बदस्तूर जारी है महिलाओं के साथ भेदभाव

पुलिस स्टेशन से लेकर अदालत तक महिलाओं के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव बदस्तूर जारी है। देश की राजधानी दिल्ली से सटे हरियाणा राज्य में 4 लाख से ज्यादा एफआईआर के व्यापक अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला गया है। अमेरिकन पॉलिटिकल साइंस रिव्यू के अक्तूबर 2023 अंक में प्रकाशित यह अध्ययन लंदन स्कूल ऑफ  इकोनॉमिक्स में राजनीति शास्त्र की सहायक प्रोफेसर निर्विकार जस्सल ने किया है। इस व्यापक अध्ययन में पाया गया है कि पुरुष शिकायतकर्ता जो अपनी महिला मित्रों या रिश्तेदारों की ओर से दर्ज करते हैं, उन्हें ‘बोझ या बहिष्कार’ का सामना करने की संभावना कम होती है। अगर किसी महिला को प्राथमिक शिकायतकर्ता के रूप में सूचीबद्ध किया गया हो।
यह अपनी तरह का पहला व्यापक अध्ययन है, जिसमें एफआईआर की प्रारंभिक फाइलिंग से लेकर अदालत में अंतिम परिणाम तक के मामलों का पता लगाया गया और पाया गया कि प्रक्रिया के हर चरण में महिलाओं को जबरदस्त नुकसान हुआ और उनके साथ भेदभाव किया गया। वास्तव में यौन हिंसा के मामलों में लड़कियों व महिलाओं के लिए एफआईआर दर्ज कराना आज भी अगर असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। आरोपियों के विरुद्ध कार्रवाई होने की संभावना तो इससे भी कम है। एफआईआर दर्ज कराने की प्रक्रिया के दौरान पुलिस यौन हिंसा की पीड़ित लड़कियों व महिलाओं को अपमानित, हतोत्साहित व परेशान भी करती है। 
यह बात पहले भी कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) व एसोसिएशन फॉर एडवोकेसी एंड लीगल इनिशिएटिव (एएएलआई) की अक्तूबर 2020 की रिपोर्ट में सामने आ चुकी थी, लेकिन इस व्यापक अध्ययन से इसकी और तथ्यात्मक पुष्टि हो गई है। दो साल पहले सीएचआरआई की यह रिपोर्ट उत्तर प्रदेश में दुष्कर्म व सामूहिक दुष्कर्म की 14 पीड़ितों पर आधारित थी। यौन हिंसा की यह वारदातें 2017 व 2020 के बीच अलीगढ़, अमरोहा, औरैया, लखनऊ, झांसी, जौनपुर व मुजफ्फरनगर में हुई थीं। इन सभी मामलों में पीड़िताओं को एफआईआर दर्ज कराने के लिए 2 से 228 दिनों की कड़ी जद्दोजहद करनी पड़ी थी, पांच मामलों में तो अदालत के आदेश के बाद ही एफआईआर दर्ज हो सकी, जबकि अमरोहा के मामले में तो पुलिस ने दुष्कर्म की बजाय आईपीसी की धारा 354 के तहत केस दर्ज किया, जिसका संबंध यौन उत्पीड़न से है। पुलिस ने पीड़िताओं पर आरोपियों के साथ समझौता करने का भी दबाव डाला। दलित पीड़िताओं को लिंग-आधारित भेदभाव के साथ ही जाति-आधारित भेदभाव का भी सामना करना पड़ा। 
हरियाणा में लगभग 4 लाख केसों का अध्ययन किया गया है, उनमें से मात्र 9 प्रतिशत या 37,637 को ही महिलाओं ने दर्ज कराया था। इससे साफ  पता चलता है कि महिलाएं अपने विरुद्ध अपराध की एफआईआर तक कराने में सहज रूप से सक्षम नहीं हैं, क्योंकि उनके साथ पुलिस और प्रशासन द्वारा कदम-कदम पर भेदभाव किया जाता है। यह भेदभाव बाद में अदालत तक होता रहता है। इस अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि महिलाओं की एफआईआर दर्ज का सिलसिला पुरुषों की तुलना में एक माह पीछे चलता है। जो महिलाएं हिंसा की रिपोर्ट करने पुलिस स्टेशन जाती हैं, उन्हें एफआईआर दर्ज कराने के लिए पुरुषों की तुलना में 2 घंटे अधिक लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। महिलाओं के केसों की जांच पुरुषों के केसों की जांच की तुलना में अधिक धीमे चलती है और उन्हें अदालत में भी अक्सर देर से ही भेजा जाता है। जहां तक अदालतों की बात है तो पुरुषों की तुलना में महिलाओं के केस खारिज होने की दर कहीं अधिक है। अगर महिलाएं शिकायतकर्ता हैं तो दोषसिद्धि दर मात्र 5 प्रतिशत है और अगर पुरुष शिकायतकर्ता हैं तो यह दर 17.9 प्रतिशत है।
पेपर में जनवरी 2015 और नवम्बर 2018 के बीच जो 4,18,190 एफआईआर दर्ज करायी गई थीं, उनका अध्ययन किया गया। यह केस चोरी से लेकर महिलाओं के विरुद्ध हिंसा तक के थे। पुलिस प्रक्रियाओं और न्यायिक नतीजों के संदर्भ में यह अपने किस्म का पहला अध्ययन है, जिसमें एफआईआर दर्ज कराने से लेकर अंतिम अदालती फैसले तक के सफर को ट्रेस किया गया है और पाया है कि प्रक्रिया के हर चरण में महिलाएं नुकसान की स्थिति में हैं और उनके साथ भेदभाव होता है। अध्ययन में 2.5 लाख से अधिक एफआईआर का न्यायिक रिकार्ड्स से मिलान किया गया जो ई-कोर्ट्स वेबसाइट पर मौजूद हैं। पाया गया कि महिलाओं की शिकायतें पुलिस स्टेशन से अदालत तक कम ही पहुंचती हैं। 
अध्ययन के अनुसार सभी शिकायतों में एफआईआर दर्ज कराने के लिए औसतन 7 घंटे की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, लेकिन जो महिलाएं हिंसा की शिकायत करने पुलिस स्टेशन जाती हैं उन्हें औसतन 9 घंटे इंतज़ार करना पड़ता है। पेपर में कहा गया है, ‘अपराध और रजिस्ट्रेशन के बीच 28 के औसत के साथ मीडियन दिन एक है। महिला केसों व महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के मामलों में क्रमश: 69 व 113 का औसत है।’ 
बहरहाल, डॉ. जस्सल का कहना है कि अधिक महिला थाना या फास्ट ट्रैक अदालतें बनाने से समस्या का समाधान नहीं होने वाला। दरअसल, थाने से लेकर अदालतों तक महिलाओं के साथ जो भेदभाव होता है, वह सामाजिक सोच में परिवर्तन से ही संभव है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर