राजस्थान में नेतृत्व के लिए असमंजस

कांग्रेस पार्टी वर्तमान दौर में गहलोत और सचिन पायलट के बीच चल रही रस्साकशी से परेशान तो ज़रूर है परन्तु पार्टी इसे दिखाना नहीं चाहती। वस्तुपरक नज़रिये से इसका कोई समाधान फिलहाल नज़र भी नहीं आता। आज पार्टी के लिए व्यक्तिगत हितों को कुर्बान करना कठिन होता चला गया है। अगर कोई महत्त्वपूर्ण है तो उसे अपना महत्त्व ज़ाहिर करना पड़ता है। कांग्रेस पार्टी की हार्दिक इच्छा है कि हमें मान ही लेना चाहिए कि राजस्थान में सब ठीक-ठाक है। जो ठीक-ठाक नहीं था उसे ठीक कर दिया गया है। हाल ही में बड़ी सावधानी के साथ फोटो सैशन में कांग्रेस नेता के.सी. वेणुगोपाल ने माइक पर आकर कहा कि विधानसभा चुनावों से पूर्व ही हम सब एक हैं। फोटो फ्रेम में अशोक गहलोत और सचिन पायलट ड्यूटी पर तैनात होने की तरह मौजूद थे। ह़क़ीकत बेपर्दा हो रही है कि चीज़ें वहीं की वहीं हैं। केवल सरपंच का मान रखा गया है। प्रश्न है कि क्या निकट भविष्य में कोई समाधान नज़र आता है? स़ाफ उत्तर है कि नहीं। कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व इससे ज्यादा क्या प्रस्ताव ला सकता था कि अगर वे राजस्थान छोड़ने के लिए राजी होते हैं तो दिल्ली में उन्हें भूमिका दी जा सकती है। उन्होंने इन्कार कर दिया। गहलोत के पास इंतजार का समय कहा था। पत्रकारों के साथ चर्चा में धैर्य के गुण की प्रशंसा की। जाहिर है कि वह अपने नौजवान साथी पर कटाक्ष की मुद्रा में थे।
पायलट को लेकर अफवाहों का बाज़ार गर्म था कि वे कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी खड़ी कर सकते हैं। 31 मई की डैडलाइन भी आकर चली गई। उधर दिल्ली में ‘अटकलें’ लग रही थी कि यह गुज्जर लीडर इन दिनों प्रशांत किशोर से सम्पर्क स्थापित कर रहे हैं जोकि अपनी तरह के रणनीतिकार माने जाते हैं और आजकल बिहार में ज़मीनी स्तर पर आकलन विश्लेषण करते नज़र आ रहे हैं। सुनने में यह भी आ रहा है कि किशोर की सलाहकार फर्म के एक पूर्व कर्मचारी पायलट के साथ विचार-विमर्श कर रहे हैं कि कांग्रेस से अलग होने की वैकल्पिक योजना का प्रारूप क्या और कैसा हो सकता है? उधर कांग्रेस के अधिकतर विधायक गहलोत को ताकत दे रहे हैं। इससे उनकी राजनीतिक स्थिति कमज़ोर नहीं पड़ती। लेकिन पायलट की ब़गावत के सुर उनकी नींद उड़ाने के लिए काफी है। जो चुनाव का चैलेंज सामने है, उसमें एंटी इंकबेंसी एक ऐसा फैक्टर है जिसका लाभ भाजपा ज़ोर-शोर से उठाना चाहेगी और पार्टी इस मामले में एक कदम पीछे है। जिस पर हमला पार्टी के अंदर से सचिन पायलट भी करते जा रहे हैं। परन्तु वक्त कुछ ऐसा है कि पायलट को जल्दी निर्णय की तरफ जाना होगा। 
पहले भी उन्हें आशा थी कि प्रियंका गांधी से किए गए वायदे का कुछ तो लाभ होगा जोकि हो न पाया और उन्हें काफी समय इंतजार में गंवाना पड़ा। बताया यह भी जा रहा कि अपने सुझाव की अनदेखी के बाद प्रियंका को पीछे हटना पड़ा था। कांग्रेस पार्टी को पंजाब के सबक ज़रूर याद होंगे। पंजाब में प्रियंका गांधी नवजोत सिंह सिद्धू को तरजीह देती रहीं। पार्टी में दो सत्ता केन्द्र बन गये। कांग्रेस राजस्थान में ज़रूर सावधान रहेगी और पायलट को खोना नहीं चाहेगी। 
स्थिति इसलिए भी विकट है। गहलोत शायद अंतिम बार ही चुनाव में उतरेंगे। परन्तु किसी भी समझौता की तरफ कदम नहीं बढ़ा रहे हैं। ध्यान सभी का पायलट के विद्रोह पर ही है। गहलोत तो तब भी विद्रोह कर बैठे थे जब पार्टी ने सुझाव दिया था कि वह प्रदेशाध्यक्ष की भूमिका में आ जाएं और राज्य की कमान सचिन पायलट को दे दें।
राजस्थान में भाजपा के लिए असमंजस है। मुख्यमंत्री पद के लिए वसुंधरा राजे ही इकलौता चेहरा हैं। कर्नाटक में हार के बाद यहां भाजपा हारना नहीं चाहेगी। यह भी सिद्ध हो गया कि प्रदेश में मोदी के चेहरे मात्र से चुनाव नहीं जीते जा सकते। भाजपा को राजस्थान में फूंक-फूंक कर कदम रखने पड़ सकते हैं। उनके पास गहलोत-सचिन के बीच का संघर्ष भी एक अवसर है और एंटी इंकबेंसी भी एक अवसर है, लेकिन रास्ता आसान नहीं है। खासकर नेतृत्व को लेकर।