कर्जों का इन्द्र-धनुष

‘आप चाहे मुझे कुछ कह लें, मुझमें तनिक भी अभिमान नहीं है।’ उन्होंने अपनी कुर्सी की हत्थियों को ज़ोर से पकड़ कर एक गहरी उसांस भरते हुए फरमाया था।  हम नतशिर उनकी आत्मस्वीकृति सुन रहे थे। इसके सिवा हमारे पास कोई और विकल्प भी नहीं था। आदमी जब ऊंची कुर्सी पर आसीन हो। बरसों से उसे सुसज्जित कर रहा हो, तो उसके श्रोता उससे यह सुन कर गद्गद् नहीं होते तो और क्या करते?
‘आप जानते हैं, हमारे पिताश्री और दादा जान के ज़माने से हमारे घर में वजीरी रही है।’ हमने ध्यान किया, उन्होंने मंत्री पद नहीं कहा था। सम्भवत: अपनी औकात की बात कहते हुए उसे किसी पद अथवा कुर्सी से जोड़ना उन्हें अभिमानी हो जाने की गन्ध देता। अब जो उनका सच है, वह सच है। वजीरी कह देने से सेवाभाव झलकता है और देश का सेवक बन जाने में तो वे लोग माहिर हैं। वे सेवा की यह वसीयत अपने वारिसों को पकड़ाते हैं। तब उनका मन जनता जनार्दन के प्रति शुभकामनाओं  से भर उठता है। अब अपने परिवार के प्रति अपना कर्त्तव्य तो उन्हें निभाना है न, भाई जान।
नहीं बन्धु, यह उनका परिवारवाद नहीं है। भई परिवारवाद का प्रदर्शन तो उनके विपक्षी करते हैं। वे स्वयं एक दल पर आधिपत्य जमा कर बैठे हैं, और अपने भाई-भतीजे को दूसरे दल की डोर सम्भलवा देते हैं। यह है सत्ता का विकेन्द्रीकरण। बस अब दल चाहे कोई भी जीते। अपना नाती रिश्तेदार वहीं जमा है, तो बाद में सत्ता के लिए अपेक्षित सीटें प्राप्त करने के लिए उससे गठजोड़ करते देर नहीं लगेगी।
आप जानते तो हैं, आजकल की राजनीति में सिद्धांतहीन गठजोड़ के बिना बात बनती नहीं। ‘कहीं की ईर्ंट कहीं का रोड़ा, भानुभति ने कुनबा जोड़ा।’ बात पुरानी है, कभी भर्त्सना के साथ कही जाती थी। आज तो इसका ज़माने के साथ चलना हो गया। जब गठजोड़ होते थे, तो पूछा जाता था, आपका सम्मिलन क्यों हो रहा है, भला आपकी वैचारिक सांझ क्या है? तलाशने पर भी वह सांझ नहीं मिलती, तो हमारी नासमझी पर रोना रोते हुए कह देते हैं, बस इतनी-सी तलाश है। अरे भई जन-सेवा हमारा एकमात्र लक्ष्य है। इसी लक्ष्य पथ पर चलते हुए कुछ स्वसेवा या परिवार सेवा भी हो जाये, तो आपको क्या कष्ट है? अंग्रेज़ों ने तो अपनी भाषा में कितने दिन पहले हमें बता दिया था, ‘दान-धर्म करना है तो सबसे पहले अपने घर से शुरू करो।’
परन्तु जब-जब दान-धर्म की बात होती है, तो इस देश में रेवड़ियां बांटने की बात क्यों होने लगती है। अभी देश के चुनावों की दुंदभि फिर से बजने लगी है। वैसे यहां इस दुंदुभि के बजने का कोई समय नहीं है। राजनीति नहीं शतरंज का खेल हो गई। कब एक टोले से दूसरे टोले में कूदते चलता। एक दल छोड़ दूसरे दल की टोपी पहन लेना पहले ‘आया राम गया राम’ कहलाता था। आजकल इसे ज़माने का धर्म निबाहना कह देते हैं। प्यादे से कौन फर्जी बन कर टेढ़ो टेढ़ो चल कर राजा या वजीर को संकट में डाल देगा, कुछ पता नहीं चलता। कल के प्यादे आज कुर्सी सम्भाले बैठे हैं, और जन-कल्याण की कसमें खा रहे हैं। न्यायपालिका के शीर्ष पुरुषों ने बहुतेरा समझाया भी कि आप जो जन-कल्याण की घोषणाएं कर रहे हो, वे तो मात्र एक-दूसरे को पछाड़ कर अधिक से अधिक रेवड़ियां बांट देने का हुनर है। बंटती हुई रेवड़ियां अपनों की झोली निहाल कर देती हैं, और आप कह देते हो, ‘अन्धा बांटे रेवड़ियां, मुड़-मुड़ अपनो को दे।’
लेकिन बांटने वाले पिछली दुनिया में अन्धे होते होंगे, आजकल तो खूब तेज़ नज़र रखने वाले शातिर लोग हैं। कर्मशीलता का बलिदान होता है, तभी अपने बन्धु-बांधवों में रेवड़ियां बंटेंगी। तभी यह देश दुनिया भर में रेवड़ियां बांटने का रिकार्ड स्थापित करेगा न। 
जब चुनाव दुंदुभि बजती है, तो उसके साथ नेतागण अधिक से अधिक वोट बैंक अपनी गठरी में डालने के लिए राष्ट्र-निर्माण की किसी नई उद्यम नीति की घोषणा नहीं करते, मुफ्तखोरी के इन्द्रधनुषी सपने बांटते हैं। लोग मुंह बाये बैठे हैं, कि कब उनकी झोली या बैंक खाते में पन्द्रह लाख रुपये आयेंगे, उज्ज्वला योजना का गैस सिलेण्डर और भी सस्ता हो कर मिलेगा, क्योंकि अभी अनुदान की एक और बैसाखी उन्हें मिली है। बसों पर मुफ्त की सीटें बढ़ रही हैं। पहले औरतें थीं, अब परम आदरणीय वरिष्ठजन भी। चुनावी एजेंडा गर्वित होता है, कि हमने लगभग सब नागरिकों का बिजली बिल ज़ीरो कर दिया। हर मास अधिक से अधिक बिजली यूनिट माफ करेंगे हम, चाहे इन संस्थानों का कचूमर ही क्यों न निकल जाये। कज़र् बोझ है तो सही, सबको सन्तुष्ट करने का एक बड़ा उपाय।
चचा ़गालिब ने ज़िन्दगी में कज़र् लेकर मय पी थी, तो कोतवाल ने उन्हें हिरासत दे दी थी। यहां कज़र् दर कज़र् के उपाय से लुभावनी घोषणाओं के चुनावी एजेंडे बनते हैं। ई.वी.एम. मशीन में आपके चुनाव चिन्ह का बटन दबता है। बाद में कोई इस सर्च खाते का हिसाब देने के लिए कहे, तो बिना विलम्ब उत्तर दे दो, हमने तो अपना ही नहीं, पिछली सरकार का ब्याज भी अदा कर दिया है। मूलधन लौटाने की बात न करना क्योंकि फिर एक पुरानी कहावत आपको सुना दें, ‘मूल से ब्याज प्यारा होता है। जो इसे चुकता करे, वही शाहसवार और बन्धु एक नया कज़र्ा मांगने का हकदार।’ कज़र् जारी रखो ताकि हम आपको साथ ले इस निर्माण पथ पर आगे बढ़ सकें।