इन्सानी हिम्मत की परी-कथा है सिल्कियारा सुरंग बचाव अभियान

17 दिन, 400 घंटे, 3 बार ऑगर मशीन का टूटना, बचाव के कई अभियानों का साथ-साथ चलना और एक समय के बाद निराशा से लेकर अंधविश्वास तक की कहानियों की फुसफुसाहट का शुरु हो जाना। सिल्कियारा सुरंग हादसे का यह मेलोड्रामा, हलक से कलेजा निकाल लेने वाली किसी हॉलीवुड फिल्म से कम रोमांचक नहीं है। 12 नवम्बर 2023 को दीपावली थी, सुबह 5 बजे कुछ मज़दूर सुरंग में अंदर काम करने के लिए गये ताकि आज जल्दी काम खत्म करके, शाम को वह भी दीवाली का जश्न मना सकें। चूंकि आज रविवार का दिन था, साथ ही दीपावली की छुट्टी भी थी, इसलिए सुरंग की साइट में हर रोज़ जितने मज़दूर नहीं थे, कुल 50-52 मज़दूर थे, जिनमें से कुछ लोग करीब 7 बजे सुरंग से बाहर चाय पीने के लिए आये थे, तभी वह हादसा हो गया, जो किसी फिल्म की पटकथा जैसा खौफनाक था। 41 मजदूर करीब 46 मीटर मलबे के दूसरी तरफ फंस गये। हालांकि दूसरी तरफ करीब 2 किलोमीटर से ज्यादा सुरंग बनी हुई थी, लेकिन वह भी अंत में बंद थी और जिधर से घुसकर मजदूर यहां काम करने के लिए जाते थे, उसके दरवाजे से लेकर करीब 46 मीटर दूरी तक भूस्खलन से पहाड़ फट चुके थे। मजदूर इन दो बंद दरवाजों के बीच फंस गये थे।
हालांकि शुरु में ऐसा नहीं लगा कि सुरंग हादसों के इतिहास का सबसे जटिल हादसा हुआ है। लगा कि ड्रिल मशीनों के जरिये कुछ घंटों की ड्रिलिंग के बाद मजदूरों को सकुशल निकाल लिया जायेगा। लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, यह हादसा एक भयावह कहानी बनता जा रहा था। पहले कई घंटों तक, कई ताकतवर देसी ड्रिलिंग मशीनों से मलबे को हटाने की कोशिश की गई, लेकिन जब लगा कि इन मशीनों से तो मलबा टस से मस भी नहीं हो रहा, तो इंदौर और फिर मुंबई से ताकतवर मशीनें मंगवायी गईं और अंत में वह सबसे ताकतवर अमरीकी ऑगर मशीन हवाई जहाजों द्वारा ढो कर हादसा स्थल पर पहुंचायी गई। इस अमरीकी ऑगर मशीन से सबको उम्मीद थी कि 12 घंटे में करीब 50 मीटर तक ड्रिल करने वाली इस मशीन के जरिये मजदूरों को बाहर निकालने में आसानी से कामयाबी मिल जायेगी। लेकिन यह महज एक सुखद अनुमान ही साबित हुआ। घुमावदार भारी ब्लेडों वाली ऑगर मशीन जिसमें करीब 20 फीट लंबा और बेहद मजबूत बरमा, चट्टानों के सीनों को देखते देखते चकनाचूर कर देता है, वह भी इस मलबे में हार गया, क्योंकि भूस्खलन के जरिये जिस मलबे से सुरंग का रास्ता पट था, उसमें सिर्फ पत्थर नहीं थे। मोटे मोटे लोहे के रॉड भी थे, जिन्होंने मशीन के घुमावदार ब्लेडों को बार-बार तोड़ा।
जिस कारण सुरंग के दरवाजे पर पड़े मलबे को हटाना लोहे के चने चबाने से भी कठिन हो गया। कई दिनों के बाद जब बचाव दल के विशेषज्ञों को लगा कि यह इतना आसान नहीं है तो फिर बाहर से मदद लेने की शुरुआत हुई। 17 दिन तक चले इस रेस्क्यू ऑपरेशन में जो सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति इस बचाव अभियान के लिए सलाहकार के रूप में हिंदुस्तान आए, वह ऑस्ट्रेलियाई अंडरग्राउंड टनलिंग एक्सपर्ट अर्नोल्ड डिस्क थे। वह जिनेवा स्थित इंटरनेशनल टनलिंग एंड अंडरग्राउंड स्पेस एसोसिएशन के प्रमुख हैं, उन्होंने अपने ढंग से इस पूरे हादसे को समझने के बाद कहा कि सुरंग के बचे 41 मजदूरों को क्रिसमस से पहले निकाल लिया जायेगा। यह एक ऐसी टिप्पणी थी, जिसने न सिर्फ सुरंग में फंसे मजदूरों के घरवालों को बल्कि देश में करोड़ों लोगों को भी निराशा से भर दिया। क्योंकि इतने दिनों तक सीलन भरे घुप्प अंधेरे वाली किसी जगह में सही सलामत रहना सारी सकारात्मक उम्मीदों के बावजूद डरावना था।
हालांकि इस भयावह हादसे के बचाव अभियान में सब कुछ काला काला ही नहीं था, कुछ ऐसी सफलताएं भी साथ-साथ मिलती रही थीं कि उम्मीद भी लगातार बंधी हुई थीं और बहुत डर भी लग रहा था। दरअसल इस हादसे के करीब 30 घंटे के बाद सुरंग के भीतर करीब 6 इंच व्यास वाले एक पाइप को सुरंग में अंदर घुसेडने में सफलता मिल गई थी, जिसके जरिये मज़दूरों तक न सिर्फ ऑक्सीजन भेजी गई बल्कि पानी और सूखे मेवे भी भेजे गए ताकि वो खा सकें और स्वस्थ रह सकें। कई दिनों के बाद तब इस कठिन अभियान में एक और बड़ी सफलता मिल गई थी, जब मजदूरों तक गर्म खाना पहुंचाया गया।
 चूंकि इस पाइप लाइन के जरिये वहां एक लैंडलाइन फोन की व्यवस्था भी कर दी गई थी, जिसके जरिये मजदूर अपने परिजनों से बीच-बीच में बातें भी कर रहे थे, जिस कारण घुप अंधेरे और सीलनभरी कालकोठरी में होने के बाद भी उनमें यह हौसला बना रहा कि जल्द ही उन्हें बाहर निकाल लिया जायेगा। जब 14वें दिन तीसरी बार ताकतवर अमरीकी ड्रिल मशीन का करीब 20 फीट लंबा बरमा टूट गया, तो न सिर्फ यह दहशत बनने लगी कि अब आगे क्या होगा बल्कि उस टूटे हुए बरमे को भी सुरंग के मलबे से बाहर निकालना बहुत बड़ी समस्या हो गई। ऐसे में आम लोगों की हिम्मत और वह मानवीय तकनीक काम आयी, जो कानूनी तौर पर अवैध मानी जाती है। 
दरअसल जब बार-बार कामयाबी के मुहाने तक पहुंचकर बचाव अभियान दम तोड़ रहे थे, तब उन 8 रैट होल माइनर्स से अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर पहले ऑगर मशीन का टूटा हुआ ब्लेड मलबे से बाहर निकाला और फिर बची हुई आठ मीटर दूरी को हाथों से ड्रिल करने का बीड़ा उठाया। अनुमान लगाया गया कि करीब 40 घंटों में ये 8 मजदूर दो-दो की टीम के रूप में हाथ द्वारा इस बचे हुए 8 मीटर मलबे को खोद डालेंगे। लेकिन मजदूरों से दिनरात काम करके 40 घंटे के इस अनुमान को 30 घंटे में ही पूरा कर लिया। जब मलबे का अंतिम पत्थर हटाकर एक रैट होल माइनर अंदर फंसे मजदूरों को देखा तो मजदूर खुशी में चीख पड़े और नसीम नाम के इस माइनर्स को गले लगा लिया।
 अगर इस पूरे अभियान में सबसे ज्यादा किसी को श्रेय देना हो तो निश्चित रूप से उन रैट माइनर्स को दिया जा सकता है, जिन्होंने सिर्फ अपनी कुशलता ही इस अभियान में नहीं झाेंकी बल्कि अपनी जिंदगी को भी दांव में लगाकर 41 मजदूरों की जान बचायी। इन रैट माइनर्स की हिम्मत और जज्बे ने ही इस चमत्कार से लगने वाले अभियान को अंतिम दौर पर सफल बनाया, जिसकी कहानियां अब बरसों तक सुनी सुनायी जाएंगी।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर