भविष्य के भारत की नींव हैं मातृ-भाषाएं

आज अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष

मातृभाषा मां भाषा होती है। यही वह मूल सूत्र है जो किसी व्यक्ति को उसके अंचल, प्रकृति और संस्कृति से जोड़े रखता है। किसी व्यक्ति के मनोरंजन, विचार और व्यवसाय की भाषा भिन्न हो सकती है लेकिन उसे आत्म से जुड़ने अथवा जड़ों से जोड़ने वाली भाषा तो मातृभाषा ही होती है। इसलिए कहा भी गया है कि मां मातृभूमि और मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं है। गर्भावस्था से ही बालक सबसे पहला संवाद अथवा भाव ग्रहण अपनी मां से करता है। इसलिए यह एक ऐसा संस्कार है, जिसे व्यक्ति सहज रूप में मां से दुग्धपान के साथ-साथ ग्रहण करते हुए आगे बढ़ता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की इकाई युनेस्को ने वर्ष 1999 में प्रतिवर्ष 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस के रूप में मनाये जाने की घोषणा की थी।
किसी भी राष्ट्र की मूल इकाई व्यक्ति, परिवार और समाज होते हैं। व्यक्ति की निर्मिती ज्ञान-विज्ञान, सूचना-तकनीक एवं शिक्षा के माध्यम से होती है और यही व्यक्ति फिर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा बनता है। यह विडंबना ही है कि बालक को प्राथमिक पाठशाला में सर्वाधिक दबाव और बोझ विदेशी भाषा यानी अंग्रेजी का ही झेलना पड़ता है। जिन बातों को वह अपनी मां के साथ अथवा परिवार के लोगों के साथ चर्चा करके सहज ही समझ सकता है, उनके लिए उसे बड़ी ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है और छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन और कोचिंग का भी सहारा लेना पड़ता है। बहुभाषिकता भारतवर्ष की एक जीवंत परंपरा है। भारतवर्ष की विविधता में एकता का बड़ा सूत्र मातृभाषाएं हैं। तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, गुजराती, हरियाणवी, ब्रज, अवधी, हिमाचली, कश्मीरी आदि अनेक भाषाएं जहां एक ओर समूचे देश को एकता के सूत्र में बांधती हैं, वहीं इन भाषाओं में विद्यमान ज्ञान और चिंतन बहुमूल्य है। ध्यान रहे समूची आत्मनिर्भरताओं का मूल भाषिक आत्मनिर्भरता ही है। संविधान में हिंदी सहित समस्त भारतीय भाषाओं के विकास और व्यवहार की बात कही गई है लेकिन कार्यालयों में शिक्षा व्यवस्थाओं का व्यवहार अभी भी अंग्रेजी पर ही केंद्रित है। 
गली-गली में अंग्रेजी माध्यम के इंटरनेशनल विद्यालय खुले हुए हैं, जहां मातृभाषा तो बहुत दूर, हिंदी की भी उपेक्षा होती है और अंग्रेजी बच्चों पर लादी व लदवाई जा रही है। इसका एक बड़ा कारण भारतीय भाषाओं और हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी ज्ञान की उत्कृष्टता का प्रचार एवं उसमें रोज़गार के अवसरों की उपलब्धता भी है। ‘मेरे सपनों का भारत’ नामक पुस्तक में इस विषय पर विस्तार से विचार करते हुए गांधी जी ने लिखा है— करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में जो बोझ दिमाग पर पड़ता है, वह असह्य है। मां के दूध के साथ जो संस्कार मिलते हैं और जो मीठे शब्द सुनाई देते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह नहीं होता है। विदेशी भाषा ने हमारी देशी भाषाओं की प्रगति और विकास को रोक दिया है। 
क्या आज भी गांधी जी की यह चिंता यथावत नहीं खड़ी है? आज से हजारों वर्ष पूर्व के जूनागढ़-गुजरात, महरौली-दिल्ली, पश्चिम बंगाल, बादामी गुफाएं-कर्नाटक, चंद्रगृह के शिलालेख-कर्नाटक, शोलिंगुर मंदिर के शिलालेख चेन्नई एवं देश के अनेक भागों में उपलब्ध शिलालेखों पर संस्कृत, पालि, प्राकृत, तमिल, तेलगु, कन्नड़, उड़िया, मराठी आदि भाषाएं अंकित हैं, जो भारतवर्ष की बहुभाषी समृद्धता एवं स्वीकार्यता की जीवंत परंपरा के द्योतक हैं। आज भारत वर्ष में 100 से अधिक भाषाओं में समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं, जिनमें से अनेक ठेठ देशी भाषाओं के हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रवर्त्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’ का उद्घोष किया, वह भारतीय भाषाओं के महत्व का उद्घाटन और उनकी स्थिति पर चिंता की अभिव्यक्ति ही थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी भारतीय भाषाएं निरंतर उपेक्षा का शिकार रहीं। भारतीय भाषाओं के महत्व की स्थापना से ज्ञान-विज्ञान और उपलब्धियों के जो अवसर सुदूर ग्रामीण, पर्वतीय एवं वनवासी बंधुओं के लिए भी खुल जाने चाहिए थे, वे बंद ही रहे। संरक्षण और महत्व न देने के कारण अनेक स्थानीय भाषाएं समाप्त हो चुकी हैं। यूनेस्को ने 197 भारतीय भाषाओं को लुप्तप्राय घोषित किया है और विभिन्न भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं। क्या इससे साहित्य, संस्कृति, कला और ज्ञान-विज्ञान का हृस नहीं हो रहा है?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भारतीय भाषाओं के महत्व को समझते हुए उनकी स्थापना का प्रयास कर रही है। उसमें प्रविधान है कि कक्षा 8 और उससे आगे तक भी यदि हो सके तो शिक्षा का माध्यम घर की भाषा, मातृभाषा, स्थानीय भाषा, क्षेत्रीय भाषा होनी चाहिए। इसके साथ-साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि यह प्रविधान सार्वजनिक और निजी दोनों प्रकार के विद्यालयों पर लागू होने चाहिए। विज्ञान सहित सभी विषयों में उच्चतम गुणवत्ता वाली पाठ्य पुस्तकों को घरेलू भाषा अथवा मातृभाषा में उपलब्ध करवाया जाएगा। यह भी सकारात्मक है कि आज देश के कई प्रदेशों में मैडीकल एवं इंजीनियरिंग जैसे महत्वपूर्ण विषयों की पढ़ाई स्थानीय भाषाओं में आरंभ हो चुकी है। आज विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाएं देश की अनेक भाषाओं में होना आरम्भ हो चुकी हैं। इससे अंग्रेजी न जानने वाले, स्थानीय भाषाओं में ज्ञान और शिक्षा ग्रहण करने वाले लोगों को भी समान अवसर मिलेंगे। सर्वविदित है कि बालक अपनी मातृभाषा में अधिक तेजी से और सहजता से सीखता है। भारत वर्ष की ज्ञान परम्परा के अनेक महापुरुष भारतीय भाषाओं के ज्ञान से ही वैश्विक स्तर तक पहुंचे हैं। स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी एवं महान वैज्ञानिक ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आदि की प्रारंभिक शिक्षा उनकी बांग्ला, गुजराती और तमिल जैसी मातृभाषाओं में ही हुई थी।
आज नया भारत, समर्थ भारत, आत्मनिर्भर भारत, भविष्य का भारत एवं विकसित भारत जैसे अनेक संकल्पों के साथ देश आगे बढ़ रहा है। ऐसे में यह आवश्यक है कि मातृभाषाओं की ताकत को पहचानते हुए उन्हें महत्व दिया जाए। इससे पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति अथवा महानगरों से दूर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले करोड़ों नागरिकों को भी अपनी स्थानीय भाषाओं में सीख-समझ कर भविष्य के भारत के संकल्प में अपना योगदान देने का अवसर मिल सकेगा।