हमारे गुलशन का नया कारोबार

‘कैसे भरे गुलों में नये रंग, और कैसे चलायें गुलशन का नया कारोबार।’ छक्कन ने हमें पूछा है। 
हम क्या बतायें? गुलोनगमा की बात न करो, यहां तो केवल ज़िन्दाबाद के नारों के स्वर हैं, परिचित गुलशन की तलाश कैसे करें, वह तो लगता है जैसे कूड़ाघरों में तबदील हो गया। इनमें एक फूल से दूसरे फूल तक उड़ान भरने वाली तितलियां, भंवरों का गुंजन कहीं सुनायी नहीं देता। जहां कभी अमराइयां थीं वहां अब उजड़ी हुई यादों के खण्डहर हैं। अभी यहां से एक भीड़ गुज़र गयी, जो अचानक विजेता हो कर, ‘मेरा देश महान’ की अनुभूति से ओत-प्रोत है। लोगों के कन्धों पर रखा उनका सिंहासन मुस्कराया है, और लो अमराइयां ही नहीं बाग बगीचे भी उजड़ गये। कभी ये बाग बगीचे देर रात तक कोयलों की मधुर कुहुक से सराबोर रहते थे। आज तो काले कौओं की कर्कश ध्वनि के सिवा यहां कुछ आभास नहीं होता।
हर ओर धुआं उठ रहा है, गर्दो गुब्बार है। माहौल में घुटन बढ़ती जा रही है। कंजी आंखों वाले कौओं के सिवा कोयल ही क्यों, सब मनभावन पंछी यहां से एक-एक करके गायब हो गये। हां, एक उजड़े हुए धुआंखे टूटे वृक्ष पर एक घायल पपीहा बार-बार आर्तनाद करता है, ‘पी कहां?’ 
कहीं कोई जवाब नहीं मिलता। जो नौजवान ‘पिया’ हो सकते थे, वे तो अवैध रूप से रूपहले सपनों की तलाश में विदेश तस्कर हो गये। अब वहां अवैध से वैध हो जाने का कोई न कोई जुगाड़ बिठा लेना चाहते हैं।
यहां छूट गयी है हारी हुई सांसों, अन्धेरी सुरंगों और पहाड़ पर जमी कुर्सियों की विरासत। ऐसे माहौल में हमारा स्मार्ट शहर स्तर की अंकतालिका में पचास पायदान नीचे चला गया। अमराइयां उखड़ कर जले हुए निर्वासित जंगल हो गईं। कोयलों से लेकर तोता और मैना तक को इन बागीचों ही नहीं, जले हुए जंगलों तक से देश निकाला मिल गया। कभी यहां दिन रात कर्मठ काम और उद्यम नीति चलती थी, तो पीछे पार्श्व गायन के रूप में कोयल गाती थी। घायल पपीहे अपने खोये हुए पिया की तलाश में आर्तनाद नहीं करते थे। वक्त बदला तो पता लगा यहां आर्तनाद न होने देने की गारण्टी दी जा चुकी है। अब लोग भूख से नहीं मरेंगे, रियायती अनाज की दुकान के बाहर भी दम तोड़ते हुए भी आह भर-भर अपनी बात कहें, निष्चेष्ट हाथ फैला कर अपने जीने का ईमान मांगने लगे हैं। सुनो, पेट भरा हो, तो गुलों में रंग भी भर जाते हैं, और गुलशन का कारोबार भी चलने लगता है। यहां कैसे चलें?
छक्कन हमारी बातों को एक अजब शंका के साथ सुनते रहे। बोले, हां यहां गुलशन का कारोबार दिन-रात चलता है लेकिन यह कारोबार नम्बर दो का कारोबार होता है। काले धन के कन्धों पर सवार होता है। गलत या सही कोई भी टिप्पस भिड़ा कर यह कारोबार आगे बढ़ाने का प्रयास करता है, और उसके पीछे-पीछे अन्ध श्रद्धा से भर कर एक जुलूस निकलता है, सबको यह बताते हुए कि देश और मजबूत हो कर दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी महाशक्ति बन जायेगा। आज का पहला और दूसरा स्थान रखने वाले यानी चचा सैम का देश, और फुफकारते ड्रैगन वाला देश इसकी तरक्की के समक्ष अपना मुंह छिपाता फिरेगा।
बेशक बहुत अच्छी बाते हैं ये, लेकिन देश की इस तरक्की में अभी भी अस्सी करोड़ जनता रियायती अनाज के बल पर क्यों ज़िन्दा है? उन्हें काम करने के लिए रोज़गार नहीं मिलता, लेकिन उनके लिए समाधान है, तो अपना कोई नया काम खोल लें। सरकारी नौकरी पाने के सपने अब बासी हो गये। देश के तीन चौथाई लोग तो सरकारी या किसी प्रकार की निजी नौकरी से वंचित हो चुके हैं। अब तो एक ही समाधान बचा है, अपना काम नहीं अपना नहीं अपना हाथ जगन्नाथ। लेकिन कैसे शुरू करें अपना काम?  जेब में दराम नहीं, कज़र्े का जुगाड़ नहीं। बाहर देखते ही देखते ज़माना कयामत की चाल चल गया। काम करने के तरीके बदल गये। कृत्रिम मेघा का सहारा लो। रोबोट युग आ गया, उनकी बैसाखी थामो, अथवा जो नहीं हो वही बन जाओ। डीपफेक का ज़माना आया है। एक परम संतुष्ट आदमी का चेहरा ओढ़ना तो अब कठिन नहीं रहा। औरतें अपनी साड़ी, लहंगा, और कुर्ती सलवार त्याग कर निक्कर पहनने पर उतर आयीं, और अच्छे भरे सूट-बूट धारी लोग फटी जीन्स और निक्कर पहन कर दनदना रहे हैं, कि ‘भैय्या, लो हम तो आधुनिक हो गये।’ 
इस छद्म आधुनिकता के माहौल में परम संतुष्ट आदमी का चेहरा ओढ़ कर सफलता का उत्सव मना लेना। बस इसी से गुलशन का कारोबार चल निकलेगा, चाहे इस गुलशन में नैतिकता और आदर्शों का दम भरने का देह त्याग, और आपाधापी प्रजाति के कैक्टस लहराते रहें। इन कैक्टसों को गले लगाओ और स्वयं हथेली पर जमती सरसों की तरह उस सफलता का अभिनन्दन बन जाओ, कि जिसके विकास आंकड़े आज तुम्हारे हाथ में एक नयी शमशीर दे गये हैं।
माना कि यह शमशीर हर परीक्षा में मोथरी लगती रहती है, लेकिन एक शमशीर है तो सही, जो हर समय तुम्हें बताती है, तुम्हारे लिए महंगाई कम नहीं हुई तो क्या? अड़ोस पड़ोस की ओर झांक लो, वहां तो कीमतें तुम्हारे बाज़ारों से कहीं ज्यादा ऊंची है। माना कि सब को रोज़गार नहीं दे सके, लेकिन सबके लिये पेट भर रियायती अनाज तो बांट दिया है न। क्यों कहते हो? भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ। दलाल संस्कृति तो उसी तरह दनदना रही है। क्यों भूलते हो, हमने भ्रष्टाचार को शून्य बना देने की घोषणा भी कर रखी है। अभी इन घोषणाओं पर सब्र करो। यूं बदलते हुए माहौल के साथ जीना सीखो क्योंकि यही तेरे गुलशन का नया कारोबार है। यहां फूलों की जगह कुकरमुत्ते उगने लगे तो क्या हुआ। भई इन्हें ही फूलों की कोई नयी प्रजाति मान कर गले से लगा लो। इस गुलशन का नया कारोबार यूं चल निकलेगा।