आर्थिक मज़बूती ही रोक सकती है महिलाओं का शोषण 

पच्चीस नवम्बर ‘महिलाओं का हिंसा से मुक्ति दिवस’ संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व भर में मनाया जाता है। अक्सर इस तरह की बातें होती हैं कि महिलाओं को किस प्रकार से सुरक्षित किया जाए कि उनके साथ भेदभाव, मारपीट और शारीरिक तथा मानसिक अत्याचार न हो। यह सब जुबानी जमाखर्च जैसा है क्योंकि हकीकत बताती है कि संसार में तीन में से एक महिला के जीवन में कम से कम एक बार शरीर, मन संबंधी और आर्थिक रूप से शोषण हुआ ही है। एक तथ्य यह भी है कि चाहे हर देश उनके प्रति सहानुभूति रखे लेकिन बहुत ही कम अपने यहां ऐसा कानून बना पाते हैं जो पूरी तरह से औरतों के पक्ष में हो। विडम्बना यह भी है कि कोई भी सरकार अपने बजट के पांच प्रतिशत से ज्यादा इस काम के लिए व्यय नहीं करती।
आवाज़ नहीं तो बचाव कैसा
जब कोई बोलता ही नहीं, अपने साथ हो रहे अन्याय के विरोध में स्वर ही नहीं उठता तो फिर किसी को क्या पड़ी है जो वह तरफदारी करे। प्रमाण यह है कि हर घंटे पांच या अधिक नवजात, अबोध लड़कियों की हत्या हो जाती है और कानों कान खबर नहीं होती। भ्रूण हत्या के आकड़े तो और भी भयावह हैं।
समाज अक्सर लड़के-लड़की के बीच कोई भेद न करने, दोनों को समान समझने और एक जैसे अवसर देने की बात करता है। हम यह नहीं कहते कि वह झूठ कहता है, लेकिन इतना अवश्य है कि सच पर पर्दा डालने का काम करता है। उदाहरण के लिए चाहे लड़कियों की पढ़ाई लिखाई हो, उनकी नौकरी या अपने पैरों पर खड़े होने की बात हो, शादी और दहेज का मामला हो, रीति-रिवाज तथा परम्पराओं के पालन की ज़िम्मेदारी हो, पुरुष समाज उन्हें बहकावे में रखकर अपनी बात मनवाने में कभी पीछे नहीं रहता। मानो लड़कों को यह बात उन्हें जन्म लेते ही घुट्ठी में पिला दी जाती है कि लड़कियों का परिवार में दूसरा या तीसरा दर्जा है, पहला या बराबरी का तो सवाल ही नहीं उठता। जब यह सोच बचपन से ही बन जाती है तो फिर लड़की चाहे कितनी भी बुद्धिमान हो, जीवन में कुछ बनने या करने की इच्छा रखती हो, लेकिन मज़र्ी लड़कों की ही चलती है। और अगर कहीं उसने यह निर्णय कर लिया कि वह जो चाहती है, हासिल कर के ही रहेगी तो फिर उसे न जाने क्या-क्या कहा जाने लगता है। इस कारण आम तौर से वह हथियार डाल देती है और एक घुटन भरी और नीरस ज़िन्दगी स्वीकार कर लेती है।
आर्थिक मज़बूती ही उपाय है
महिलाओं को शरीर और मन से यदि ताकतवर बनना है तो उसका एक ही तरीका है कि वह रुपये-पैसे के लिए किसी पर निर्भर न हों और वे जो भी मेहनत करती हैं, उसका उसे फल यानी पूरा वेतन या मज़दूरी मिले। इसका एक उदाहरण पिछले कुछ वर्षों में इस बात की समीक्षा करने से दिया जा सकता है कि जब से महिला के बचत खाते में उसके वेतन या मज़दूरी का पैसा पहुंचने लगा है, वह अपने को इस योग्य समझने लगी है कि वह इसे अपनी मज़र्ी से खर्च कर सकती है। वह करती भी है और पति या परिवार के अन्य सदस्यों को इस मामले में अपने उपर हावी नहीं होने देती। यही बात अन्य कामकाजी, नौकरीपेशा या अपना कोई व्यवसाय करने वाली महिलाओं पर लागू होती है जो अपनी कमाई पर किसी का हक नहीं समझतीं। यदि ज़ोर-जबरदस्ती की जाती है तो वे अकेले या अलग रहने का फैसला करने में ही अकलमंदी समझती हैं।
एक उदाहरण है। कुछ वर्ष पहले दुनिया की रईस महिलाओं में से एक मेलिंडा गेट्स ने भारत के कुछ चुने हुए अभावग्रस्त इलाकों में औरतों के बीच यह मुहिम चलाई थी कि उनके शरीर पर पहला अधिकार उनका है। काम करने से लेकर बच्चे को जन्म देने, उसकी परवरिश करने और परिवार को संभालने तक का काम वह करेंगी। यहां तक कि यदि वे बच्चा न चाहें तो मना कर सकती हैं। यदि ज़ोर-ज़बरदस्ती होती है तो सब मिलकर उसका विरोध करती हैं। इस प्रयास के बहुत ही आश्चर्यजनक और उत्साहवर्धक परिणाम निकले। पुरुषों की समझ में आ गया कि उनकी मनमानी नहीं चलेगी और वे महिला से सहयोग करते हुए उसके निर्णय को मानेंगे और ज्यादा चूं-चपड़ की तो न घर के रहेंगे न घाट के। घरेलू हिंसा की घटनाएं भी कम हुईं और औरतों को अपने अधीन समझने की मानसिकता बदली और महिलाओं का सम्मान करने की आदत पड़ने लगी।
आधुनिक टेक्नोलॉजी के युग में अब वह दौर आ गया है कि महिलाओं को उनके अधिकार मिलने के मामले में ‘कोई बहाना नहीं’ चलेगा। इस दृष्टि से देखा जाए तो अब यह पहलू भी बहुत मुखर होकर सामने आ रहा है कि यदि बिना बात लड़ने, मारपीट करने और शारीरिक हमला करने से पुरुष बाज नहीं आता तो फिर उसके बुरे दिन आने से कोई नहीं रोक सकता। सोशल मीडिया के कारण महिला अब बेचारगी से ग्रस्त नहीं रहना चाहती, बल्कि पुरुष का मुकाबला करती है।
इस समय पुरुषों से अधिक महिलाएं अपने शुरू किए गए स्टार्ट अप या अपना ही ब्राण्ड बनाने में सफल हो रही हैं। इसका नतीजा यह आ रहा है कि एक तरह की नर और नारी के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता का उदय हो रहा है। अब निर्भर या आश्रित रहने की सोच में बदलाव आ रहा है। दोनों के बीच सहमति होना किसी भी रिश्ते की नींव बनती जा रही है। अगर यह नहीं है तो दोनों में से कोई भी खुश नहीं रह सकता और संबंध टूट कर ही रहते हैं। महिलाओं के प्रति किसी भी प्रकार की हिंसा जैसे कि शारीरिक वेदना, मानसिक प्रताड़ना और बौद्धिक लांछन या भावनात्मक शोषण का एक ही उपाय है कि वे आर्थिक रूप से समर्थ हों। यह प्रत्येक वर्ग पर लागू होता है।
इस दिन की सार्थकता इसी में है कि महिलाओं को हर क्षेत्र में समान अवसर मिलें और उनके साथ वेतन, तरक्की और प्रगति करने के मामलों में असमानता का व्यवहार न हो। चाहे इसके लिए कड़े कानून बनें या कोई आंदोलन चलाना पड़े, यह परिवार, समाज और अंतत: देश के हित में होगा।