पुरुष भी होते हैं घरेलू हिंसा का शिकार 

नये बन रहे समाज एवं पारिवारिक माहौल में अब महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी घरेलू हिंसा का शिकार हो रहे हैं, इसका उदाहरण है कुछ समय पहले पुणे में रहने वाले एक संभ्रांत परिवार की महिला द्वारा घूंसा मार कर पुरुष की जान ले लेने का मामला। मामला घरेलू विवाद का था, लेकिन हिंसा के चरम पर पहुंचा और एक पत्नी के द्वारा पति की जान ले ली गयी। महिला के घूंसे ने परिवार एवं समाज में पनप रही नयी तरह की हिंसा को उजागर किया है। इस घटना ने अनेक प्रश्न खड़े कर दिये हैं। विडम्बना यह है कि पुरुषों के लिये महिलाओं की तरह घरेलू हिंसा के खिलाफ  कोई कार्रवाई नहीं होती। घरेलू हिंसा कानून की धारा 2 (अ) के तहत परिवार के किसी पुरुष सदस्य, विशेष रूप से पति को कोई संरक्षण नहीं है। मद्रास उच्च न्यायालय यह मान चुका है कि पति के पास पत्नी के खिलाफ  शिकायत करने के लिए घरेलू हिंसा जैसा कोई कानून नहीं है। 
निश्चित ही घर की चार दिवारी में महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी हिंसा, उत्पीड़न एवं उपेक्षा के शिकार होते हैं। बढ़ती इन घटनाओं के मामले निश्चित तौर पर अदालत के समक्ष फैसले के लिए आएंगे। क्या न्याय की चौखट पर पुरुषों को समुचित न्याय मिल पायेगा? क्योंकि अभी तक ऐसे कानूनों में महिलाओं का ही पक्ष सुना जाता रहा है। जब पुरुष पर होने वाले अत्याचार के लिये कानून में संरक्षण की जगह नहीं है, तो हिंसा के इन सभी स्तरों के पार होने पर उचित न्याय के लिये भारतीय दंड विधान में उचित कानूनी प्रावधानों एवं पुरुष संरक्षण की अपेक्षा महसूस की जायेगी। इसलिये अब ऐसे पूरे मामले पर घरेलू हिंसा के विभिन्न प्रकार पर गंभीर चर्चा आवश्यक हो गई है।
भारत में अभी तक ऐसा कोई सरकारी अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं हुआ है जिससे इस बात का पता लग सके कि घरेलू हिंसा शिकार पुरुषों की तादाद कितनी है, लेकिन कुछ गैर-सरकारी संस्थान इस दिशा में ज़रूर काम कर रहे हैं। ‘सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन’ और ‘माई नेशन’ नामक गैर- सरकारी संस्थाओं के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि भारत में नब्बे फीसदी से ज्यादा पति तीन साल के गृहस्थ जीवन में कम से कम एक बार घरेलू हिंसा का सामना कर चुके होते हैं। इस रिपोर्ट में यह बात भी सामने आयी है कि पुरुषों ने जब इस तरह की शिकायतें पुलिस में या फिर किसी अन्य प्लेटफॉर्म पर करनी चाहीं तो लोगों ने इस पर विश्वास नहीं किया और शिकायत करने वाले पुरुषों को हंसी का पात्र बना दिया गया। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के बीते साल सामने आए आंकड़े कहते हैं कि 18 से 49 साल की उम्र की 10 फीसदी महिलाएं कभी न कभी अपने पति पर हाथ उठाती हैं, वह भी तब जब उनके पति ने उन पर कोई हिंसा नहीं की। इन अत्याचारों एवं हिंसा को लेकर भादंवि में आपराधिक मामलों में कार्रवाई संभव है, इसके अलावा हिंदू मैरिज एक्ट से मुकद्दमा चलाया जा सकता है, लेकिन इससे पुरुषों को बहुत अधिक कानूनी संरक्षण नहीं मिल पाता है। 
वर्तमान में काफी मामलों में परिवारों का बिखरना घरेलू हिंसा का परिणाम माना जाता है। घर की आर्थिक ज़रूरतें, स्वच्छंद जीवनशैली एवं भौतिकतावादी सोच के कारण पति-पत्नी के बीच तनाव अनेक रूप में उभरने लगा है, जो हिंसा तक पहुंच जाता है। संभव है कि पुणे की घटना भी ऐसे ही किसी छोटे मामले का क्रूर एवं हिंसक निष्पत्ति हो। छोटे मामले तो हर घर की कहानी बनने लगे हैं, लेकिन ऐसे मामले तब ही प्रकाश में आते हैं, जब कोई बड़ी घटना-दुर्घटना होती है। ऐसे में संयम, समझ, विवेक, समझौता और सीमाओं की समाज में चर्चा और आवश्यक हो चली है, आकांक्षा-महत्वाकांक्षा अनंत हो सकती हैं, किंतु उन पर नियंत्रण ही शांति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। 
हरियाणा में हिसार के रहने वाले एक शख्स का वजन शादी के बाद कथित तौर पर पत्नी के अत्याचार की वजह से 21 किलो घट गया। इसी के आधार पर उसे हाईकोर्ट से तलाक की मंजूरी मिल गई। ऐसे मामले बढ़े हैं। बहुत-से लोगों के लिए यह सोचना भी अविश्वसनीय है कि पुरुषों के साथ हिंसा होती है। वजह यह है कि पुरुषों को हमेशा से मज़बूत और ताकतवर माना जाता रहा है। साल 2019 में ‘इंडियन जर्नल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन’ की रिसर्च के अनुसार हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्रों में 21-49 वर्ष की उम्र के एक हज़ार विवाहित पुरुषों में से 52.4 फीसदी ने लिंग आधारित हिंसा का अनुभव किया। इन आंकड़ों को देख कर लगता है कि जब संविधान लिंग, जाति और धर्म के आधार पर किसी तरह का फर्क स्वीकार नहीं करता, तो सुरक्षा अधिनियम पुरुष को घरेलू हिंसा से सुरक्षा क्यों नहीं देता? जबकि विकसित देशों में जेंडरलेस कानून वहां के पुरुषों को न केवल महिलाओं की तरह घरेलू हिंसा से सुरक्षा देता है, बल्कि इस बात को भी स्वीकार करता है कि पुरुष भी प्रताड़ित होते हैं। -मो. 98110-51133