महाराष्ट्र का घटनाक्रम

देश की राजनीति का यह बहुत बड़ा दुखांत रहा है, जब भी केन्द्र में या किसी राज्य में किसी राजनीतिक पार्टी को लोगों द्वारा बहुत अधिक समर्थन दे दिया जाता है, अभिप्राय लोकसभा या किसी राज्य की विधानसभा में जब किसी पार्टी को बहुत ज्यादा सीटें प्राप्त हो जाती हैं, तो उसका व्यवहार तानाशाहों वाला हो जाता है। ऐसी स्थिति में सत्तारूढ़ पार्टियां न केवल लोगों से भेदभाव करती हैं, बल्कि विरोधी पार्टियों के अस्तित्व को खत्म करने की तरफ भी चल पड़ती हैं। विधायकों की खरीदो-फरोख्त करके विरोधी पार्टियों की सरकारें तोड़ कर अपनी पार्टी की सरकारें बनाई जाती हैं और कई प्रकार के झूठे-सच्चे केस बनाकर एजेंसियों द्वारा भी विरोधी पार्टियों के नेताओं को परेशान किया जाता है या दल बदलने के लिए मजबूर किया जाता है।
ऐसा नहीं है कि राजनीति में ऐसा व्यवहार अभी से ही शुरू हुआ है। इसका इतिहास लम्बा और पुराना है। किसी समय देश में कांग्रेस और उसकी प्रमुख नेता श्रीमती इंदिरा गांधी का बोलबाला था। उस समय श्रीमती इंदिरा गांधी का यह प्रयत्न रहता था कि धारा 356 का प्रयोग करके विरोधी दलों की सरकारों को तोड़ दिया जाए या विरोधी नेताओं को लालच के साथ या दबाव डाल कर दल बदलने के लिए मजबूर कर दिया जाए। श्रीमती इंदिरा गांधी के समय में धारा 356 को विरोधी दलों की सरकारों को तोड़ने के लिए प्रयोग करना आम बात थी। उस समय केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के ऐसे व्यवहार के कारण ही देश में राज्यों के लिए ज्यादा अधिकारों की मांग उठी थी।
यदि आज की राजनीति की बात करें तो लगता है कि इतिहास एक बार फिर अपने-आप को दोहरा रहा है। जब से केन्द्र में भाजपा शक्तिशाली होकर उभरी है और देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी बने हैं, उस समय से भाजपा द्वारा भी अलग-अलग राज्यों में दल-बदल करवा कर विरोधी दलों की सरकारें तोड़ी गई हैं और फिर ब़ािगयों की सहायता के साथ भाजपा या उसकी भागीदारी वाले गठबंधन की सरकारें बनाई गई हैं। इस मकसद के लिए ई.डी., सी.बी.आई. और आयकर विभाग आदि केन्द्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग करने के भी आरोप लगे हैं। कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में ऐसा कुछ हो चुका है। गत वर्ष उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में महाराष्ट्र में चल रही महाविकास अघाड़ी गठबंधन की सरकार को गिरा दिया गया था। आरोप लगते हैं कि ऐसा केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के इशारे पर ही हुआ था। पहले एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में ब़गावत करने वाले शिव सेना के ब़ािगयों को गुजरात के शहर सूरत में लाया गया और बाद में उनको गुहाटी भेज दिया गया। गुजरात तथा असम दोनों राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। बाद में एकनाथ शिंदे को समर्थन देकर महाराष्ट्र में भाजपा ने नई सरकार बना दी थी। अब इसी राह पर चलते हुए ही शरद पवार के भतीजे अजित पवार से ब़गावत करवा कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को तोड़ दिया गया। अजित पवार एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार में उप-मुख्यमंत्री बन गये हैं। उनके अतिरिक्त राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से ब़गावत करके आए विधायकों में से आठ विधायकों को मंत्री भी बनाया गया है। उप-मुख्यमंत्री बनने के बाद अजित पवार ने दावा किया है कि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से त्याग-पत्र नहीं देंगे तथा महाराष्ट्र सरकार में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का ही प्रतिनिधित्व करेंगे। यह एक प्रकार से बड़ी दिलचस्प स्थिति उत्पन्न हो गई है। नि:संदेह यह महाराष्ट्र के बड़े तथा वरिष्ठ नेता शरद पवार को बड़ा झटका है। यह अभी देखने वाली बात है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महाराष्ट्र में कुल 44 विधायकों में से कितने विधायक अजित पवार के साथ गये हैं। जिस प्रकार के अजित पवार की ओर से दावा किया गया है कि बहुसंख्यक विधायक उनके साथ हैं, यदि यह बात सही हुई तो शिव सेना की भांति ही शरद पवार के हाथों से भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का नाम तथा चुनाव चिन्ह अजित पवार का गुट प्राप्त करने में सफल हो जाएगा। देश की विपक्षी पार्टियों कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस तथा आम आदमी पार्टी ने इस पूरे घटनाक्रम के लिए भाजपा को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उसकी कड़ी आलोचना की है। शरद पवार ने तो इस बात के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को तन्ज़ कसते हुए बधाई भी दी है। 
जैसे-जैसे देश 2024 के लोकसभा चुनावों की ओर बढ़ेगा, वैसे-वैसे इस तरह के घटनाक्रम कुछ और विपक्षी पार्टियों में भी घटित हो सकते हैं। चाहे इस प्रकार के घटनाक्रम से किसी विशेष राजनीतिक पार्टी को लाभ हो सकता है और उसकी किसी राज्य में कुछ वर्षों के लिए सरकार बन सकती है, परन्तु समूचे तौर पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए तथा देश के विकास के लिए, राजनीति में ऐसे घटनाक्रमों को उचित नहीं माना जा सकता। इस संदर्भ में हम दूसरी बात यह भी कहना चाहते हैं कि विपक्षी पार्टियों, विशेषकर क्षेत्रीय पार्टियों को भी अपने संगठनात्मक ढांचों तथा कार्यशैली में बड़े बदलाव करने की आवश्यकता है। यदि भिन्न-भिन्न राजनीतिक पार्टियों में किसी एक परिवार का अधिक बोलबाला रहेगा और ऐसी राजनीतिक पार्टियां अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने की अपेक्षा अवसरवाद के आधार पर सौदेबाज़ी करती रहेंगी और उनके भीतर लोकतंत्र की भी कमी होगी, तो ऐसी पार्टियों के टूटने की हर समय सम्भावना बनी रहेगी। सो, इस प्रकार के घटनाक्रम के लिए सिर्फ भाजपा को ही दोष नहीं दिया जा सकता, विपक्षी पार्टियों को अपनी त्रुटियां-कमज़ोरियां दूर करने की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।