चुनाव से पहले चुनावी चंदे का संकट

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सर्वोच्च अदालत ने 2018 की चुनावी बॉन्ड योजना पर प्रतिबंध लगाकर ऐतिहासिक फैसला दिया है। शीर्ष अदालत का विश्वास है कि इस योजना से मतदाताओं के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार के साथ सूचना के अधिकार का उल्लंघन हो रहा था। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़़ के नेतृत्व में पांच सदस्यीय संविधान पीठ का मानना था कि कोई भी मतदाता किसी भी राजनीतिक दल की विचारधारा और उसके प्रत्याशी की योग्यता के आधार पर वोट देने का निर्णय करता है। इस निर्णय तक पहुंचने के लिए उसे पता होना चाहिए कि किस राजनीतिक दल को कौन चंदा दे रहा है, जिसके आधार पर वह तय कर सके कि इस चंदा देने के पीछे लाभ के बदले लाभ प्राप्त करने की नीयत तो नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं कि चंदा देने वाला व्यक्ति, समूह या कार्पोरेट घराना सरकार की नीतियों को अपने पक्ष में करने के लिए प्रयासरत हो। इस संबंध में स्पष्ट राय बनाने के लिए मतदाता को किसी भी राजनीतिक दल को मिलने वाले चुनावी चंदे के स्रोत की जानकारी होना आवश्यक है। 
संविधान पीठ ने भारतीय स्टेट बैंक को 12 अप्रैल, 2019 से अब तक चुनावी बॉन्ड योजना के अंतर्गत बॉन्डखरीदारों के नाम, खरीद की तारीख, मूल्य वर्ग और उन्हें भुनाने वाले राजनीतिक दलों का विवरण 6 मार्च तक चुनाव आयोग को बताने का आदेश दिया है। अदालत ने आयोग को यह भी निर्देश दिया है कि स्टेट बैंक से प्राप्त सभी जानकारी 13 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर अपलोड करे। चुनावी चंदे की यह व्यवस्था पहले कभी पारदर्शी नहीं थी। इसे लेकर सदैव सवाल उठते ही रहे हैं। इससे निपटने के लिए चुनाव आयोग ने चंदे से जुड़ी व्यवस्था में कई बार बड़े बदलाव भी किए, लेकिन राजनीतिक दलों की स्थिति ‘तू डाल-डाल और मैं पात-पात’ की तरह ही रही। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ के इस फैसले से फिलहाल अब कोई भी पार्टी चुनावी बॉन्ड के ज़रिए चंदा नहीं ले पाएगी। कोई भी व्यक्ति, कम्पनी या संस्था चुनावी बॉन्ड के ज़रिए राजनीतिक पार्टियों को चंदा नहीं दे पाएगी। इसके अलावा जिन राजनीतिक पार्टियों ने चुनावी बॉन्ड को कैश नहीं कराया है। उन्हें इन्हें बैंक में लौटाना पड़ेगा यानि लोकसभ चुनाव से ठीक पहले इस तरह के फैसले से सबसे ज्यादा दिक्कत केन्द्र की सत्तासीन भाजपा को होना तय है। ऐसा नहीं है कि अन्य राजनीतिक दलों को चंदा नहीं मिलता, लेकिन उनको उनकी हैसियत के आधार पर चंदा मिलता है। क्षेत्रीय दलों तक को बहुत बड़ी राशि चंदे में मिलती है। 
हालांकि इस फैसले के बाद अब यह अनुमान लगाया जा रहा है कि चुनावी चंदे की पुरानी व्यवस्था फिर से लागू होगी। चुनावी चंदे की पुरानी व्यवस्था के तहत राजनीतिक दलों को पहले 20 हज़ार से ज्यादा मिलने वाले प्रत्येक चंदे का ब्यौरा चुनाव आयोग को अपने सालाना रिटर्न दाखिल करने के दौरान देना होता था, जिसे आयोग सार्वजनिक भी करता था। हालांकि इनमें राजनीतिक दल मिलने वाले चंदे की 80 फीसदी से ज्यादा राशि को 20 हज़ार से कम का होना बताते हुए उसका ब्यौरा नहीं देते थे। इसके बाद तो आयोग ने इस पूरी व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के चलते ब्यौरा न देने वाली चंदे राशि की लिमिट को 20 हजार से घटाकर दो हजार कर दिया था, लेकिन राजनीतिक दल कहां चूकने वाले थे, उन्होंने फिर वहीं खेल खेला और चुनाव आयोग को जो जानकारी दी, उसमें उन्हें मिली कुल चंदे राशि का 80 फीसदी से ज्यादा हिस्सा दो हजार से कम का बताया। देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओ. पी. रावत के अनुसार चुनावी चंदे की पारदर्शिता को लेकर आयोग लगातार सक्रिय रहा है। इस दौरान आयोग ने कई बार राजनीतिक दलों से सवाल-जवाब भी किए, लेकिन नियमों के कारण राजनीतिक दल इसे निर्धारित सीमा से कम राशि का बताते हुए बच लेते थे। गौरतलब है कि 2018 में चुनावी बॉन्ड योजना लागू किए जाने से पहले राजनीतिक दल सालाना रिटर्न के जरिए तय लिमिट से अधिक राशि के मिले सभी चंदे का ब्यौरा देते थे। बीते पांच-छह साल में चुनावी बॉन्ड के कारण कुछ पार्टियों को नुकसान हुआ तो कुछ को काफी फायदा हुआ। वे सत्ताधारी दल, जिनके पास कुछ देने की ताकत होती है, उन्हें इसका फायदा ज्यादा हुआ। ऐसे में यह कहना कि केवल भाजपा को इससे चंदा मिला है, यह सही नहीं है। राज्य स्तर की पार्टियों को भी काफी चंदा मिला है। हमारे देश में चुनाव का खर्च धीरे-धीरे बढ़ता गया है। चुनाव आयोग ने भी खर्च की सीमा बढ़ाते-बढ़ाते चालीस लाख कर दी है। वर्तमान में आम आदमी चुनाव नहीं लड़ सकता है। इसमें सौ फीसदी सच्चाई है कि जो कॉर्पोरेट हैं, जो कम्पनियां हैं, वे नहीं चाहतीं कि उनका नाम सार्वजनिक हो। आगे चुनाव लड़ने के लिए पार्टियां किस तरह चंदा लेंगी, यह बड़ा प्रश्न पैदा हो गया है। 
अब कयास लगाए जा रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे पर इस फैसले का सीधा-सीधा असर पड़़ेगा। बहरहाल, नफा-नुकसान की बात अलग है। इस फैसले ने राजनीतिक दलों को एक अवसर उपलब्ध कराया है कि वे चुनाव आयोग के साथ विचार-विमर्श करके चुनावी दान के मसले पर एक पारदर्शी प्रक्रिया तैयार करें। हालांकि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में यह एक कठिन कार्य है। फिर भी इस फैसले के आलोक में चुनावी पारदर्शिता की दिशा में एक कदम आगे तो बढ़ा ही जा सकता है।