हरियाणा पुलिस को पंजाब में दाखिल होकर कार्रवाई करने का अधिकार नहीं

ज़रा अब देखिए मैदान कौन मारेगा
़गुलों में फूट है और एकता है ़खारों में।
(लाल फिरोज़पुरी)
किसान संघर्ष में इस बार जो घटित हो रहा है, वह प्रत्यक्ष रूप में एक बात तो दर्शा ही रहा है कि इस बार मोर्चे में सभी किसान पक्ष एकजुट नहीं हैं। चाहे लक्ष्य सभी किसान पक्षों का एक ही हो, परन्तु इनकी आपसी फूट बहुत तीव्र है। यदि हमारे किसान गुटों में एकता होती तो पहले जीते किसान मोर्चें की भांति इस बार भी किसान नेता एकजुट होकर हालात पर विचार करके सामूहिक फैसले लेने के समर्थ होते। ये जोश को होश के काबू में रखते। जिस प्रकार पिछले आन्दोलन के समय 26 जनवरी की घटना को छोड़ कर नियंत्रण में रखने में सफल भी रहे थे। ़खैर! जिस प्रकार कल मोर्चे में दो बहनों के इकलौते भाई  21 वर्षीय शुभकरण की मौत हुई है, उसने कई प्रश्न उत्पन्न कर दिये हैं। पहला सवाल तो मोर्चा चला रहे नेतृत्व पर ही है कि जब मोर्चा शम्भू व खनौरी सीमाओं पर चल रहा है तो वहां युवाओं के जोश को होश एवं नियत्रंण में रखने तथा समझाने के लिए कोई बड़ा नेता वहां क्यों मौजूद नहीं था?
बारहा देखा है सागर रहगुज़ार-ए-इश्क में
कारवां के साथ अक्सर रहनुमा होता नहीं।
(सागर सदीकी)
दूसरी ओर नौजवान बेशक जोश में हैं और वे अपनी मांगें मनवाने के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं, परन्तु हरियाणा पुलिस को यह अधिकार किसने दे दिया कि अपने ही देश की अपनी राजधानी दिल्ली में जाकर अपनी मांगों के लिए शांतिपूर्वक रोष प्रदर्शन करने जा रहे लोगों को मार्ग में पक्की दीवारों का निर्माण कर दे, कि वे हरियाणा में से नहीं निकल सकते। फिर भारत एक संघात्मक देश है, हां अभी तक तो संघात्मक देश ही है, जिस कारण प्रत्येक प्रदेश का अपना-अपना अधिकार क्षेत्र भी है, तो हरियाणा पुलिस किस अधिकार से पंजाब की धरती पर खड़े नौजवानों पर हथियारों के साथ हमलावर हुई जबकि वे निहत्थे भी थे। किसने अधिकार दिया कि एक दूसरे प्रदेश में जाकर वह एक युवक की जान ही ले ले। कहा जाएगा कि यदि हम पंजाबियों का हरियाणा में से निकलने का अधिकार समझते हैं तो हरियाणा पुलिस के पंजाब में दाखिल होकर कार्रवाई करने का विरोध क्यों करते हैं? दोनों बातों में अंतर है। किसी नागरिक का देश के किसी भी भाग में जाना उसका मौलिक अधिकार है। शांतिपूर्वक रोष व्यक्त करना भी उसका मौलिक अधिकार है, परन्तु एक प्रदेश की पुलिस का दूसरे प्रदेश में बिना बताए कार्रवाई करना, कार्रवाई ही नहीं अपितु मार देना कोई अधिकार नहीं है। यह तो सरासर हत्या करने के समान है। बेशक पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान कह रहे हैं कि मुझे पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू करने की धमकी न दें। 100 बार राष्ट्रपति शासन लगा लें, मुझे कोई परवाह नहीं। यहां एक तो उन्हें अवश्य स्पष्ट करना चाहिए कि ऐसी धमकी दी किसने है और ऐसी धमकी देने वाला चाहता क्या है? कई बार सिर्फ संकेतों में बातें करना सच्चाई छिपाने वाला भी होता है, परन्तु यदि वह वास्तव में पंजाब के अधिकारों की रक्षा करने के दावेदार हैं तो अब तक उन्होंने इस निहत्थे पंजाबी युवक की जान लेने वालों पर पंजाब में प्रविष्ट होकर हत्या करने के लिए सख्त धाराओं के तहत केस दर्ज क्यों नहीं किया? विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा की हरियाणा के गृह मंत्री को भी पार्टी बनाने की मांग की ओर ध्यान देने की भी ज़रूरत है। 
वास्तव में ‘दिल्ली कूच’ का नारा देने वाले पक्ष के नेतृत्व को भी चाहिए था कि ऐसे बड़े फैसले से पहले शेष किसान गुटों तथा समाज के अन्य वर्गों को साथ लेने की कोशिश की जाती, परन्तु अब जब हालात इतने बिगड़ चुके हैं तो अन्य किसान गुटों को भी एहसास होना चाहिए कि आपसी फूट यदि किसी लक्ष्य की प्राप्ति को असंभव नहीं भी बना देती तो लम्बा तथा मुश्किल भरा तो अवश्य बना देती है। 
अब एक ओर तो किसान गुटों को आपसी एकता के लिए कोशिश करनी चाहिए। विशेष तौर पर मोर्चा बनाने वाले पक्ष को दूसरे दोनों पक्षों संयुक्त किसान मोर्चा तथा भारतीय किसान यूनियन (उग्राहां) को इस मोर्चे में शामिल होने का आह्वान करना चाहिए जबकि इन दोनों पक्षों को भी यह संकेत स्पष्ट देना चाहिए कि वे किसान हितों के लिए कोई साझा रणनीति अपनाने के लिए तैयार हैं। यह संतुष्टि की बात है कि चंडीगढ़ में संयुक्त किसान मोर्चे के नेताओं ने अपनी बैठक के बाद आन्दोलनकारी किसान संगठनों के साथ तालमेल के लिए एक समिति का गठन किया है। इसके साथ ही संयुक्त किसान मोर्चा ने पंजाब की सीमा में दाखिल होकर नौजवान शुभकरण को गोली मार कर कत्ल करके के आरोप में हरियाणा के मुख्यमंत्री तथा गृह मंत्री पर केस दर्ज करने की भी मांग की है। केन्द्र सरकार का भी फज़र् है कि वह अपने ही देश में ‘बांटो और राज करो’ की अंग्रेज़ों की रणनीति अपनाने की बजाय अब किसानों के सभी तीन प्रमुख पक्षों के प्रतिनिधियों को बातचीत का निमत्रंण दे और खुले दिल से न्यायसंगत पेशकश करे, बात सुने, समझे, सुनाए एवं समझाए। वैसे हवा में ‘सरगोशियां’ हैं कि इस बारे केन्द्र सरकार को सलाह दी जा रही है कि आगामी बैठक में गृह मंत्री अमित शाह स्वयं भी शामिल हों। 
परन्तु केन्द्र सरकार को याद रखना चाहिए कि यह उसकी भी गलती है कि जब पिछले मोर्चे के समय वायदा किया गया था कि एक समिति इन मांगों पर विचार करेगी तो इतने वर्षों में किसान संगठनों के साथ इस संबंधी कोई खुल कर बात क्यों नहीं की गई? सरकार की ओर से बनाई गई समिति ने अभी तक रिपोर्ट क्यों नहीं दी? बाकी याद रखें कि ज़ुल्म का दौर सदा नहीं रहता और यह भी ज़रूरी नहीं कि ज़ुल्म के जवाब में रक्तिम ब़गावत ही उठे। लोकों के दिलों में ज़ुल्म करने वाले पक्ष के खिलाफ नफरत पैदा होना भी काफी होता है। हमारे सामने मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दू धर्म पर किये गये ज़ुल्मों का उदाहरण है कि दिलों में उत्पन्न हुई घृणा कैसा बदला लेती है। अत: आप भी पंजाबियों विशेषकर सिखों के मन में बेगानगी एवं नफरत पैदा न करें। सबा अकबराबादी के ल़फ्ज़ों में —
ज़ुल्म के दौर में इकराह-ए-दिली काफी है,
एक खूं-रेज़ ब़गावत जो ज़रूरी तो नहीं।
पश्चिम बंगाल की घटना, सिख तथा भाजपा
बेशक किसान मोर्चे की स्थिति में इस घटना को उतना महत्व नहीं मिला, परन्तु जो कुछ पश्चिम बंगाल में एक सिख अधिकारी के साथ सिख होने के कारण घटित हुआ, वह भाजपा तथा आर.एस.एस. के शीर्ष नेतृत्व द्वारा सिखों के मन को जीतने की कोशिशों के विपरीत यह प्रभाव ही देता है कि भाजपा नेताओं के मन में मुसलमानों तथा ईसाइयों के प्रति ही नहीं अपितु देश के अन्य अल्पसंख्यकों के प्रति भी एक नफरत की भावना है। 
एक सिख एस.एस.पी. जसप्रीत सिंह को उसके ईमानदारी तथा सलीके से ड्यूटी निभाने के बीच पश्चिम बंगाल में भाजपा के एक शीर्ष नेता जो विधानसभा में विपक्ष के नेता भी हैं, द्वारा तथा उसके साथियों द्वारा खालिस्तानी कह कर धमकाने की वीडियो उनके मन में सिखों के प्रति नफरत की भावना को ही उजागर करती है।  हम उस सिख अधिकारी के हौसले तथा सूझबूझ की भी प्रशंसा करते हैं कि उन्होंने विनम्रता एवं सलीके से काम लिया, परन्तु स्पष्ट शब्दों में यह भी कह दिया कि आप मेरी दस्तार के कारण मुझे खालिस्तानी कह रहे हो? आप मेरे धर्म के बारे कुछ नहीं कह सकते। क्या किसी ने आपके धर्म बारे कुछ बोला है? तो आप मेरे धर्म पर टिप्पणी कैसे कर सकते हो? जसप्रीत सिंह ने बाद में बताया कि भाजपा नेता शुभेंदू अधिकारी जो विपक्ष के नेता भी हैं, बहस के बाद स्वयं पीछे जा कर बैठ गए और महिला भाजपा नेता आगे आ गईं।
भारत में सिखों की संख्या लगभग दो प्रतिशत ही है, परन्तु अफसोस है कि हम में से आई.ए.एस., आई.पी.एस. तथा अन्य प्रतिस्प्रर्धी परीक्षाओं में उच्च अधिकारी दो फीसदी भी नहीं बन पा रहे। वैसे जो बनते भी हैं, उनमें से भी केन्द्र में किसी बड़े पद पर कम ही दिखाई देते हैं। सिख अधिकारी दूरवर्ती उन प्रदेशों में नियुक्त हैं, जहां सिख आबादी नाममात्र है। यह वास्तव में चिन्ताजनक बात है कि देश पर शासन कर रही पार्टी का प्रदेश में विपक्षी नेता के रूप में काम कर रहा सबसे बड़ा नेता एक सिख अधिकारी को सिर्फ डराने, धमकाने तथा अपनी मज़र्ी करवाने के लिए खालिस्तानी कह देता है। हम समझते हैं कि बंगाल पुलिस को तो उसके खिलाफ बनती कार्रवाई करनी ही चाहिए, परन्तु प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह तथा स्वयं आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत जो सिखों के प्रति विशेष स्नेह दिखाने की बाते करते रहते हैं, और उन्होंने कई अच्छे कार्य भी किये हैं, को इस मामले में निजी हस्तक्षेप करके शुभेंदू अधिकारी को माफी मांगने के लिए कहना चाहिए, ताकि सिखों को सचमुच यह एहसास हो कि इस देश में उन्हें बेगाने नहीं समझा जा रहा और ऐसा करने वालों को भाजपा तथा आर.एस.एस. भी सहन नहीं करते। प्रत्येक पगड़ीधारी सिख को खालिस्तानी नहीं कहा जा सकता। नहीं तो देश के लिए सबसे अधिक कुर्बानियां देने वाले, विभाजन के समय मुस्लिम नेता मुहम्मद अली जिन्ना की बड़ी पेशकशों को ठुकार कर भारत में हिन्दुओं के साथ आ कर भारत की सीमा पानीपत बनने देने की बजाय फिरोज़पुर तथा अमृतसर तक  ही रोकने वाले सिखों को प्यार के बदले मिलती नफरत का एहसास न हो। ज़ाफर अब्बास के शब्दों में : 
प्यार के बदले ऩफरत पाई,
ऩफरत भी इतनी गहरी, 
ऐसा क्यों है, क्यों है ऐसा,
कोई समझ न पायेगा। 
-मो. 92168-60000