कुछ अतिरिक्त उपाय किये थे, अपितु ऐसे अपराधों के प्रति दंड-प्रावधान भी कड़े किये गये थे। हालांकि इन उपायों के बावजूद न तो महिलाओं के विरुद्ध अपराध कम हुए हैं, न ही उनकी सुरक्षा हेतु किये गये अतिरिक्त उपाय ही कोई अधिक कारगर सिद्ध हो पाये हैं। देश और दिल्ली में महिलाएं आज भी उतना ही असुरक्षित हैं जितना कि वे कल थीं। आज भी उन पर होने वाले अपराधों का वेग कम होते दिखाई नहीं दे रहा। दिल्ली की यह ताज़ा घटना इस तथ्य का जीता-जागता प्रमाण प्रतीत होती है।
महिलाओं के विरुद्ध हिंसा अथवा अन्य किसी भी प्रकार के अपराधों की सम्भावना के विरुद्ध अक्सर केन्द्र की सरकार और प्रदेश की सरकारें कुछ न कुछ उपाय करती रहती हैं, किन्तु इस सब कुछ के बावजूद ऐसी हिंसा और ऐसे अपराधों पर बड़ी लगाम कभी नहीं लग सकी। समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग और क्षेत्र रहा हो, जहां महिलाएं पुरुषों की हिंसा का शिकार न होती हों। शिक्षा का मंदिर कहे जाने वाले स्कूल-कालेज भी इस मानसिकता से मुक्त नहीं दिखे हैं। महिलाएं अपने कार्य क्षेत्र में भी यौन-हिंसा का शिकार होती रही हैं। वर्ष 1992 में राजस्थान के महिला विकास परियोजना विभाग में कार्यरत एक महिला के साथ चार लोगों द्वारा दुष्कर्म किये जाने के बाद वर्ष 2007 में एक ऐसा कानून बनाया गया जिसने कार्य क्षेत्र में महिलाओं की सुरक्षा हेतु पर्याप्त अधिकार दिये थे। इसके विपरीत हाल के वर्षों में ऐसे अपराधों की संख्या और इनमें प्रकट हुई पाशविकता चौंकाने जैसी है। पिछले वर्ष दिल्ली के साकेत में एक युवक द्वारा अपनी लिव-इन-पार्टनर की हत्या करके उसके शरीर के पचास से अधिक टुकड़े किये जाने की घटना के बाद, अपराधियों द्वारा कोई सबक लिए जाने के विपरीत, इस प्रकार की अन्य अनेक घटनाएं भी प्रकाश में आईं। ऐसी ताज़ा घटना इसी महीने हैदराबाद में हुई जहां एक कारोबारी ने अपनी किरायेदार महिला की हत्या करके उसके शरीर के कई टुकड़े किये। पंजाब की धरती भी ऐसे अपराधों से कई बार लज्जित हुई है। लुधियाना के दो युवकों को एक नाबालिग बच्ची के साथ दुष्कर्म के बाद उसकी हत्या किये जाने के अपराध में अदालत ने उन्हें फांसी की सज़ा दी है। 
देश की सरकारों द्वारा समय-समय पर बनाये गये कानूनों के बाद हम महसूस करते हैं कि समाज के किसी भी क्षेत्र में महिलाएं आज भी सुरक्षित नहीं हैं। नि:सन्देह इस हेतु देश और समाज की ऐसी गंदी सोच को बदलने के लिए व्यापक स्तर पर परिवर्तन एवं सुधार की प्रबल आवश्यकता है। खास तौर पर समाज की बेटा चाहने वाली पुरुषवादी मानसिकता को बदला जाना चाहिए। बेशक देश की नारी ने परिवर्तनशील समाज में अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए बड़ी सीमा तक अपनी सोच में परिवर्तन किया है, और कि यह परिवर्तन उसके क्रिया-कलापों से प्रदर्शित भी हुआ है, किन्तु अभी भी प्रशासनिक और सामाजिक धरातल पर बड़े बदलावों की ज़रूरत है। कानून के धरातल पर ऐसी मानसिकता वाले अपराधियों के लिए कठोरतम दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए। ऐसे तत्वों के सामाजिक बहिष्कार का आह्वान भी कारगर सिद्ध हो सकता है। भारत में फांसी के दंड को बेशक स्वीकार्य नहीं माना जाता है, किन्तु ऐसे दुर्लभतम अपराध के लिए अदालतों को इस पर अवश्य विचार करते रहना चाहिए। निर्भया के बाद दिल्ली की ताज़ा घटना यही दर्शाती है कि देश की महिलाओं का सुरक्षा के पथ पर कैक्टसों की भांति उग आई अनेकानेक चुनौतियां अभी भी मौजूद हैं जिन्हें उखाड़ फैंकने की आज बड़ी आवश्यकता है।