उदासीनाचार्य भगवान श्रीचन्द्र जी

उदासीनाचार्य भगवान श्रीचन्द्र जी का अवतरण संवत् 1551 (सन् 1494 ई.) में भाद्रपद शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन सद्गुरु नानक देव जी के गृह में माता सुलक्षणा जी की पावन कोख से कपूरथला ज़िला के सुल्तानपुर नगर में हुआ। आप अभी बाल्यावस्था में थे कि आपके पिता मानव-मात्र के कल्याण के लिए अपनी पहली उदासी के लिए घर से चले गये। आपकी रुचि बचपन से ही आध्यात्मिक थी। एकान्त में घण्टों बैठ कर समाधि लगाना आपकी प्रकृति में था। थोड़ा बड़े हुए तो घर से बाहर जाकर किसी निर्जन स्थान पर समाधि की स्थिति में बैठकर तपस्या करने लगे। जंगल में किसी हिंसक जीव-जन्तु का मन में तनिक भी भय न रखते बल्कि कई बार तो सांप-बिच्छू और शेर आदि हिंसक जीव आपके इर्द-गिर्द शान्त होकर बैठ जाते।
ग्यारह वर्ष की आयु में अपने दादा-दादी और माता की आज्ञा से आप उच्च-शिक्षा की प्राप्ति के लिए कश्मीर चले गये। वहां जाकर पं. पुरुषोत्तम कौल के विद्यालय में रहते हुए एक बार काशी से आये उस समय के धुरन्धर विद्वान पं. सोमनाथ त्रिपाठी को अपने शिक्षा गुरु पं. पुरुषोत्तम कौल से आज्ञा प्राप्त कर शास्त्रार्थ में परास्त किया और कश्मीर के पंडितों की लाज बचाई। 24 वर्ष की आयु में माऊंट आबू से कश्मीर में अमरनाथ की यात्रा के निमित्त आये गुरु अविनाशी मुनि जी से गुरु-दीक्षा प्राप्त की और गुरुदेव की आज्ञा के अनुसार राष्ट्र-उद्धार के संकल्प से यहीं से अपनी धर्म यात्राएं आरम्भ कीं।
अपनी यात्राओं के दौरान उस समय के क्रूर शासकों को अपने चमत्कारों से प्रभावित किया। कश्मीर के श्रीनगर में उस समय याकूब खां का शासन था। उसने हिन्दुओं पर अपनी मर्यादा के अनुसार पूजा-अर्चना करने पर प्रतिबन्ध लगा रखा था।  भगवान श्रीचन्द्र जी को जब ऐसे प्रतिबन्ध के विषय में पता चला तो उन्होंने शंखनाद किया, घंटी बजाई। आरती पूजा की आवाज़ शाही महलों में पहुंची। याकूब ने सैनिकों को भेजा।  सैनिकों ने भगवान श्रीचन्द्र जी पर शस्त्र-प्रहार करने के लिए हाथ ऊपर उठाए तो हाथ वहीं के वहीं रुक गए। ऐसे चमत्कार से प्रभावित होकर जब सैनिक वापिस गए तो याकूब खां ने उन्हें डांट दिया और कहा मैं ऐसे चमत्कार को नहीं मानता। मैं स्वयं कल सुबह तुम्हारे साथ चलूंगा।
अगले दिन सुबह जब वह भगवान के पास गया तो प्रभु धूने के सामने बैठे थे। धूने में जल रही एक लकड़ी को उन्होंने ज़मीन में गाड़ दिया। तत्काल ही जल रही लकड़ी का आधा भाग हरा-भरा हो गया। याकूब खां इस कौतुक को देखकर बहुत प्रभावित हुआ और भगवान के चरणों में नतमस्तक हो गया।
यात्राओं के इसी क्रम में भगवान काबुल, कंधार, अ़फगानिस्तान, भूटान आदि स्थानों पर भी गए।  पेशावर में भगवान ने एक स्थान पर जाकर पांच ज्योतियां जलाईं और वहां के राजा ने भगवान को वचन दिया कि ये ज्योतियां निरन्तर जलती रहेंगी। पेशावर में आज भी ये ज्योतियां उसी रूप में जल रही हैं। 
पाकिस्तान के सिंध के नगर ठट्ठा में आज भी एक मंदिर में भगवान श्रीचन्द्र जी की विशाल मूर्ति स्थापित है। पाकिस्तान में यह मंदिर हिन्दू मंदिरों में अपना विशेष स्थान रखता है। यहां पर भगवान कश्मीर से होते हुए लोगों की आर्त पुकार सुनकर गए थे और वहां के शासक को हिन्दुओं को किसी भी तरह की यातनाएं न देने के लिए उपदेश दिया था।
बारठ नगर के निकट ही पठानकोट ज़िले में भगवान का एक और स्थान है ममून साहिब। भगवान के हाथ का लगाया हुआ वट वृक्ष यहां पर विद्यमान है। आस-पास जल नहीं था। भगवान ने यहां पर मीठा जल निकाला। आज भी वर्ष में एक दिन गांव में पानी नहीं होता और लोग आश्रम में आकर कुएं में लगी जल की मोट से पानी की पूर्ति करते हैं।
द्वारिका में आस-पास का जल खारा था।  आपने वहां से गुज़र रही औरतों से जल मांगा तो वे कहने लगीं—‘तू तो फकीर, स्वयं धरती में से मीठा जल क्यों नहीं निकाल लेता?’ आपने शंख बजाया और उसी शंख को धरती में गाड़ दिया। मीठे जल का झरना फूट निकला। आज भी यह स्थान शंखेश्वर द्वारिका बेट के नाम से प्रसिद्ध है। साक्षी स्वरूप मीठा जल भी निकलता है जबकि आस-पास का सारा जल खारा है।
सम्पूर्ण जीवन जन-मानस के कल्याण के लिए व्यतीत कर 149 वर्ष की आयु में रावी नदी के किनारे पहुंच कर मल्लाह से नदी पार करवाने के लिए कहने लगे। मल्लाह ने मुस्कुराते हुए कहा—आप तो सारे जीवों को संसार सागर से पार करने वाले हो। इस छोटी-सी नदी से पार होना आपके लिए कौन-सी बड़ी बात है? मल्लाह की शंका को दूर करने के लिए भगवान जिस शिला पर विराजमान थे, उसी को नदी पार कराने की आज्ञा दी। शिला पर सवार होकर नदी पार जाते हुए, वरुण देवता को उपदेश देकर चम्बा से मणिमहेश होते हुए उदासीनाचार्य सदेह कैलाश की ओर चले गए। उदासीनाचार्य का 529वां प्रकाशोत्सव 24 सितम्बर, 2023 को सम्पूर्ण बेदी वंश, उदासीन-जगत की ओर से बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। 


-प्रीतम भवन, उदासीन आश्रम,
गोपाल नगर, जालन्धर