ज़रूरी है सीमाओं पर एंटी-ड्रोन सिस्टम की तैनाती

भारत सरकार की योजना है कि अगले छह माह के भीतर देश की पश्चिमी सीमा में पूर्णत: देशज एंटी-ड्रोन सिस्टम को इनस्टॉल कर दिया जाये। ऐसा करना स्वागतयोग्य होने के अतिरिक्त अति महत्वपूर्ण है। अब तक तो ऐसा हो जाना भी चाहिए था। सबसे पहली बात तो यह है कि पाकिस्तान से जो ड्रोन्स के ज़रिये हथियार व नारकोटिक्स की तस्करी की जा रही है, विशेषकर पंजाब में, उसे रोकने के लिए यह व्यवस्था बहुत ज़रूरी है। दूसरा यह कि वर्तमान ग्लोबल घटनाक्रम यह संकेत दे रहा है कि भारत के लिए भी दोनों ड्रोन व एंटी-ड्रोन टेक्नोलॉजी अब इतनी लाज़िमी हो गई हैं कि उनके बिना काम चल ही नहीं सकता। 
रूस की विशाल ताकत के सामने यूक्रेन जो अभी तक पराजित नहीं हो सका है, तो उसका एक बड़ा कारण यह है कि उसके पास अमरीका के सस्ते ड्रोन का लाभ है। अमरीका जो यूक्रेन को डिफैंस सिस्टम सप्लाई कर रहा है, उनमें ड्रोन भी हैं जो रुसी ट्रकों को निशाना बना रहे हैं और एंटी-ड्रोन सिस्टम भी हैं, जो रूस के ड्रोन्स को निष्क्रिय कर रहे हैं। अब रूस भी इनका तोड़ निकाल रहा है। यहां ध्यान देने की अहम बात यह है कि किस तरह तकनीकें तेज़ रफ्तार से चूहे बिल्ली का खेल, खेल रही हैं। इस समय दूसरा युद्ध मोर्चा गाज़ा से लाल सागर तक का है। इज़रायल ने हमास के विरुद्ध अनेक तरह के ड्रोन तैनात किये हुए हैं, जिनमें गाज़ा की भूमिगत सुरंगों की टोह लेने के लिए भी ड्रोन शामिल हैं। इज़रायल-हमास युद्ध का असर लाल सागर तक भी फैल गया है, हूती के ड्रोन्स को अमरीका के नौसेना डिस्ट्रॉयर्स ने मार गिराया है। इस पृष्ठभूमि में भारत की नौसेना भी एंटी-ड्रोन उपकरणों की मांग कर रही है।
ड्रोन के कारण युद्ध असमानांतर हो गये हैं। विशेषज्ञों ने नोट किया है कि हूती ड्रोन्स को मार गिराने के लिए अमरीका ने अपने नेक्स्ट-जनरेशन हथियारों का प्रयोग नहीं किया है। दुश्मन के चंद हज़ार डॉलर के उपकरणों को नष्ट करने के लिए मिलियन डॉलर के उपकरणों का प्रयोग करना नुकसान का सौदा है। भारत को इस संदर्भ में अभी कितना फासला तय करना है, इसका अंदाज़ा नागरिक ड्रोन स्पेस से लगाया जा सकता है। हालांकि आयात पर प्रतिबंध लगा हुआ है, लेकिन चीनी ड्रोन स्थानीय ड्रोन्स से अधिक बिक रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में देशज ड्रोन सिस्टम की पश्चिमी सीमा पर तैनाती अगर संभव हो जाती है तो यह रक्षा मामलों में अति महत्वपूर्ण मील का पत्थर होगी। आज के युग में एंटी-ड्रोन सिस्टम्स रक्षा का अटूट अंग हो गये हैं, नियंत्रण रेखा पर उनकी तैनाती बहुत अच्छी शुरुआत साबित होगी।
अमरीका की ड्रोन संबंधी गतिविधियों से आतंकियों को भी आईडिया मिल गया कि व्यापारिक तौर पर उपलब्ध छोटे ड्रोनों और क्वैडकॉप्टर्स को कम खर्च पर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और वह भी हाई-इम्पैक्ट स्ट्राइक के लिए। इराक और सीरिया में आईएसआईएस ने ड्रोनों का इस्तेमाल करना आरंभ किया था। अब लगता यह है कि व्यापारिक ड्रोन को हथियार बनाने की टेक्नोलॉजी लश्कर आदि आतंकी संगठनों (जिन्हें सीमा पार से समर्थन प्राप्त है) के हाथ भी लग गई है। यह चिंताजनक है। ड्रोन रूपी इस नये आतंक के पंख काटने के लिए जल्द एंटी-ड्रोन सिस्टम तैनात करना आवश्यक हो गया है, खासकर इसलिए कि ड्रोन को इतनी कम ऊंचाई पर उड़ाया जा सकता है कि उसे राडार के ज़रिये पकड़ना लगभग असंभव हो जाता है।हालांकि जब 2019 के मध्य में ड्रोन के ज़रिये पंजाब व जम्मू-कश्मीर में ड्रग्स व हथियार गिराये गये थे और पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने केंद्र से इन घटनाओं को रोकने के लिए कठोर कदम उठाने की मांग भी की थी, तभी यह समझ में आ जाना चाहिए था कि सुरक्षित फासले से ड्रोन का इस्तेमाल आतंकी हमला करने के लिए भी किया जा सकता है। गौरतलब है कि 27 जून, 2021 की सुबह जम्मू एयरपोर्ट में आईएएफ  स्टेशन पर संदिग्ध क्वैडकॉप्टर से आईईडी (इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइसेस) गिराये गये थे। भारत में ड्रोन से यह पहला हमला था।
आतंकी गुट बहुत तेज़ी से टेक्नोलॉजिकल प्रगति को अपनाते जा रहे हैं, जिसके आधार पर यह अनुमान गलत नहीं होगा कि भविष्य में इस प्रकार के हमले अधिक जटिल, परिष्कृत व घातक होते जायेंगे। अन्य सैन्य बेसों और अन्य महत्वपूर्ण नागरिक इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे आयल रिफाइनरी आदि को निशाना बनाया जा सकता है। ध्यान रहे कि सितम्बर 2019 में ईरान-समर्थित हूती विद्रोहियों ने सऊदी अरब की अरामको आयल रिफाइनरी पर ड्रोन हमला किया था, जिससे पूरा संसार सकते में आ गया था। खतरा यह भी है कि आतंकी ड्रोन का इस्तेमाल जैव या रासायनिक एजेंट्स को डिलीवर करने के लिए भी कर सकते हैं। इसलिए भारत के सैन्य व पुलिस बलों को भी प्रभावी ड्रोन-रोधी टेक्नोलॉजी से लैस करना होगा ताकि वह दोनों ‘सॉफ्ट-किल’ व ‘हार्ड-किल’ में सक्षम हो जायें। ‘सॉफ्ट-किल’ का अर्थ है जैमिंग व स्पूफिंग सिस्टम्स के ज़रिये इस प्रकार के ड्रोनों के सैटेलाइट या वीडियो कमांड-एंड-कंट्रोल लिंक को तोड़ दिया जाये और ‘हार्ड-किल’ से मुराद है कि लेज़र-आधारित डायरेक्टिड एनर्जी वेपन्स (डीईडब्ल्यू) से ड्रोन को हवा में ही नष्ट कर दिया जाये।
गौरतलब है कि डीआरडीओ ने दो एंटी-ड्रोन डीईडब्ल्यू सिस्टम्स विकसित किये हैं। एक 10 किलोवाट लेज़र का है, जो हवा में 2 किमी के फासले तक वार कर सकता है और दूसरा 2 किलोवाट लेज़र का है, जिसकी रेंज एक किमी की है और इसे ट्राईपोड के ज़रिये भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इन दोनों सिस्टम्स का बड़ी संख्या में उत्पादन करना ज़रूरी है, इज़रायल से आयात किये गये ‘स्मैश-200 प्लस’ के साथ, जिसे राइफल पर चढ़ाकर दिन व रात में दुश्मन के ड्रोनों को नष्ट किया जा सकता है, लेकिन एक कड़वा सच भी है कि छोटे ड्रोनों को किसी इमारत की बालकनी से भी लांच किया जा सकता है और इनकी फ्लाइंग रेंज 4-5 किमी की होती है, जिससे इन्हें राडार के ज़रिये पकड़ना कठिन हो जाता है। सीमा पर एंटी-ड्रोन सिस्टम तैनात करने के साथ-साथ इन छोटे ड्रोन्स को नष्ट करने की व्यवस्था करना भी ज़रूरी प्रतीत होता है, जिन्हें किसी भी बिल्डिंग से लांच किया जा सकता है।

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