प्रेम की वारिस शबाना आज़मी के अनसुने किस्से

ताशकंद फिल्मोत्सव में जब शबाना आज़मी को यह मालूम हुआ कि फैज़ अहमद फैज़ भी वहां मौजूद हैं तो वह उनसे मिलने के लिए पहुंचीं, विशेषकर इसलिए कि बचपन में शबाना को फैज़ ने अपनी गोद में खिलाया था और वह उन्हें चचा कहकर संबोधित करती थीं। सलाम-दुआ के बाद फैज़ ने विस्तृत मुलाकात के लिए शबाना से कहा कि वह शाम को उनसे, उनके होटल के कमरे में मिलें। निर्धारित समय पर जब शबाना कमरे में पहुंचीं तो फैज़ ने उन्हें एक कागज़ देते हुए कहा, ‘कुछ ताज़ा शेर हुए हैं, लो पढ़ो।’ कागज़ पर नज़र पड़ते ही शबाना बोलीं, ‘लेकिन चचा, मुझे उर्दू पढ़ना नहीं आता है।’
यह सुनते ही फैज़ आश्चर्य व गुस्से से लाल-पीले हो गये। उन्हें यकीन नहीं आ रहा था कि कैफी आज़मी व श़ौकत आज़मी की बेटी शबाना को उर्दू पढ़ना नहीं आता था। उन्होंने शबाना की परवरिश के तरीके पर ही सवाल उठा दिए कि जिन लोगों की जीविका का आधार ही उर्दू भाषा हो उन्होंने अपनी बेटी को उर्दू पढ़ना भी नहीं सिखाया। शबाना ने स्थिति को संभालते हुए कहा, ‘चचा, मैं सिर्फ पढ़ नहीं सकती, लेकिन उर्दू बोलती व समझती हूं और आपका तो पूरा कलाम मुझे याद है, जैसे- देख तो दिल कि जां से उठता है/ये धुआं सा कहां से उठता है।’ इस पर फैज़ बोले, ‘बेटा, ये मेरा नहीं मीर तकी मीर का शेर है।’ खिसयानी व शर्मिंदा हुईं शबाना ने अपनी सफाई में एक और शेर पढ़ा, लेकिन इस बार उन्होंने बहादुर शाह ज़फर का शेर पढ़ दिया, जिस पर फैज़ ने कहा, ‘बेटा, मीर तक तो सही था, लेकिन मैं ज़फर को शायर नहीं मानता हूं।’
इसके बाद कमरे में ठहरने की शबाना में हिम्मत न थी, फैज़ से रुखसत लेकर वह जैसे ही कमरे से बाहर निकलीं तो उन्हें फैज़ का सारा कलाम याद आ गया, लेकिन अपनी परवरिश का बचाव करने के लिए तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बहरहाल, शबाना देखी या सुनी गई महान प्रेम कथाओं में से एक का फूल हैं। साल 1947 था, शौकत ने हैदराबाद के एक मुशायरे में कैफी को अपनी ़गज़ल सुनाते हुए देखा और वह देखती ही रह गईं, उन्हें मालूम ही न चला कि उस पल वह अपना दिल हार चुकी थीं। कैफी का भी यही हाल था; आग दोनों तरफ लगी हुई थी। इस तरह शुरू हुई वह प्रेम कहानी जो अब 76 वर्ष बाद भी अभी की सी लगती है। कैफी बॉम्बे (अब मुंबई) में रहने वाले कम्युनिस्ट थे और शौकत हैदराबाद में रहती थीं। उनके प्रेम पत्र अक्सर पकड़े जाते थे।
लेकिन एक दिन जब शौकत को कैफी के खून से लिखा हुआ पत्र मिला तो वह दौड़ती हुई अपने पिता के पास पहुंचीं जो उन्हें बॉम्बे यह दिखाने के लिए ले गये कि कैफी और उनके कामरेड किस तरह एक कम्यून में रहते हैं। ‘क्या तुम अब भी कैफी से शादी करना चाहती हो?’ पिता ने सवाल किया तो शौकत ने विश्वास भरे ‘हां’ में उत्तर दिया। शौकत की मां को जानकारी दिए बिना उन दोनों की जल्द शादी हो गयी। इस तरह शौकत जो उस समय मात्र 19 साल की थीं, कैफी की मुख्य कामरेड बन गईं और अगले 55 वर्ष तक ऐसी ही बनी रहीं।
इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि शबाना ने करण जौहर की फिल्म ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ में एक असामान्य दादी की भूमिका निभायी है। इस फिल्म में शबाना की पोती बनीं रानी (आलिया भट्ट) व उसका प्रेमी रॉकी (रणवीर सिंह) अपनी दादी का उनके भूले हुए प्रेम से पुन:सम्पर्क स्थापित कराते हैं। इस भूमिका के बारे में शबाना बताती हैं, ‘मैंने जब करण की फिल्म का चयन किया तो लोगों को आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा कि आप करण जौहर की फिल्म में कैसे काम कर सकती हैं? मैंने उनसे कहा कि पहले फिल्म को देखना और फिर कुछ कहना। अब फिल्म देखने के बाद वही लोग मेरी तारीफों के पुल बांध रहे हैं। कह रहे हैं कि मुख्यधारा की फिल्म में मैंने कितना अच्छा रोमांटिक रोल किया है। मुझे यह सुनकर अच्छा लगता है क्योंकि यह जजमेंट कॉल थी और इसकी प्रशंसा की जा रही है।’
भूमिकाओं के चयन के संदर्भ में शबाना के निर्णय आमतौर से उनके पक्ष में ही गये हैं। 1970 और 1980 के दशकों में जब शबाना बॉलीवुड में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही थीं तो उन्होंने जानबूझकर मुख्यधारा की फिल्मों से दूरी बनायी, जिनमें अभिनेत्री अक्सर रोमांटिक प्रोप से अधिक कुछ नहीं होती है। उनका रुख समानांतर सिनेमा की ओर हुआ और उन्होंने ‘अंकुर’ (1974), ‘निशांत’ (1975), ‘अर्थ’ (1982) व ‘मंडी’ (1983) जैसी यादगार फिल्में कीं। वह कहती हैं, ‘मेरी परवरिश एक ऐसे वातावरण में हुई जिसमें मेरे पेरेंट्स का मानना था कि कला का प्रयोग सामाजिक परिवर्तन के लिए किया जाना चाहिए। इसलिए यह स्वाभाविक था कि मेरा झुकाव उन फिल्मों की तरफ हुआ जिनका सामाजिक अर्थ व सामाजिक उद्देश्य था।’
शबाना का विश्व दृष्टिकोण मुख्यत: उनके पेरेंट्स के सामाजिक कल्याण के लिए समर्पण और कम्यून में उनके अपने अनुभव से विकसित हुआ है, जहां वह 9 वर्ष की आयु तक आठ अन्य परिवारों के साथ रहती थीं। यह परिवार अपना गुज़ारा उस भत्ते से करते थे जो कम्युनिस्ट पार्टी अपने सदस्यों को देती थी। एक बार कुंठा में उन्होंने अपने पिता से यहां तक कह दिया था कि क्या आप हताश नहीं हो जाते कि आपकी इच्छा के अनुसार परिवर्तन गति नहीं पकड़ रहा है। यह सुनकर भी कैफी विचलित नहीं हुए थे और उन्होंने कहा था, ‘जब कोई व्यक्ति परिवर्तन के लिए कार्य कर रहा हो तो यह ज़रूरी नहीं कि परिवर्तन उसके जीवनकाल में ही आ जाये, लेकिन उसे अपना काम करते रहना चाहिए।’ इस घटना को याद करते हुए 72 वर्षीय शबाना बताती हैं, ‘एक्टर बनने के लिए आपका रिसोर्स बेस जीवन होना चाहिए। जब आप जीवन से जुड़े होते हैं और जब आप अपने इर्दगिर्द अन्याय को देखते हैं तो लाज़मी यह प्रश्न उठता है कि सामाजिक अन्याय क्यों है? गरीबी क्यों है? सवाल मालूम करने पर आप उसका हिस्सा बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त जब आप इस स्थिति में हों कि लोग आपकी बातें सुनें व उनका पालन करें तो यह स्थिति बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ आती है।’
शबाना को अभिनय के लिए रिकॉर्ड पांच राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं, पदम भूषण मिला है, 160 से अधिक फिल्मों में काम किया है, लेकिन उन्हें अब भी अपने सर्वश्रेष्ठ की प्रतीक्षा है। वह कहती हैं, ‘़िकस्मत से मैं सही समय पर सही जगह रही। लेकिन मुझे अब भी अपने बेस्ट के आने की आशा है। मैं कुछ चीज़ें ट्राई करना चाहती हूं, जैसे हॉरर। मुझे एहसास है कि जीवन में मुझे एक्टिंग करना ही सबसे अच्छा लगता है, इसलिए मैं एक्टिंग करते हुए ही मरना चाहती हूं।’


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