‘भारत’ बनाम ‘इंडिया’ के बीच हिन्दी दिवस का महत्व

इन दिनों देश में ‘इंडिया’ की जगह ‘भारत’ शब्द को भारत सरकार द्वारा प्रयोग करने की बड़ी प्राथमिकता दी जा रही है। इस कदम को राजनीतिक चश्मे से न देखकर, हिन्दी भाषा के प्रयोग के नज़रिए से देखा जाए, तो इसमें कोई अन्यथा बात नहीं। अपने देश के नाम को हिन्दी भाषा में भारत कहा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भी इसके महत्व को बढ़ाया जा सकता है। वैसे भी दुर्भाग्यवश हमारे देश में जाति व धर्म के साथ-साथ भाषाई आधार पर बंटवारे का खेल पहले अंग्रेजों ने खेला और अब राजनीतिक पार्टियां अपने वोट बैंक के लिए इसी खेल में शामिल हो चुकी हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि जब तक हमारे देश में भाषाई आधार पर एक भाषा पर एकमत नहीं बनेगा, तब तक हम कैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने भाषाई विकास की गाथा को लिख सकते हैं। 
जनगणना 2011 के मुताबिक हमारे देश में केवल 7 प्रतिशत जनसंख्या तेलुगू, 6 प्रतिशत तमिल, 4 प्रतिशत कन्नड़ और 44 प्रतिशत से भी ज्यादा जनसंख्या हिन्दी भाषा बोलती है। हालांकि ये आंकड़ा 13 वर्ष पुराना है। 
अनुमान के मुताबिक हिन्दी बोलने वालों का यह प्रतिशत वर्तमान में कई गुणा बढ़ चुका है। वहीं विदेशों में हिन्दी बोलने वाले 80 करोड़ से भी अधिक हैं। ये सही मायने में भारत का विदेशी धरती पर प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि देश के अंदर और बाहर हिन्दी भाषी लोगों की संख्या बढ़ रही है, तो क्यों सरकारों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा इसके सम्मान को बढ़ाने और इसे राष्ट्रीय भाषा के तौर पर अपनाने में निरंतर देरी की जा रही है। इस असहज सोच का जन्म 1835 में लार्ड मैकाले की नीतियों के कारण हुआ था, जिन्होंने भारत में भाषावाद का बीज बोया। इस कारण हमारे देश में एक भाषा पर जनता का एकमत कभी नहीं बन पाया। आज़ादी के समय धर्म के नाम पर भारत के टुकड़े तो हुए लेकिन दूसरी तरफ भाषा के आधार पर भी कई राज्यों ने अपने लिए अलग अस्तित्व की मांग उठानी शुरू कर दी थी। 
1948 में एस.के. धर की अध्यक्षता में बने भाषाई प्रांत आयोग ने राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर करने का विरोध किया था। लेकिन फिर भी दुर्भाग्यवश दक्षिण राज्यों की मांग के सामने झुकते हुए 1953 में आंध्र प्रदेश तेलुगू भाषा के आधार पर पहला राज्या बन गया।   हमें यह समझना होगा कि विविधतापूर्ण इस देश में हर भाषा का विकास ज़रूरी है लेकिन एक राष्ट्रभाषा का होना बहुत ज़रूरी है। विश्व पटल पर किसी भी देश का प्रतिनिधित्व केवल एक भाषा और एक सरकार ही कर सकती है। इसलिए जनता को स्वयं एकमत से एक भाषा यानि कि हिन्दी को एक राष्ट्रभाषा का दर्जा देने का समर्थन करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यूरोप जैसा महाद्वीप भी कभी भाषा के आधार पर बंट गया जिसका खमियाजा आज तक यूरोप के कई देश भुगत रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर संविधान की धारा 343 (1) में हिन्दी को सिर्फ राजभाषा का दर्जा दिया जाता है। 14 सिम्तबर 1949 में संविधान बनने के साथ हिन्दी को राजभाषा के साथ अंग्रेजी को भी अगले 15 वर्ष तक राजकीय भाषा के तौर पर अपनाया गया, लेकिन राजनेताओं की अदूरदर्शिता कहें कि राजकीय भाषा अधिनियम 1963 में संशोधन करके अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए हिन्दी के साथ राजकीय भाषा बना दिया गया। जबकि 1968 में पुन: राजकीय भाषा अधिनियम में संशोधन करके हिन्दी भाषा का सरकारी कामकाज में अधिक प्रयोग किये जाने पर बल दिया गया है। ये सभी अधिनियम भाषाई राजनीति को ही खुश कर रहे हैं जबकि आज भी हमारा देश एक राष्ट्रीय भाषा की राह खोज रहा है। इसका एक ही समाधान है कि सभी राजनीतिक दल पार्टी हितों से ऊपर उठ कर हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए आगे आएं और भारत शब्द की आभा के साथ विश्व पर अपना नाम चमकाएं। अन्यथा हिन्दी दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। 

-असिस्टेंट प्रोफेसर, गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी कॉलेज, जालन्धर।