कांग्रेस का संकट

लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी तथा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल कुछ अन्य पार्टियों का एक मज़बूत उभार देखा जा सकता है। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण तथा दर्जनों ही प्रभावशाली सार्वजनिक योजनाओं को पूर्ण करने का श्रेय नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ले रही है। दूसरी ओर विगत वर्ष 28 पार्टियों ने एकजुट होकर जो ‘इंडिया’ नाम का गठबंधन बनाया था, वह बुरी तरह बिखरता दिखाई दे रहा है। लोकसभा चुनाव जीतने के लिए तैयार किये गये इस रथ के पहिये बहुत धीरे चलने लगे हैं। इसके कुछ बड़े कारण हैं, जैसे कि इन पार्टियों के नेतृत्व में आपसी समरसता का न होना तथा इन नेताओं का जैसे अहंवादी होना। साझी तार छेड़ने की बजाय ये अपनी-अपनी डफली बजाने में लगे हुये हैं। इनका बड़ा फैसला यह था कि लोकसभा चुनावों के लिए देश भर में ये  टिकटों का विभाजन आपस में मिल-बैठ कर करेंगे ताकि खड़े किये गये एक ही उम्मीदवार को मतदाताओं का भरपूर समर्थन मिल सके। चाहे इस मामले पर आपसी विचार-विमर्श के लिए कुछ बैठकें ज़रूर हुईर्ं, परन्तु इसके साथ ही भिन्न-भिन्न पार्टियों ने अलग-अलग स्थानों पर अपने-अपने उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा करना भी आरम्भ कर दिया है। जिन राज्यों में किसी पार्टी का अधिक प्रभाव था, वहां उस पार्टी ने अन्य पार्टियों के लिए सीटें न छोड़ने की घोषणा कर दी या कम से कम सीटें देने की बातें करना शुरू कर दीं। इस कारण कोई समझौता होने की सम्भावनाएं कम होती गईं।
कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है। विगत वर्ष 28 दिसम्बर को महाराष्ट्र के नागपुर में अपने 139वें स्थापना दिवस के अवसर पर चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुये इसके नेताओं ने यह घोषणा की थी कि देश में दो सिद्धांतों के बीच विवाद चल रहा है। उसके बाद भाजपा के साम्प्रदायिक मुद्दे का मुकाबला करने के लिए इसने देश में जाति-आधारित जनगणना किये जाने का समर्थन करना शुरू कर दिया। चाहे मल्लिकार्जुन खड़गे को  हालात के दृष्टिगत पार्टी अध्यक्ष ज़रूर बनाया गया, परन्तु संगठन में आज भी गांधी परिवार का सिक्का ही चलता दिखाई दे रहा है। एक ओर अन्य पार्टियों के साथ सीटों के विभाजन के लेन-देन की बात चल रही थी, दूसरी ओर राहुल गांधी ने देश भर में अपनी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ शुरू कर दी, जिसने पहले ही पार्टी में पड़े बिखराव को और बढ़ा दिया। नेतृत्व की पकड़ कमज़ोर होते जाने से जहां पार्टी के वरिष्ठ नेता इसे छोड़ते चले गये, वहीं अन्य पार्टियां भी अपनी-अपनी नीति अपना कर इससे अलग होती गईं। बिहार के मुख्यमंत्री तथा जनता दल (यू) के अध्यक्ष नितीश कुमार ने इस महागठबंधन को बनाने का बीड़ा उठाया था, परन्तु उनकी ओर से ही इंडिया गठबंधन को छोड़ कर भाजपा से समझौता करने से यह गठबंधन पूरी तरह से लड़खड़ाने लगा। पिछले दिनों महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री तथा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक चव्हाण तथा मिलिंद देवड़ा की ओर से पार्टी को अलविदा कह कर भाजपा में शामिल होने ने इसे और भी कमज़ोर कर दिया। कांग्रेस का शासन तीन राज्यों हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक तथा तेलंगाना तक ही सीमित हो कर रह गया है। तमिलनाडू तथा झारखंड में सरकार में इसकी भागीदारी है, परन्तु पश्चिम बंगाल तथा पंजाब में इसके अन्य भागीदार पार्टियों के साथ एक मंच पर एकजुट होकर चुनाव लड़ने की घोषणाएं अपनी भावना को खो चुकी हैं।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस के लिए नाममात्र सीटें छोड़ने की घोषणा की है। पंजाब में भी ‘आप’ तथा प्रदेश कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव मैदान में उतरने की घोषणा कर दी है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ भी इसका गठबंधन ठीक नहीं बैठा। दूसरी ओर अखिलेश की समाजवादी पार्टी से अलग होकर अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष जयंत चौधरी ने भी भाजपा के साथ हाथ मिला लिया है। पंजाब में चाहे कांग्रेस के भीतर आंतरिक क्लेश तो बना दिखाई देता है, परन्तु फिर भी यहां के कांग्रेसी नेताओं प्रताप सिंह बाजवा एवं अमरेन्द्र सिंह राजा वड़िंग ने अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर कड़ी मेहनत करके पार्टी के ग्राफ को ऊंचा ज़रूर उठाया है, जिसका अच्छा प्रभाव आगामी लोकसभा चुनावों पर पड़ने की सम्भावनाएं बनती दिखाई दे रही हैं। इस समय बड़ी चुनौतियों में से गुज़र रही इस पार्टी को सम्भलने के लिए शायद अभी समय लग सकता है। इन स्थितियों में आगामी लोकसभा चुनावों तक यह राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को पूरी तरह सम्भाल कर पांवों पर खड़ी हो सकेगी, इस के संबंध में प्रश्न-चिन्ह लगा दिखाई देता है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द