न्याय में देरी और साइबर अपराध सबसे बड़ी चुनौती

सुप्रीम कोर्ट की 75 वर्ष गांठ पर न्याय में देरी पर प्रधानमंत्री एवं मुख्य न्यायाधीश की चिन्ता जायज़ है। हालांकि इस तरह की चिन्ता वर्षों से जताई जा रही है। इसके अलावा साइबर अपराध की घटनाओं में जिस तरह से वृद्वि हो रही है, उस पर चिन्ता के साथ इस पर विराम लगाने के प्रयास तत्काल प्रभाव से शुरू करना देश की सरकार की प्राथमिकता बन चुका है। एआई को लेकर भी एक बड़ी चिन्ता देश के आम से लेकर खास तक में घुसपैठ कर चुकी है। ऐसी स्थिति में देश की सरकार को न्यायालय में रिक्त पदों पर भर्ती, न्याय प्रक्रिया को निपटाने के लिए समयावधि का निर्धारण, साइबर अपराध रोकने के लिए तकनीकि दक्ष युवाओं की भर्ती, स्पेशल और संसाधनों से परिपूर्ण साइबर सेलों का गठन अब वक्त की आवश्यकता बन चुका है। न्याय में देरी को लेकर बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला है। विगत में सुप्रीम कोर्ट ने तारीख पर तारीख के सिलसिले पर चिंता प्रकट की थी, लेकिन इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे सका कि आखिर न्यायाधीश मामलों की सुनवाई को टालने या फिर अगली तारीख देने के लिए राज़ी ही क्यों हो जाते हैं? देश की न्यायपालिका व कार्यपालिका इस बात को लेकर प्रतिबद्ध हैं कि अदालतों पर मुकद्दमों का बोझ घटाकर आम लोगों को सहज-सरल न्याय उपलब्ध कराया जाए। न्यायिक तंत्र में वंचित समाज व महिलाओं को न्यायसंगत प्रतिनिधित्व मिल सके। 
यह सुखद संकेत सुप्रीम कोर्ट की 75वीं वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम से मिला, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने न्यायिक व्यवस्था में विश्वास बढ़ाने और मुकद्दमों का दबाव घटाने पर बल दिया। प्रधानमंत्री के इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता है कि सशक्त न्याय व्यवस्था से न केवल लोकतंत्र को मज़बूती मिलती है, बल्कि विकसित भारत को इससे आधार मिलेगा। न्यायपालिका और कार्यपालिका इस बात को लेकर गंभीर नज़र आ रही हैं कि कैसे अदालतों में लंबित मुकद्दमों का बोझ घटे और आम आदमी को शीघ्र न्याय मिल सके। नि:संदेह पिछले वर्ष केंद्र सरकार द्वारा तीन नये आपराधिक न्याय कानून बनाए जाने से भारतीय न्यायिक व्यवस्था मौजूदा चुनौतियों से मुकाबले में सक्षम हुई है। यह विडम्बना है कि हम आज़ादी के दशकों बाद भी देश प्रेमियों के खिलाफ  बनाये गये ब्रिटिश कानूनों का बोझ ढोते रहे हैं। नि:संदेह, इस कदम से भारत की कानूनी, पुलिस और जांच प्रणाली न्यायिक प्रक्रिया को गति दे सकेगी। हालांकि, सरकार दावा कर रही है कि इस दिशा में क्षमता निर्माण और कानूनों के न्यायपूर्ण ढंग से क्रियान्वयन के लिये सरकारी कर्मियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इसके बावजूद नये कानूनों के उपयोग व सीमाओं से आम लोगों को अवगत कराना ज़रूरी है। निश्चित रूप से भारतीय न्यायिक व्यवस्था के प्रति भरोसा जगाने के लिये न्यायिक प्रणाली की विसंगतियों को दूर करने की ज़रूरत भी है। जिस ओर 75वीं वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम में मुख्य न्यायाधीश ने ध्यान दिलाया। उन्होंने कहा भी कि एक संस्था के रूप में प्रासंगिक बने रहने के लिये न्यायपालिका की क्षमता का विस्तार ज़रूरी है।
भारत में न्यायपालिका तीन स्तरों पर काम करती है—सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, और ज़िला न्यायालय शामिल है। 2022 में पूरे भारत में लंबित रहने वाली सभी कोर्ट केस की संख्या बढ़ कर 5 करोड़ हो गई थी। जिसमें जिला और उच्च न्यायालयों में 30 से भी अधिक वर्षों से लंबित 1,69,000 मामले शामिल हैं। जानकारी के अनुसार  दिसम्बर 2022 तक 5 करोड़ मामलों में से 4.3 करोड़ यानी 85 प्रतिशत से अधिक मामले सिर्फ  जिला न्यायालयों में लंबित हैं। दुनिया के सबसे अधिक लंबित अदालती मामले भारत में  हैं। कई न्यायाधीशों और सरकारी अधिकारियों इस बात को कई बार कह चुके हैं कि भारतीय न्यायपालिका के समक्ष लंबित मामलों की चुनौती सबसे बड़ी है। सबसे विचारणीय पहलू कि 2018 के नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, हमारी अदालतों में मामलों को तत्कालीन दर पर निपटाने में 324 साल से अधिक समय लगेगा। उस समय 2018 में 2.9 करोड़ मामले कोर्ट में लंबित थे। अदालतों में देरी होने से पीड़ित और आरोपी दोनों को न्याय दिलाने में देरी होती है। 
अब बात करें साइबर अपराध के बारे में तो समाचार पत्रों में नित्य साइबर अपराध की घटनाएं सामने आ रही हैं। ‘क्राइम इन इंडिया’ रिपोर्ट के अनुसार साइबर अपराध के तहत 65, 893 मामले दर्ज किए गए, जो वर्ष 2021 में 52,974 मामलों की तुलना में वृद्धि दर्शाता है। दरअसल, भारत में डेटा सुरक्षा में सेंध लगाने की घटनाएं आम हो चुकी है। जिस युग में डेटा को सोना कहा जाता है, उस समय डेटा सुरक्षा की वर्तमान स्तिथि में कोई भी देश सुरक्षित रहने और विकास मार्ग पर चलने को लेकर आश्वस्त नहीं हो सकता। अन्य सूचनाओं के साथ-साथ स्वास्थ्य संबंधी डेटा की भी बाज़ार में ऊंची कीमत है, इसलिए अपराधी हैकरों की नज़र इन पर रहती है। यह सरकार और उन संस्थाओं की ज़िम्मेदारी है कि जिन लोगों का डेटा वे लेते हैं, उसे सुरक्षित रखें। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट की 75वीं वर्ष गांठ पर न्याय में देरी को लेकर चिन्ता जताई जाना निश्चित तौर पर इस बात का संकेत है कि केन्द्र सरकार इस विषय पर सोच रही है, इसके साथ ही सरकार को साइबर अपराध एवं एआई को लेकर केन्द्र और राज्य स्तर पर सेमिनार से लेकर संसाधनों में वृद्धि करनी होगी।