इमाम हुसैन की शहादत इन्सानियत के लिए एक मिसाल

मुहर्रम पर विशेष
मुकद्दस इस्लामिक कैलेंडर के तहत मुहर्रम वर्ष का पहला महीना है। विश्व भर के लोग वर्ष के पहले दिन खुशियां मनाते हैं, परन्तु मुसलमानों के लिए यह ़गम का महीना है क्योंकि इसी महीने की 10 तारीख सन् 61 हिज़री अर्थात अक्तूबर, 680 ए.डी. को कूफा के निकट कर्बला (इराक)में हज़रत इमाम हुसैन जो कि प़ैगम्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफा साहिब के नाती थे और हज़रत इमाम हुसैन शेर-ए-़खुदा हज़रत अली तथा हज़रत बीबी फातिमा जाहरा के बेटे थे। हज़रत इमाम हुसैन का जन्म सऊदी अरब के प्रसिद्ध शहर मदीना मुनब्बरा में हुआ था। उन्हें इस्लाम धर्म में शहीद का दर्जा प्राप्त है। 
शिया समुदाय के मानने के अनुसार वह यजीद के कुकर्मी शासन के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के लिए सन् 680 ए.एच. में क़ूफा के निकट कर्बला की लड़ाई में 72 साथियों के साथ शहीद कर दिए गए थे। उनकी शहादत के दिन को आशुरा (दसवां दिन) कहते हैं और इस शहादत की याद में मुहर्रम (उस महीने का नाम) मनाते हैं। इतिहासकार मसूदी ने उनके बारे में लिखा है कि हज़रत इमाम हुसैन 6 वर्ष की आयु तक प़ैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहिब के पास रहे। प़ैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहिब इमाम हज़रत हुसैन को बहुत प्यारे थे। 
प़ैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहिब ने फरमाया कि ‘हुसैन मुझसे हैं और मैं हुसैन से हूं’, ‘ए अल्लाह तूं उससे प्यार कर जो हुसैन से प्यार करे’ और प़ैगम्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफा साहिब ने फरमाया था कि ‘जिसने हुसैन को दर्द दिया वो मुझे दर्द दे रहा है।’ उन्हें उनके परिवार सहित जिसमें छोटे-छोटे मासूम बच्चे भी शामिल थे, कर्बला में मेहमान बना कर शहीद कर दिया गया था। यजीद जो उस समय बादशाह था, वह हज़रत इमाम हुसैन से एक समझौते पर हस्ताक्षर करवाना चाहता था, परन्तु हज़रत इमाम हुसैन साहिब ने बैयत यानि समझौते से इन्कार कर दिया था। हज़रत इमाम हुसैन के इन्कार करने की वजह यह थी कि कुछ बातें उसमें यजीद ने ऐसी लिखी थीं जो कि इस्लाम धर्म के बिल्कुल ही खिलाफ थीं। उसमें लिखा गया था कि शराब को जायज़ कर दिया जाए, नाचने तथा गाने की इजाज़त दी जाए। इन मुद्दों को पढ़ते ही हज़रत इमाम हुसैन ने बिल्कुल भी बर्दाशत नहीं किया और हस्ताक्षर करने से साफ-साफ इन्कार कर दिया और हज़रत इमाम हुसैन ने कहा कि मुझे दौलत की ज़रूरत नहीं है। यजीद इसे तू अपने पास रख लेकिन दीन-ए-इस्लाम में गलत बातों को मैं बिल्कुल भी बर्दाशत नहीं करूंगा। अपने (नाना जान) पैं़गम्बर हज़रत मुहम्मद साहिब द्वारा लाये हुए दीन-ए-इस्लाम को कायम रखना है तथा उसे हर तरह से बचाना है। उसमें कोई बदलाव किसी भी कीमत पर बर्दाशत  अर्थात सहन नहीं करूंगा। हलाल को हराम तथा हराम को हलाल, नाजायज़ को जायज़ तथा जायज़ को नाजायज़ नहीं करूंगा। 
बैयत यानि समझौता करने से इन्कार करने की वजह के कारण ही यजीद कर्बला में ही जहां हज़रत इमाम हुसैन को मेहमान के रूप में बुला कर समझौते पर हस्ताक्षर करवाना चाहता था, वहीं उन्हें चारों ओर से यजीद की सेना ने घेराबंदी करके घेरा डाल लिया तथा उनके बच्चों व महिलाओं का पानी तक बंद कर दिया और हज़रत इमाम हुसैन को शहीद कर दिया। हज़रत हुसैन के साथ कुल 72 लोग थे, जिनमें पुरुष, महिलाएं तथा छोटे-छोटे मासूम बच्चे भी शामिल थे  और यजीद की हज़ारों की सेना थी जो कि पूरे साज़ो-सामान से लैस थी। हज़रत हुसैन तथा उनके बच्चों को 10 मुहर्रम के दिन जिसे रोज़-ए-आशुरा भी कहते हैं, भूखे-प्यासों को शहीद कर दिया गया था। हज़रत इमाम हुसैन ने प़ैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहिब द्वारा लाए हुए दीन-ए-इस्लाम को बचाने के लिए अपनी तथा बच्चों की कुर्बानी तक दे दी, क्योंकि इस्लाम बचाने के लिए देना जानता है और किसी से कुछ लेना नहीं, यही इस्लाम की असल पहचान है। विश्व भर के सभी मुसलमान 10 मुहर्रम को हज़रत इमाम हुसैन की इस कुर्बानी का एहसान मानते हैं। 
‘इस्लाम पर एहसान-ए-हुसैन इबन अली है,
मौला ने जलाई है तो यह शमां जली है’
विश्व भर में इस दिन शिया समुदाय के लोग तथा स्कालर काले कपड़ों में मातम करते हुए जुलूस निकालते हैं। उल्लेखनीय है कि इस्लाम में इस दिन को बहुत अहम दिन माना जाता है और मुहर्रम की 10 तारीख को इराक, ईरान, पाकिस्तान, भारत, बहरीन, जमैका आदि देशों में यह दिन मनाया जाता है।
‘इन्सान को बेदार तो हो लेने दो,
हर कौम पुकारेगी हमारे हुसैन को।’

-मो. 95927-54907