वायु प्रदूषण से कम हानिकारक नहीं है ध्वनि प्रदूषण

मध्य प्रदेश की नई सरकार द्वारा विभिन्न धार्मिक स्थलों से अभी तक कोई 28 हज़ार ध्वनि विस्तारक यंत्र उतारे जा चुके हैं, हज़ारों की आवाज़ कम करवा दी गई है । यह कदम महज बेवजह उन्मादी शोर  के खिलाफ  ही नहीं है, यह धर्म-सम्मत भी है और पर्यावरण संरक्षण के लिए अनिवार्य भी। हालांकि समय-समय पर कई अदालतें इस बारे में निर्देश  देती रही हैं लेकिन पहले उत्तर प्रदेश और अब मध्य प्रदेश सरकार की प्रबल इच्छा शक्ति ने उस कारक को समझा और पाबंद किया। हालांकि यह ध्वनि प्रदूषण के बढ़ते खतरे के बीच कोई निर्णायक जंग नहीं है। नए साल की रात में ही देश के छोटे से कस्बे से ले कर महानगर तक डीजे, कार में संगीत और आतिशबाजी ने कोई एक घंटे शोर के विरुद्ध कानूनों को बुरी तरह कुचला। अभी भी सड़कों पर धार्मिक जुलूस के नाम पर या फिर विवाह या अन्य समाजिक कार्यों की आड़ में कानफोडू डीजे बजाने पर कोई पाबंदी है नहीं। 
एक बात समझना होगा कि ध्वनि से  उत्पन्न पर्यावरण संकट किसी भी स्तर पर वायु प्रदूषण से होने वाले नुकसान से कमतर नहीं हैं। यह शारीरिक और मानसिक दोनों किस्म के विकार का जनक है। इन्सान के कानों की संरचना कुछ इस तरह है कि वह एक निश्चित सीमा के बाद ध्वनि की तीव्रता को सह नहीं सकते। जानवर और पशु-पक्षी तो इस मामले में और अधिक संवेदनशील हैं। आवाज़ की तीव्रता को मापने की ईकाई डेसीबल मूल रूप से अनुभव किए गए ध्वनि दवाब और मानक दाब के अनुपात का लघुगणकीय मान है। डेसीबल इकाई भी बहुत संवेदनशील होती है। इसमें मामूली से बदलाव के दुष्परिणाम कई गुण खतरनाक होते हैं। 80 डेसीआब के दाब की तुलना में 120 डेसीबल का दाब सौ गुण अधिक होता है। वैसे हमारे कानों के लिए 45 डेसीबल से अधिक की आवाज़ खतरनाक है। एक फुसफुसाहट लगभग 30 डीबी है, सामान्य बातचीत लगभग 60 डीबी है और एक मोटरसाइकिल इंजन का चलना लगभग 95 डीबी है। लम्बे समय तक 70 डीबी से ऊपर का शोर आपकी सुनने की क्षमता को नुकसान पहुंचाना शुरू कर सकता है। 120 डीबी से ऊपर का तेज़ शोर आपके कानों को तत्काल नुकसान पहुंचा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था—आप किसी शोर को सुनना चाहते हैं या नहीं यह तय करने का आपको पूरा अधिकार। लेकिन सड़क पर ज़ोर-ज़ोर से बात करते लोग या साझा तिपहिया में  बजते कानफोडू स्टीरियो आदि को इस आदेश की कतई परवाह नहीं। 
ध्वनि प्रदूषण से हमारे  सुनने का तंत्र तो क्षतिग्रस्त होता ही है, हमारी धमनियों के सिकुड़ने का भी खतरा होता है। अनिद्रा, एसिडिटी, अवसाद, उच्च रक्तचाप, चिड़चिड़ापन तो आम बात है। जर्मनी के ड्रेस्डन यूनिवर्सिटी ऑफ  टेक्नोलॉजी के आंद्रियास सिडलर ने शोध में बताया कि यातायात के शोरगुल से हृदयाघात का खतरा बढ़ जाता है। 
कुछ साल पहले जबलपुर हाईकोर्ट ने जीवन में शोर के दखल पर गम्भीर फैसला सुनाया था, जिसके तहत अब त्योहारों में सार्वजनिक मार्ग पर लाउडस्पीकरों को प्रतिबंधित कर दिया था। यही नहीं कोर्ट ने अब ट्रैफिक बाधित करने वाले पंडालों पर भी अंकुश लगाने के आदेश दिए थे। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अजय माणिकराव खानविलकर व जस्टिस शांतनु केमकर की खंड पीठ ने समाजसेवी राजेंद्र कुमार वर्मा की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद आदेश किया था  कि त्योहार या सामाजिक कार्यक्रम के नाम पर अत्याधिक शोर मचाकर आम जनजीवन को प्रभावित करना अनुचित है। हाईकोर्ट मध्य प्रदेश कोलाहल निवारण अधिनियम-1985 की धारा-13 को असंवैधानिक करार दिया। अभी इस धारा के प्रावधानों का दुरुपयोग करते हुए लोग डीजे आदि बजाने की अनुमति ले लेते हैं। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि किसी के मकान या सड़क किनारे लाउड स्पीकर, डीजे आदि के शोर से न केवल मौलिक मानव अधिकार की क्षति होती है बल्कि आसपास रहने वालों को बेहद परेशानी होती है। लिहाज़ा, अधिनियम की जिस धारा में दिए गए प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए लाउड स्पीकर आदि बजाए जाने की अनुमति हासिल कर ली जाती थी, उसे असंवैधानिक करार दिया जाता है। लेकिन उस आदेश पर सटीक अनुपालन हुआ नहीं।एक बात और, कोई भी धर्म का दर्शन कोलाहल या अपने संदेश  को जबरिया अवांछित लोगों तक पहुंचाने  के विरुद्ध है और इस तरह से धार्मिक अनुष्ठान में भारी भरकम ध्वनिविस्तारक यंत्र की अनिवार्यता की बात करना धर्म-संगत भी नहीं है। 
धार्मिक स्थलों से लाऊड स्पीकर उतरवाना या उनकी आवाज़ काम करना एक शुरुआत तो है, लेकिन जब तक सड़क पर हो रहे आए दिन के जलसे-जुलूस, सामाजिक-धार्मिक आयोजनों में शोर के खिलाफ  आवाज़ नहीं उठाई जाती, यह शोर इन्सान ही नहीं प्रकृति को भी डंसता रहेगा ।