युद्ध या हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं

प्रत्येक व्यक्ति स्वयं की, परिवार और समाज की सुरक्षा के लिए सभी आवश्यक प्रबंध करता है। इसी प्रकार देश चाक चौबंद व्यवस्था करता है। शत्रुओं, आक्रमणकारियों और साम्राज्य विस्तारवादियों से सीमा की सुरक्षा के लिए आधुनिक शस्त्रों की तैनाती की जाती है। किसी भी समय अपनी रक्षा की लड़ाई के लिये तैयार रहता है। नागरिकों की अंदरूनी तथा बाहरी सुरक्षा के लिए पुलिस और सैन्य बलों की व्यवस्था करता है। युद्ध की तैयारी करते रहना एक निरन्तर चलने वाली गतिविधि है।
यदि लड़ाई न होने देना है, शांति बनाए रखनी है और किसी बात को लेकर या बिना बात संघर्ष की स्थिति से अपने को बचाए रखना है तो इसके लिए कूटनीति अर्थात् बातचीत की प्रक्रिया का इस्तेमाल किसी भी संकट से निबटने के लिए किया जाता है। दो महायुद्ध देखने और हमेशा तीसरे के होने की आशंका से ग्रस्त विश्व को इससे राहत मिल सकती है। अब लड़ाइयां पहले जैसी नहीं होतीं कि एक बार में शत्रु का सपाया किया और अपना कब्ज़ा कर लिया। अब चाहे कोई देश कितना भी ताकतवर हो, कितने ही दावे कर ले कि बस कुछ ही घंटों, दिनों या हफ्तों में शत्रु को समाप्त कर युद्ध रोक देगा, अब संभव नहीं है। पहले से चल रहे युद्ध और अब रूस व यूक्रेन और इज़रायल व हमास यानि फिलिस्तीन के बीच हो रहे संघर्ष के समाप्त होने के न कोई आसार हैं और न ही इस बात की गारंटी कि किसी तीसरी शक्ति के हस्तक्षेप से युद्ध रुक सकता है, शांति स्थापित हो सकती है।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब यह पता है कि युद्ध के परिणाम भयावह होते हैं, दोषी हो या निर्दोष मृत्यु का तांडव होना तय है, नर संहार होना ही होना है, पुरुषों सहित स्त्रियों और बच्चों को निराश्रित, अनाथ और असहाय होने से रोकना असंभव है तो फिर युद्ध न होने देने के लिये कूटनीतिक और राजनीतिक उपाय, संधियां तथा समझौते करने की प्रक्रिया को अंतिम रूप क्यों नहीं दिया जाता?
लगभग एक शताब्दी पहले महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन और प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के बीच एक संवाद हुआ था। आइन्स्टीन ने पूछा था कि मनुष्य का अधिकार अर्थात् यह मेरा है, की प्रवृत्ति और उसके लिए दोनों के बीच संघर्ष अर्थात् युद्ध से बचने का क्या कोई तरीका है ताकि मानवता को युद्ध के खतरे से मुक्त रखा जा सके? क्या मनुष्य के अंदर जो अपना आधिपत्य या साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा है, उसे मानवता की सहायता करने की तरफ मोड़ा जा सकता है ?
प्रभुत्व और अधिकार के बीच क्या संबंध है? प्रभुत्व एक प्रकार से हिंसा का दूसरा नाम है और अधिकार उसी में से निकला है। वास्तविकता यह है कि मनुष्यों के बीच उनके हितों के टकराव को हिंसा से ही सुलझाया जाता है। मनुष्य की सोचने, समझने, अपने विचार रखने की प्रकृति है। कई बार ज़ोर-जबरदस्ती अपनी बात मनवाने और जो नहीं माने तो उसे असहाय और असमर्थ कर देने या हत्या करने की प्रवृत्ति होती है, उसे कैसे बदला जाये?
ताकत का इस्तेमाल हमेशा से किसी चीज़ को हासिल करने में होता रहा है। जिसके पास जितने आधुनिक और विनाशक शस्त्र होते हैं, वह उतना ही हिंसक और क्रूर होता है। इनका इस्तेमाल दुनिया पर राज करने, अपने साम्राज्य का विस्तार करने में होता है। पहले जमाने में शत्रु को मारने के स्थान पर उसे अपना गुलाम बनाया जाना अधिक बेहतर लगा और हिंसा का रूप बदला लेकिन मूल प्रवृत्ति वही रही कि दूसरों पर राज करना है। हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए कानून का रास्ता खोजा गया अर्थात् एक ताकतवर व्यक्ति की सत्ता सिद्ध करने के लिए उसके अनुयायियों और समर्थकों अर्थात् जी हजूरी करने वाले इकट्ठे होते गये और इस तरह साम्राज्य स्थापित होते गए जो हिंसा का ही प्रतिरूप है। चेतना बढ़ी तो साम्राज्य एक के बाद एक धराशायी होते गये।
वर्तमान समय में समाज की सोच बदली और प्रजातंत्र, लोकतांत्रिक व्यवस्था जैसी चीज़ें सामने आने लगीं। अपने हितों की सुरक्षा करने और अपना आधिपत्य जमाये रखने के लिए बनाये कानूनों को नयी व्यवस्था में एडजस्ट किया जाने लगा। शासक को प्रजा यानि जनता की भलाई के कानून बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा और बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार कानूनों में बदलाव या नये कानून बनाये जाने लगे।
यह सब जानते हैं कि किसी को भी लड़ने के लिए उकसाना बहुत आसान है अर्थात् मनुष्य को युद्ध का बुखार चढ़ाना और उसके अंदर नफरत करने और विनाश की ओर बढ़ने की स्वाभाविक वृत्ति का लाभ उठाकर अपने मनमुताबिक व्यवहार करा लेना कठिन नहीं है। बस इसे एक चिंगारी चाहिए, यह मिलते ही वह विध्वंसक हो जाता है, सब कुछ नेस्तनाबूद कर देना चाहता है और अपने शत्रु का अस्तित्व ही मिटा देना चाहता है।
आइंस्टीन का प्रश्न यही था कि क्या मनुष्य कीं इस प्रवृत्ति को जन कल्याण की ओर मोड़ा जा सकता है? फ्रायड ने कहा कि जहां मनुष्य में विनाश की प्रवृत्ति है, वहां विकास का भी प्राकृतिक गुण है। हम यह तो कर सकते हैं कि किसी एक प्रवृत्ति को दबाकर रखें और दूसरी को विकसित होने दें, लेकिन दोनों में से किसी एक का समूल नाश नहीं कर सकते।
बात बस इतनी सी है और यह कोई मुश्किल नहीं है। दुनिया ने नेल्सन मंडेला से लेकर महात्मा गांधी तक की विचारधारा को देखा, समझा और अनुभव किया है कि युद्ध अर्थात् हिंसा या हत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। यहीं पर हमारी कूटनीतिक योग्यता की परीक्षा होती है कि किस प्रकार संघर्ष को न होने दिया जाये, बेशक हमारी युद्ध की तैयारी पूरी हो और हम किसी भी आक्रमण का सामना करने के लिए तैयार हों! योगेश्वर कृष्ण ने भी कहा था कि शांति किसी भी मूल्य पर मिले, सस्ती है, लेकिन यदि सभी प्रयत्न असफल हो जायें तो फिर युद्ध से मुँह मोड़ना कायरता है। यह व्यक्ति, परिवार और समाज के लिए भी उतना ही सत्य है जितना किसी देश, द्वीप या महाद्वीप के लिए।